बैलेट पेपर का खौफनाक दौर और लोकतंत्र की नई सुरक्षा
जी हां, भारत के चुनावों की दो तस्वीरें, एक लहूलुहान अतीत, दूसरा सुरक्षित आज; फिर कुछ दल बैलेट की ओर क्यों देख रहे हैं? ये बड़ सवाल तो है ही. खासतौर से तब जब लोकतंत्र की वो रातें जब मतपेटिकाएं लूटी जाती थीं और मौतें गिनी जाती थीं. वैसे भी भारत का लोकतंत्र किसी एक दिन में परिपक्व नहीं हुआ। इसकी यात्रा खून, दहशत और भयावह रातों से होकर गुज़री है। आज ईवीएम युग में शांतिपूर्ण चुनाव देखकर युवा पीढ़ी मान भी नहीं सकती कि कभी बैलेट पेपर का दौर ऐसा था जहां वोट डालना “लोकतांत्रिक अधिकार” नहीं, बल्कि “जान पर खेला जाने वाला जोखिम” था। बूथों पर कब्जा कर लेने से लेकर मतपेटिकाएं उठाकर ले जाने, बैलेट पर पानी डालकर उन्हें खराब कर देने, और मतगणना के थैलों के गायब हो जाने तक, भारत यह सब देख चुका है। हर चुनाव में सैकड़ों जानें जाती थीं और कई क्षेत्रों में गाँव के गाँव दहशत के साये में रहते थे। लेकिन तब और अब में फर्क है। आज ईवीएम है, जिसने चुनाव को न सिर्फ तेज, पारदर्शी और विश्वसनीय बनाया बल्कि उस खूनखराबे पर भी विराम लगाया जो बैलेट पेपर के दौर की पहचान बन चुका था। इस बदलाव के बीच यह प्रश्न स्वाभाविक है कि फिर क्यों कुछ राजनीतिक दल, विशेषकर सपा, राजद, कांग्रेस और उनके सहयोगी, बार - बार बैलेट पेपर की वापसी की मांग कर रहे हैं? इसका उत्तर इतिहास के उन्हीं अंधेरे पन्नों में छुपा है, जिन्हें लोकतंत्र आज भूलना चाहता है लेकिन राजनीति का एक हिस्सा फिर से उठाना चाहता है
सुरेश गांधी

फिरहाल, हमें वो दिन
भी याद है जब
भारत के कई राज्यों
में, खासकर यूपी-बिहार में,
बूथ कैप्चरिंग एक वैध राजनीतिक
तकनीक बन चुकी थी।
चुनावों की सुबह हथियारबंद
गुंडों की टोलियां बूथों
पर धावा बोल देती
थीं। विरोधी दल के एजेंटों
को पीटा जाता, ग्रामीणों
को धमकाया जाता, और मतपेटिकाएं मुट्ठीभर
लोगों के द्वारा ठूंस-ठूंस कर भरी
जातीं। गांवों के बुजुर्ग आज
भी बताते हैं, “वोट देने नहीं
जाते थे... बस जान बचाकर
निकलना होता था।” बैलेट
पेपर की सबसे बड़ी
कमजोरी यही थी, वह
हिफाज़त मांगता था, और यह
हिफाज़त अक्सर टूट जाती थी।
मतपेटिकाएं उठाकर ले जाना आसान
था, मतपत्रों पर पानी डालकर
उन्हें बेकार करना आम बात
थी, रातोंरात ट्रकों में भरकर मतपेटिकाएं
बदल देना संभव था,
दुबारा चुनाव (“रीपोल”) आम प्रथा बन
चुकी थी, मतगणना के
दौरान गायब थैले कोई
बड़ी बात नहीं थी.
मतलब लोकतंत्र का भाग्य लोगों
के हाथों में नहीं, बल्कि
उन गिरोहों के हाथों में
था जो बैलेट बॉक्स
पर राज करते थे। या यूं कहे
बैलेट पेपर का वह
दौर जहां लोकतंत्र की
रक्षा खून से की
जाती थी, बूथ कैप्चरिंग
यानी जब बंदूकें वोटों
से ताकतवर थीं.
यह कहने में
कोई गुरेज नहीं, बैलेट पेपर पर खून
टपकता था और आज
ईवीएम से विश्वास बहता
है. पुराने चुनावों की लाशें और
आज की शांत कतारें,
बैलेट पेपर बनाम ईवीएम
की सच्चाई बयां करती है.
अतीत का आतंक व
वर्तमान की शांति का
इससे बड़ा तुलना कुछ
और हो नहीं सकता।
बूथ-कैप्चर का युग बनाम
पारदर्शी तकनीक : बैलेट पेपर की लौटती
मांग के पीछे क्या
है?” राजनीतिक कारणों को उजागर करने
के इससे श्रेष्ठ और
क्या हो सकता है,
लहूलुहान लोकतंत्र से डिजिटल सुरक्षा
तक : बैलेट पेपर क्यों वापस
चाहते हैं कुछ दल?
जहां बैलेट पेपर जलते थे,
वहां आज ईवीएम भरोसा
जगाती है : यह चुनावों
का बदलता चेहरा है. ईवीएम ने आतंक खत्म किया
ईवीएम पारदर्शी है, तो फिर समस्या क्या?
ईवीएम में केंद्र, राज्य
किसी गठबंधन, किसी दल का
प्रभाव नहीं चलता. हर
वोट “1” है, ना ज़्यादा,
ना कम। कोई गुंडा
ईवीएम से छेड़छाड़ नहीं
कर सकता। कोई एजेंट मतपेटिका
नहीं बदल सकता। इसलिए
ईवीएम उन दलों के
लिए समस्या है जो हिंसक
या जातीय नेटवर्क के दम पर
चुनाव जीतते थे। बैलेट पेपर
= अराजकता = अवसर : बैलेट पेपर की वापसी
से बूथ कब्जा, फर्जी
वोटिंग, रात में थैले
बदलना, मतगणना में दबाव, हिंसा,
और चुनावी आतंक फिर शुरू
हो जाएगा। कुछ दल उसी
व्यवस्था को चाहते हैं
जिसमें चुनाव “मैदान” था और हथियार
“बातचीत”। बैलेट पेपर
से “राजनैतिक भ्रम” पैदा करना आसान
: बैलेट पेपर के दौर
में हमेशा संदेह बना रहता था,
“क्या यह बैलेट असली
है?” “मतगणना सही हुई?” “थैला
बदला तो नहीं?” इन
सवालों से राजनीतिक पार्टियाँ
माहौल गर्म रखती थीं।
ईवीएम ने यह “संदेह
का स्पेस” खत्म कर दिया।
कुछ दल इसी खोए
हुए अस्पष्ट क्षेत्र की वापसी चाहते
हैं।
बैलेट पेपर बनाम ईवीएम : लोकतंत्र
की सुरक्षा की वास्तविक कसौटी
क्या ईवीएम तकनीक
बेहतर है? बिल्कुल। भारत
की ईवीएम इंटरनेट से नहीं जुड़ी,
कोई ओएस नहीं, कोई
सॉफ्टवेयर अपडेट नहीं, वीवीपैड आधारित, त्रिस्तरीय सीलिंग, रैंडमाइजेशन, उम्मीदवार निगरानी, स्ट्रांग रूम मॉनिटरिंग, सीसीटीबी
सभी से लैस है।
छेड़छाड़ लगभग असंभव।
बैलेट पेपर : लोकतंत्र को हिंसा के हवाले करना
बैलेट पेपर का अर्थ
है, फिर से खून?
फिर से बूथ कब्जा?
फिर से मतपेटिका लूट?
फिर से रीपोल? फिर
से राजनीतिक गुंडई? क्या देश दोबारा
उस दौर में लौट
सकता है? जवाब है,
नहीं। जनता को समझना
होगा, विवाद किसका है और क्यों?
कुछ दल “ईवीएम हटाओ”
नहीं, बल्कि “ईवीएम से मिलने वाली
निष्पक्षता हटाओ” कहना चाहते हैं।
बैलेट पेपर की आवाज़
वही लोग उठाते हैं
जो जानते हैं : अगर वोट मशीन
डाल रही है, तो
हम जीत नहीं सकते।
मुद्दा मशीन का नहीं,
मुद्दा निष्पक्ष चुनावों से पैदा हुई
उनकी राजनीतिक असहजता है।
लोकतंत्र की सुरक्षा में ईवीएम की निर्णायक भूमिका
हिंसा रहित चुनाव, भारतीय
लोकतंत्र की बड़ी उपलब्धि
है. पिछले दो दशकों में
बूथ कैप्चरिंग समाप्त, फर्जी वोटिंग लगभग खत्म, हत्या
और हिंसा में भारी कमी,
वोट प्रतिशत बढ़ा, महिलाएँ सुरक्षित
वोट डालने लगीं, कमजोर वर्ग निर्भय होकर
मतदान कर रहा है,
यह ईवीएम का सबसे बड़ा
योगदान है।
अब चुनाव मुद्दों पर, न कि मांसपेशियों पर
यह बदलाव राजनीतिक
संस्कृति को बदल रहा
है। अब चुनाव प्रचार
जनता का संवाद, और
विकास के मुद्दे फोकस
में आने लगे हैं।
मतलब साफ है लोकतंत्र
को फिर से खून
-खराबे के हवाले नहीं
किया जा सकता. भारत
एक नए युग में
प्रवेश कर चुका है।
वह दौर जब मतपेटिका
उठाकर भाग जाने से
सरकारें बनती थीं, बीते
समय की भयावह स्मृति
है। आज भी बुजुर्गों
को वह दृश्य याद
आते हैं तो शरीर
में सिहरन दौड़ जाती है,
लूटे हुए बैलेट, जलते
हुए थैले, खून में सने
सड़कें, और रोती हुई
महिलाएँ जिनके बेटे चुनावी हिंसा
में मारे गए। ऐसे
दृश्य किसी भी सभ्य
लोकतंत्र की नसों को
हिला देने के लिए
काफी हैं। इसलिए, जब
आज कुछ राजनीतिक दल
बैलेट पेपर की वापसी
की मांग करते हैं,
तो यह सवाल उठता
है, क्या वे लोकतंत्र
की सुरक्षा चाहते हैं? या फिर
उसी अराजक व्यवस्था की वापसी, जिस
पर उनका प्रभुत्व था?
भारत के नागरिकों को
जागरूक होकर यह समझना
होगा कि बात मशीन
बनाम कागज़ की नहीं
है... बात है लोकतंत्र
की सुरक्षा बनाम हिंसक राजनीति
की वापसी की। आज चुनाव
के दिन सुरक्षा बलों
की तैनाती, वेबकास्टिंग, ईवीएम और सीसीटीबी सामान्य
लगते हैं। लेकिन एक
समय था जब अखबारों
में यह सुर्खियां आती
थीं : “मतदान केंद्र पर फायरिंग, 9 की
मौत? “बैलट बॉक्स लूटकर
ले गए दबंग” “दो
पक्षों की भिड़ंत में
14 घायल, मतदान रुका” कई चुनाव तो
सिर्फ इसलिए रद्द हुए क्योंकि
हिंसा इतनी बढ़ गई
कि प्रशासन परिणाम देना ही नहीं
चाहता था। यह वह
समय था जब लोकतंत्र
खून से सना हुआ
था और कुछ राजनीतिक
दलों के लिए यही
खून, यही दहशत सत्ता
का रास्ता थी। ईवीएम युग
ने हिंसा कम की, महिलाओं
की भागीदारी बढ़ाई, गरीब और कमजोर
वर्ग को निर्भय बनाया,
बूथ-कैप्चरिंग पर पूरी रोक
लगाई, राजनीतिक अपराधियों की शक्ति घटाई,
और चुनाव को “मसल पावर”
से “लोक पावर” में
बदला. आज भारत विश्व
का सबसे बड़ा लोकतंत्र
इसलिए है क्योंकि वोट
सुरक्षित हैं, प्रक्रिया सुरक्षित
है, परिणाम सुरक्षित है। लोकतंत्र को
उसके खून के इतिहास
में वापस नहीं जाने
देना है. भारत का
लोकतंत्र आज भरोसे पर
टिका है और यह
भरोसा मशीनों ने नहीं, बल्कि
उन खून की यादों
ने बनाया है जिनसे देश
गुज़रा है। आज जब
कुछ दल बैलेट पेपर
की वापसी की मांग करते
हैं, तो यह केवल
तकनीकी बहस नहीं, बल्कि
वह चेतावनी है कि लोकतंत्र
को फिर से उन
अँधेरी गलियों में घसीटा न
जाए जहाँ मतपत्र नहीं,
लाशें गिनी जाती थीं।
ईवीएम आज सिर्फ मशीन
नहीं, वह उस खूनी
इतिहास की राख पर
खड़ा लोकतंत्र का सुरक्षा कवच
है। भारत को यह
सुरक्षा हमेशा बनाए रखनी होगी।






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