लखनऊ से उठी नीली लहर : सियासी पारा चढ़ा, भाजपा-सपा में खलबली
लखनऊ के कांशीराम स्मारक से निकली मायावती की हुंकार केवल रैली नहीं, बल्कि एक राजनीतिक संदेश है, कि बसपा फिर अपने मूल पथ पर लौट आई है। दलित-पिछड़ा एकता का नया बिगुल बज चुका है, और उसके साथ ही 2027 की सियासत का शंख भी। ऐसे में सवाल तो यह नहीं कि बसपा चुनाव लड़ेगी या नहीं, सवाल यह है कि कितने दल इस बार उसकी हुंकार की तपिश झेल पाएंगे। मायावती का यह रुख केवल चुनावी घोषणा नहीं, बल्कि संगठनात्मक पुनर्गठन की शुरुआत है तो है ही इस हुंकार ने यूपी की सियासत को फिर त्रिकोणीय मोड़ पर ला खड़ा किया. यह अलग बात है कांशीराम के सपनों को मूर्त रूप देने का दावा करने वाली मायावती के सामने चुनौती, आंदोलन को पुनः जन-जन के दिल तक पहुंचाने की है. और अगर ऐसा हुआ तो यूपी की राजनीति में फिर से नीली आभा लौट सकती है
सुरेश गांधी
हो जो भी,
हकीकत तो यही है
स्मारक से उठी बहुजन
नारी शक्ति की इस गूंज
ने सियासी गलियारों में हलचल मचा
दी। स्मारक पर उमड़ी लाखों
की भीड़ ने यह
साफ कर दिया कि
बसपा फिर मैदान में
लौट आई है। मायावती
उनकी इस गर्जना से
सियासी हलचल तेज हो
गई है। भाजपा और
सपा, दोनों खेमों में बेचैनी देखी
जा रही है। 2007 की
तरह एक बार फिर
उन्होंने दलित-पिछड़ा-ब्राह्मण
समीकरण का मंत्र दोहराया
और गठबंधन राजनीति को ‘जनता की
ताकत’ से जवाब देने
का संदेश दिया। इसके चलते राजनीतिक
गलियारों में अब यही
सवाल गूंज रहा है,
क्या मायावती की वापसी से
2027 में यूपी की राजनीति
का समीकरण बदल जाएगा? बता
दें, बसपा सुप्रीमो मायावती
ने लाखों की भीड़ के
बीच 2027 में पांचवीं बार
सत्ता में लौटने का
संकल्प लिया और ऐलान
किया कि बसपा अब
किसी के सहारे नहीं,
अपने दम पर आगे
बढ़ेगी। 2007 की तर्ज पर
“दलित-पिछड़ा-ब्राह्मण एकता” का सूत्र दोहराते
हुए उन्होंने विपक्षी गठबंधन और भाजपा दोनों
को एक साथ चेताया,
“हमारी ताकत जनता है,
गठबंधन नहीं।” “अबकी
बार बहुजन समाज पार्टी अकेले
दम पर सरकार बनाएगी।”
बसपा किसी के सहारे
नहीं, अपने दम पर
आगे बढ़ेगी।” और यदि दलित
वोट का 60 से 70 फीसदी पुनः बसपा के
साथ जुड़ गया, तो
2027 में यह पार्टी फिर
निर्णायक भूमिका में आ सकती
है।
हालांकि युवा दलित मतदाता, जो आज भाजपा और सपा के बीच बंट चुका है, उसे वापस लाना बसपा के लिए सबसे बड़ी परीक्षा होगी। सपा पर केंद्रित हमला यह संकेत देता है कि आगामी चुनाव में मुकाबला बसपा बनाम सपा के रूप में उभर सकता है, जबकि भाजपा पर अप्रत्यक्ष प्रहार से बसपा एक “संतुलित विपक्ष” की स्थिति बनाए रखना चाहती है। मायावती की आवाज में दो बातें साफ थीं, पहली, सत्ता के बिना सम्मान नहीं, दूसरी, गठबंधन की राह नहीं, आत्मनिर्भर राजनीति ही विकल्प है। यदि बसपा अपने पुराने संगठनात्मक अनुशासन और वैचारिक एकजुटता को पुनः जीवित कर पाती है, तो 2027 का चुनाव केवल दो दलों का नहीं, बल्कि “नीले झंडे बनाम लाल-केसरिया गठजोड़” का भी मुकाबला होगा। इतना ही नहीं, 2007 की तर्ज पर “दलित-पिछड़ा-ब्राह्मण एकता” की पुकार के साथ मायावती ने भाजपा को सीधी चुनौती दी और विपक्षी गठबंधन को भी सख्त संदेश, कि अब बसपा न केवल मैदान में है, बल्कि मुकाबले की दिशा बदलने को तैयार है। मतलब साफ है कांशीराम स्मारक में उमड़ी भीड़ ने यह साबित कर दिया कि बहनजी का करिश्मा अब भी बरकरार है। मायावती के मंच पर आते ही नारे गूंजे, “बहनजी तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं।” यह दृश्य न केवल बसपा कार्यकर्ताओं के जोश को दिखा रहा था, बल्कि यूपी की राजनीति के बदलते समीकरणों की झलक भी दे रहा था।
लाखों की भीड़ और अनुशासित बसपाईयों की मौजूदगी ने विपक्ष और सत्ता पक्ष दोनों को संदेश दिया कि मायावती को अब हाशिये पर समझना भूल होगी। उन्होंने कहा, “हम गठबंधन की राजनीति में अब नहीं पड़ेंगे। बसपा अपने दम पर 2027 का चुनाव लड़ेगी और पूर्ण बहुमत की सरकार बनाएगी।” इस घोषणा ने राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी। मायावती ने बीते चुनावों में गठबंधन से हुए नुकसान को खुलकर स्वीकार किया और कहा कि बसपा का वोट बैंक किसी की झोली में नहीं जाएगा। मायावती का पूरा भाषण 2007 की ऐतिहासिक जीत को याद दिलाता रहा। उन्होंने उस समय के “सोशल इंजीनियरिंग मॉडल” की बात दोहराई, जब दलित, पिछड़े और ब्राह्मण समाज ने मिलकर बसपा को पूर्ण बहुमत तक पहुंचाया था। आज 2027 की ओर देखते हुए उन्होंने फिर वही समीकरण साधने का संकल्प लिया है। उनका कहना था, “कांशीराम का सपना अधूरा नहीं रहेगा। अबकी बार फिर बहुजन समाज की सरकार बनेगी।” मायावती ने भाजपा पर सीधा हमला करते हुए कहा कि “दलितों के नाम पर राजनीति करने वाले असल में उन्हें अधिकार नहीं, सहानुभूति देते हैं।” उन्होंने यह भी कहा कि बसपा सरकार में दलितों, पिछड़ों और गरीबों को जो सम्मान मिला था, वह आज खो गया है। भाजपा की नीतियों पर टिप्पणी करते हुए मायावती ने कहा, “जनता को योजनाओं का दिखावा नहीं, स्थायी सुरक्षा चाहिए।” मायावती का यह रुख भाजपा के लिए चेतावनी है। अगर बसपा अपने परंपरागत वोट बैंक को फिर सक्रिय कर लेती है तो कई सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय और कठिन हो जाएगा। मायावती ने अपने भाषण में अखिलेश यादव और कांग्रेस नेतृत्व पर भी तीखा हमला बोला। उन्होंने कहा, “गठबंधन से वोट नहीं जुड़ते, बल्कि टूटते हैं। अनुभव हमें यही सिखाता है।” यह बयान सपा-कांग्रेस गठबंधन के लिए बड़ा संकेत है। क्योंकि इन दोनों दलों की रणनीति दलित-मुस्लिम-ओबीसी वोटों के साझा आधार पर टिकी है।2027 में जनता खुद
फैसला करेगी कि उसे दिखावा
चाहिए या स्थिर शासन।”
उनके शब्दों में वह पुराना
आत्मविश्वास झलक रहा था
जो कभी 2007 में उन्हें मुख्यमंत्री
की कुर्सी तक ले गया
था। आज वही आत्मविश्वास
फिर लौटता दिख रहा है,
बसपा कार्यकर्ता के चेहरे पर,
और मायावती के स्वर में।
उनकी यह हुंकार, यूपी
की सियासत में गर्माहट ला
दी है. खासकर आगामी
विधानसभा चुनाव साल 2027 में अकेले चुनाव
लड़ेगी, का बयान इस
बात का संकेत है
कि अब सपा-भाजपा
को 2027 में जीत के
लिए नाकों चने चबाने पड़ेंगे.
मतलब साफ है लखनऊ
के रामाबाई मैदान में बसपा की
महारैली सिर्फ एक स्मृति दिवस
का आयोजन नहीं थी, बल्कि
यूपी की राजनीति में
नीले झंडे की नई
आहट का संकेत भी
थी। दलित, पिछड़े और वंचित वर्गों
को एकजुट कर फिर से
सत्ता तक पहुंचने की
तैयारी अब शुरू हो
चुकी है। योगी सरकार
की मरम्मत कार्यों को लेकर अप्रत्यक्ष
सराहना और सपा-कांग्रेस
पर तीखे हमलों के
बीच मायावती ने यह संदेश
देने की कोशिश की
कि बसपा अब भी
संविधान, स्वाभिमान और सर्वजन हिताय
की राजनीति की मूलधारा है।
यहां जिक्र करना
जरुरी है कि यूपी
की राजनीति में पिछले कुछ
वर्षों से मायावती की
सक्रियता सीमित थी। विधानसभा और
लोकसभा चुनावों में पार्टी के
कमजोर प्रदर्शन ने यह आभास
दे दिया था कि
बसपा अब अपने पुराने
जनाधार को खो चुकी
है। लेकिन रविवार को हुए इस
महासभा ने यह धारणा
तोड़ी। रामाबाई मैदान में उमड़ी भीड़
ने यह साबित किया
कि बसपा का सामाजिक
आधार अभी समाप्त नहीं
हुआ है, केवल पुनर्संगठन
की प्रतीक्षा थी। मायावती ने
इसी मौके को चुना
कि कांशीराम की विरासत को
फिर से ‘सत्ता की
मास्टर चाबी’ में बदलने की
घोषणा की जाए। सपा
को उन्होंने जिस अंदाज में
“जातिवादी दल” बताते हुए
दलित समाज के साथ
हुए “शोषण और उपेक्षा”
को याद दिलाया, वह
अखिलेश यादव के ओबीसी-दलित गठबंधन के
प्रयास को कमजोर करने
का प्रयास है। मायावती समझती
हैं कि यदि सपा
का यह सामाजिक समीकरण
मजबूत हुआ तो बसपा
के लिए 2027 में चुनौती बढ़ेगी।
इतना ही नहीं मायावती
ने कांग्रेस को ‘नौटंकी’ कहकर
बाबा साहब को भारत
रत्न न देने, मंडल
रिपोर्ट न लागू करने
जैसे पुराने मुद्दे उठाए। बीजेपी पर आरक्षण बिल
लटकाने और कागजी शिलान्यासों
की राजनीति का आरोप लगाया।
यानी बसपा ने खुद
को इन दोनों के
बीच संविधान रक्षक शक्ति के रूप में
प्रस्तुत किया। उन्होंने यह संदेश देने
की कोशिश की कि बसपा
न केवल दलितों की,
बल्कि संविधान और सामाजिक न्याय
की भी असली प्रहरी
है।
अपने भाषण में
मायावती ने बार-बार
2007 के पूर्ण बहुमत का उदाहरण दिया।
वह दौर जब बसपा
ने ‘बहुजन से सर्वजन’ का
नारा दिया और दलित-ब्राह्मण समीकरण से सत्ता में
पहुंची। आज फिर उन्होंने
उसी फॉर्मूले को जगाने की
कोशिश की है। उनका
कहना था कि “हमने
हर जाति को सम्मान
और रोज़गार के अवसर दिए,
किसी को गुलाम नहीं
बनाया।” यह पंक्ति सीधे
तौर पर वर्तमान ‘फ्री
राशन राजनीति’ की आलोचना थी।
यह रेखांकित करता है कि
मायावती की राजनीति सशक्तिकरण
बनाम परनिर्भरता के विमर्श पर
आधारित है। मायावती ने
विपक्षी दलों पर दलित
वोट तोड़ने का आरोप लगाते
हुए कहा कि “बिकाऊ
संगठनों“ के जरिए दलित
समाज में भ्रम फैलाया
जा रहा है। उन्होंने
बाबा साहब का हवाला
देते हुए कहा, “सत्ता
मास्टर चाबी है, जिसके
बिना सम्मानपूर्ण जीवन असंभव है।”
इस कथन के जरिए
उन्होंने सत्ता को आंदोलन का
अंतिम लक्ष्य बताया, न कि साधन
मात्र। यही वह वैचारिक
बिंदु है, जिससे बसपा
दोबारा आत्मविश्वास और वैचारिक पहचान
दोनों हासिल करना चाहती है।
मायावती ने कार्यकर्ताओं को
स्पष्ट निर्देश दिया कि 2027 की
तैयारी 2007 की तरह “छोटी-छोटी बैठकों और
सर्वसमाज के संवाद” से
होगी। यह बसपा की
पुरानी कैडर आधारित रणनीति
की वापसी है। इससे पार्टी
बड़े जनसमूह की बजाय गांव-स्तर पर प्रभावी
नेटवर्क बनाने पर ध्यान देगी।
यही बसपा का हमेशा
से चुनावी हथियार रहा है, जिसने
उसे सीमित प्रचार के बावजूद भारी
जनमत दिलाया था।







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