खामोशी टूटी, खौफ लौटा? सिर उठाते बाहुबली, खत्म योगी का डर
यूपी सहित पूर्वांचल एक बार फिर बेचैन है। वह इलाका, जहां कुछ वर्ष पहले तक माफिया और बाहुबली एनकाउंटर के डर से बिलों में दुबके थे, आज फिर कैमरों के सामने गरजते दिख रहे हैं। फर्क बस इतना है कि अब उनके हाथ में तमंचा नहीं, बल्कि मोबाइल है; सामने पुलिस नहीं, बल्कि सोशल मीडिया के तथाकथित पत्रकार और यूट्यूबर हैं। हत्या, वसूली और गैंगवार को वे खुलेआम अपनी ‘पहचान’ की तरह पेश कर रहे हैं, और यह दुस्साहस मामूली नहीं है। पंचायत चुनाव नजदीक आते ही जाति, डर और दबदबे की राजनीति फिर सक्रिय होती दिख रही है। बलिया से आजमगढ़, मऊ से गाजीपुर और जौनपुर से वाराणसी देहात तक, पुराने नाम नए अंदाज़ में लौटने की कोशिश कर रहे हैं। कोई खुद को सरकार का ‘खास’ बता रहा है, तो कोई पूरे पूर्वांचल पर दबदबे का दावा कर रहा है। यह सिर्फ बयानबाज़ी नहीं, बल्कि कानून व्यवस्था को खुली चुनौती है। सबसे बड़ा सवाल यही है, क्या माफिया पर योगी राज का खौफ खत्म हो रहा है, या यह अपराधियों की आखिरी छटपटाहट है? सच जो भी हो, इतना तय है कि अगर कैमरे पर दी जा रही इन धमकियों को अभी नहीं रोका गया, तो कल यही दुस्साहस गांवों की सड़कों पर हिंसा बनकर उतर सकता है
सुरेश गांधी
योगी आदित्यनाथ के
शासन में जिस अपराधी
तंत्र को सबसे बड़ा
झटका लगा था, वही
तंत्र अब एक नए
रूप में सामने आ
रहा है। जिस प्रदेश
ने बीते कुछ वर्षों
में यह विश्वास करना
शुरू किया था कि
अपराध और माफिया की
राजनीति अब अतीत बन
चुकी है, वहीं आज
एक बार फिर ऐसे
संकेत उभरने लगे हैं जो
गंभीर चिंता पैदा करते हैं।
उत्तर प्रदेश, खासकर पूर्वांचल, में वह वर्ग
जो योगी राज के
शुरुआती वर्षों में या तो
जेलों में सिमट गया
था या सार्वजनिक जीवन
से गायब हो गया
था, अब फिर से
सामने आने लगा है।
फर्क बस इतना है
कि अब गोली नहीं
चल रही, कैमरा चल
रहा है। लेकिन संदेश
वही पुराना है, हम जिंदा
हैं, ताकत में हैं
और डरते नहीं हैं।
इस बार उनकी आवाज़
किसी चौराहे पर नहीं, बल्कि
सोशल मीडिया के कैमरों के
सामने गूंज रही है।
ये वही बाहुबली और
माफिया हैं जो कभी
पुलिस के नाम से
कांपते थे, एनकाउंटर का
डर जिनके चेहरे पर साफ झलकता
था, और जो अदालतों
व प्रशासन के सामने रहम
की भीख मांगते नजर
आते थे। आज वही
लोग खुलेआम यह कहते दिखाई
दे रहे हैं कि
उन्होंने किसकी हत्या की, कैसे वसूली
की, और कौन सा
इलाका उनके खौफ से
थर्राता था। यह सिर्फ
दुस्साहस नहीं है, बल्कि
राज्य की कानून व्यवस्था
को खुली चुनौती है।
पूर्वांचल के कई जिलों
से सामने आए हालिया वीडियो
इस बात के गवाह
हैं कि जिन माफिया
और बाहुबलियों को कानून ने
वर्षों तक खामोश रखा,
वे अब सोशल मीडिया
पर खुलेआम अपनी आपराधिक ‘उपलब्धियों’
का बखान कर रहे
हैं। हत्या, वसूली, गैंगवार, सब कुछ कैमरे
के सामने, बिना किसी डर
के। यह सिर्फ दुस्साहस
नहीं है। यह प्रशासन
को परखने की कोशिश है।
बलिया : “यहां हमारी मर्जी चलती थी”
बलिया, जो कभी बागी
तेवरों के लिए जाना
जाता था, वहां हाल
के महीनों में ऐसे वीडियो
सामने आए हैं जिनमें
पुराने आपराधिक चेहरे यह कहते नजर
आते हैं कि “बलिया
में कोई पत्ता भी
हमारी मर्जी के बिना नहीं
हिलता था।” पंचायत चुनाव
को लेकर खुलेआम यह
कहा जा रहा है
कि कौन प्रधान बनेगा,
यह वही तय करेंगे।
यह बयान सिर्फ घमंड
नहीं, बल्कि लोकतंत्र पर सीधा हमला
है।
गाजीपुर : जेल से बाहर, कैमरे के अंदर
गाजीपुर में कुछ पूर्व
हिस्ट्रीशीटर जेल से छूटते
ही सीधे कैमरे के
सामने आए। उन्होंने न
सिर्फ पुराने अपराधों को स्वीकारा, बल्कि
यह भी कहा कि,
“हमारा नेटवर्क आज भी जिंदा
है।” यह सवाल खड़ा
करता है कि जेल
से बाहर आने के
बाद निगरानी कितनी प्रभावी है?
आजमगढ़ः नाम बदला, सोच नहीं
आजमगढ़ का नाम बदल
चुका है, लेकिन अपराध
की मानसिकता नहीं। यहां कुछ माफिया
तत्व जाति के नाम
पर लामबंदी की खुली बात
कर रहे हैं। “हमारी
जाति का कोई उम्मीदवार
हारेगा नहीं”, यह बयान चुनाव
आयोग और प्रशासन दोनों
के लिए चेतावनी है।
मऊः खामोशी के पीछे साजिश
मऊ में सतह
पर शांति है, लेकिन भीतरखाने
गतिविधियां तेज हैं। सूत्रों
के अनुसार पंचायत चुनाव को लेकर पुराने
गैंग दोबारा सक्रिय हो रहे हैं।
यह वही मऊ है,
जिसने गैंगवार के सबसे खौफनाक
दौर देखे हैं।
जौनपुरः राजनीतिक संरक्षण का भ्रम
जौनपुर में कुछ आपराधिक
पृष्ठभूमि वाले लोग खुद
को “सत्ताधारी दल के करीब”
बताने से नहीं चूक
रहे। चाहे यह दावा
झूठा हो, लेकिन इससे
कानून का डर कमजोर
पड़ता है।
वाराणसी देहातः राजधानी के साये में हिम्मत
प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र
से सटे इलाकों में
भी यदि बाहुबली सक्रिय
होने का दावा करें,
तो यह मामूली बात
नहीं। यह सीधे-सीधे
संदेश है, “हम किसी
से नहीं डरते।”
तथाकथित पत्रकारिता पर भी सवाल
पत्रकारिता का काम अपराधियों
से सवाल करना है,
न कि उन्हें मंच
देना। जो लोग व्यूज
के लिए माफिया को
हीरो बना रहे हैं,
वे समाज के लिए
उतने ही खतरनाक हैं
जितने अपराधी खुद। मतलब साफ
है यदि आज इन
संकेतों को हल्के में
लिया गया, तो कल
यह दुस्साहस हिंसा में बदलेगा। पूर्वांचल
ने बहुत खून देखा
है, अब और नहीं।
योगी राज का खौफ
अगर सच में कायम
है, तो उसका प्रमाण
कार्रवाई से दिखना चाहिए,
न कि सिर्फ अतीत
की यादों से। क्योंकि लोकतंत्र
बंदूक, जाति और कैमरे
से नहीं चलता, वह
कानून के डर से
चलता है। पंचायत चुनाव
लोकतंत्र की जड़ होते
हैं, लेकिन यही चुनाव बाहुबलियों
के लिए सबसे आसान
शिकार भी रहे हैं।
कारण साफ हैं, कम
सुरक्षा, स्थानीय दबाव और जातीय
समीकरण। पूर्वांचल के कई जिलों
में पहले ही यह
संकेत मिलने लगे हैं कि
प्रत्याशियों को डराया जा
रहा है, जाति के
नाम पर वोटों का
ठेका बताया जा रहा है,
“जो हमारे खिलाफ लड़ेगा, वह गांव में
नहीं टिक पाएगा” जैसी
भाषा इस्तेमाल हो रही है.
यह सिर्फ चुनावी रणनीति नहीं, आतंक की राजनीति
है। यदि पंचायत स्तर
पर बाहुबली काबिज हो गए, तो
विकास रुक जाएगा, सरकारी
योजनाएं बंधक बन जाएंगी,
और अपराध को सामाजिक वैधता
मिल जाएगी. यही वजह है
कि पंचायत चुनाव को हल्के में
लेना सबसे बड़ी भूल
होगी।
अपराध का नया मंच : सोशल मीडिया
बीते कुछ महीनों
में सोशल मीडिया पर
ऐसे कई वीडियो वायरल
हुए हैं जिनमें पूर्वांचल
के कुख्यात नाम, या उनके
शागिर्द, कैमरे के सामने बैठकर
अपने ‘कारनामों’ का बखान कर
रहे हैं। हत्या, रंगदारी,
लूट और गैंगवार को
वे किसी उपलब्धि की
तरह पेश कर रहे
हैं। दुर्भाग्य यह है कि
इन वीडियो को रिकॉर्ड करने
वाले कई लोग खुद
को पत्रकार या यूट्यूबर बताते
हैं। यह वह पत्रकारिता
नहीं है जो सवाल
पूछती है। यह वह
मंच है जो अपराधियों
को नायक की तरह
प्रस्तुत करता है। न
उनसे पीड़ितों के बारे में
सवाल किए जाते हैं,
न कानून की जवाबदेही की
बात होती है। इसके
उलट, ऐसे प्रश्न पूछे
जाते हैं जो उनके
रौब और खौफ को
और चमकदार बनाते हैं। यह न
सिर्फ पत्रकारिता के मूल्यों का
पतन है, बल्कि समाज
के लिए भी बेहद
खतरनाक संकेत है।
खौफ की वापसी या सिस्टम की परीक्षा?
यह सवाल आज
हर जागरूक नागरिक के मन में
है कि क्या पूर्वांचल
एक बार फिर उसी
दौर की ओर लौट
रहा है, जब पंचायत
चुनाव का मतलब बूथ
कैप्चरिंग, प्रत्याशियों की हत्या और
सड़कों पर खून-खराबा
होता था? क्या यह
सिर्फ कुछ छुटभैये अपराधियों
की बयानबाज़ी है, या इसके
पीछे कोई सुनियोजित कोशिश
है? दरअसल, चुनाव नज़दीक आते ही अपराधी
तत्व अक्सर अपनी मौजूदगी दर्ज
कराते हैं। पंचायत चुनाव
उनके लिए सबसे मुफीद
मंच होते हैं, कम
निगरानी, स्थानीय दबदबा और जातीय समीकरण।
यही वजह है कि
आज कई बाहुबली खुद
को अपनी-अपनी जातियों
का ‘ठेकेदार’ बताने से भी नहीं
चूक रहे। वे खुलेआम
यह कह रहे हैं
कि उनकी मर्जी के
बिना गांव की राजनीति
नहीं चलेगी।
जाति, डर और लोकतंत्र
पूर्वांचल की राजनीति लंबे
समय से जाति और
बाहुबल के गठजोड़ से
प्रभावित रही है। योगी
सरकार के शुरुआती वर्षों
में इस गठजोड़ पर
करारी चोट पड़ी थी।
कई बड़े नाम या
तो जेल गए, या
उनकी संपत्तियां जब्त हुईं। इससे
आम जनता में यह
भरोसा जगा कि अब
कानून सबके लिए बराबर
है। लेकिन जब वही लोग
फिर से कैमरे पर
आकर यह कहने लगें
कि “हमारी जाति हमारे साथ
है” या “पूरे इलाके
में हमारा दबदबा था और है”,
तो यह सिर्फ डींग
नहीं, बल्कि सामाजिक सौहार्द को तोड़ने की
कोशिश है। जाति के
नाम पर डर पैदा
करना लोकतंत्र की आत्मा के
खिलाफ है।
‘हम सरकार के खास हैं’, सबसे खतरनाक दावा
इन तमाम बयानों
में सबसे चिंताजनक वह
है, जिसमें कुछ अपराधी खुद
को “सरकार का खास” बताने
से भी नहीं हिचकते।
चाहे यह दावा पूरी
तरह झूठा हो, लेकिन
इसका असर बेहद खतरनाक
है। इससे आम आदमी
के मन में यह
भावना जन्म लेती है
कि शायद कानून सबके
लिए एक समान नहीं
है। किसी भी शासन
के लिए यह सबसे
बड़ी चुनौती होती है कि
वह यह संदेश दे
कि कानून से ऊपर कोई
नहीं। यदि अपराधियों को
यह भ्रम हो जाए
कि राजनीतिक व्यस्तता या चुनावी माहौल
में उन्हें छूट मिल सकती
है, तो यही भ्रम
आगे चलकर हिंसा और
अराजकता में बदलता है।
पंचायत चुनाव और संभावित टकराव
पंचायत चुनाव सिर्फ स्थानीय विकास का माध्यम नहीं
होते, बल्कि ग्रामीण सत्ता की नींव होते
हैं। यही वजह है
कि इन चुनावों में
बाहुबलियों की दिलचस्पी हमेशा
से रही है। आज
जिस तरह की भाषा
और धमकियां सामने आ रही हैं,
उससे यह आशंका बलवती
होती है कि कुछ
तत्व पंचायत चुनाव को अपने दबदबे
का जरिया बनाना चाहते हैं। यदि समय
रहते सख्ती नहीं बरती गई,
तो गैंगवार, प्रत्याशियों पर हमले और
सड़क पर हिंसा जैसी
घटनाएं फिर से सिर
उठा सकती हैं। यह
सिर्फ कानून व्यवस्था की समस्या नहीं
होगी, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर सीधा हमला
होगा।
प्रशासन की भूमिका : सतर्कता ही समाधान
योगी सरकार की
पहचान सख्त कानून व्यवस्था
रही है। यही वजह
है कि माफिया और
अपराधियों पर अंकुश लगा।
लेकिन कानून व्यवस्था कोई स्थिर उपलब्धि
नहीं, बल्कि लगातार सतर्कता की मांग करती
है। सोशल मीडिया पर
अपराध का महिमामंडन, बाहुबलियों
के इंटरव्यू और खुलेआम दी
जा रही धमकियांकृइन सबको
हल्के में लेना भारी
भूल होगी। प्रशासन को चाहिए कि
ऐसे वीडियो और बयानों को
गंभीर अपराध की श्रेणी में
ले। यह अभिव्यक्ति की
आज़ादी नहीं, बल्कि अपराध की स्वीकारोक्ति और
डर फैलाने का प्रयास है।
जनता की भूमिका : डर नहीं, सवाल
पूर्वांचल की जनता ने
बीते वर्षों में यह अनुभव
किया है कि जब
वह एकजुट होकर कानून के
साथ खड़ी होती है,
तो बदलाव संभव है। आज
भी जरूरत है कि जनता
डर के बजाय सवाल
पूछे। अपराधियों की डींगों को
सामान्य न माने, बल्कि
उन्हें चुनौती दे। लोकतंत्र सिर्फ
वोट डालने का नाम नहीं,
बल्कि डर के बिना
जीने का अधिकार भी
है।
यह वक्त की सबसे बड़ी कसौटी
आज उत्तर प्रदेश, खासकर पूर्वांचल, एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। एक तरफ वह भरोसा है जो सख्त कानून व्यवस्था से पैदा हुआ, दूसरी तरफ वह दुस्साहस है जो अपराधियों के बयानों में झलक रहा है। यह वक्त तय करेगा कि राज्य आगे बढ़ेगा या फिर पुराने साए लौटेंगे। जरूरत है कि सरकार, प्रशासन, मीडिया और समाज, चारों अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभाएं। क्योंकि यदि आज कैमरे के सामने दी जा रही धमकियों को नजरअंदाज किया गया, तो कल वही धमकियां सड़कों पर खून बनकर बह सकती हैं। और तब यह सवाल सिर्फ कानून व्यवस्था का नहीं रहेगा, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा का होगा।




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