Monday, 30 April 2018

मोदी-जिनपिंग के बीच जुगलबंदी तो ठीक सजगता भी जरुरी

मोदी-जिनपिंग के बीच जुगलबंदी तो ठीक सजगता भी जरुरी 
              इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर चीन भारत साथ साथ चले तो न सिर्फ वैश्विक नेतृत्व इनके हाथ में होगा, बल्कि आतंक की फैक्ट्री पाकिस्तान पर नकेल कसी जा सकती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दो दिवसीय अनौपचारिक वुहान दौरे के बाद से कुछ इसी तरह के कयास लगाएं जा रहे है। माना जा रहा है कि मोदी और जिनपिंग की जुगलबंदी दोनों देशों के बीच नए युग की शुरुआत होती दिख रही है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन एक ऐसा पड़ोसी है जो पाकिस्तान की तरह घिनौनी हरकत तो नहीं करता लेकिन पीठ में छुरा भोकने से भी बाज नहीं आता। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि मोदी जिनपिंग की जुगजबंदी भारत-चीन की जनता के साथ पूरी दुनिया के लिए हितकारी तो हैं। पर भरोसा भी आंख मूंद कर नहीं बल्कि सावधानी के बीच तरेरे रहने क जरुरत है  
             सुरेश गांधी 
            बेशक, डोकलाम विवाद के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को बता दिया अब 1962 वाला भारत नहीं है। भारत किसी भी संकट या उसे आंखे दिखाने वाले को सबक सिखा सकता है। यही वजह भी है कि चीन ने डोकलाम विवाद को खत्म करने में ही अपनी भलाई समझा और अब भारत से दोश्ताना के लिए दो दो हाथ करने को तैयार है। इसकी झलक दो दिवसीय दौरे के दौरान वुहान में भी देखने को मिला। वुमान में दोनों नेताओं के बीच हुई बातचीत को भी इसी कड़ी से जोड़क देखा जा रहा है। कहा जा सकता है विश्व की सबसे ज्यादा आबादी वाले देश चीन और भारत आपसी मतभेदों को दूर करने और सहयोग को बढ़ाने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। मोदी और जिनपिंग दोनों का ही यह मानना है कि अगर वे आपसी मतभेद को दूर करने और सहयोग को बढ़ाने में कामयाब होते हैं, तो वे दुनिया में अपना प्रभाव स्थापित कर सकते हैं। चीनी राष्ट्रपति का संकेत साफ है कि अब चीन और भारत एशिया में बादशाहत कायम करने की प्रतिद्वंदिता से ऊपर उठकर वैश्विक नेतृत्व करने की दिशा में आगे बढ़ेंगे। वहीं, पीएम मोदी भी मानते हैं कि दुनिया की 40 फीसदी जनसंख्या का भला करने का दायित्व चीन और भारत के ऊपर है। 40 प्रतिशत जनसंख्या का भला करने का मतलब विश्व को अनेक समस्याओं से मुक्ति दिलाने का एक सफल प्रयास है। इस महान उद्देश्य को लेकर दोनों देशों का मिलना, साथ चलना और संकल्पों को पूरा करना अपने आप में एक बहुत बड़ा अवसर है। 
                 मोदी जिनपिंग की यह सोच दोनों देशों एवं उसके जनता के लिए सही भी है। लेकिन बड़ा सवाल है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी चीन की धोखे और अविश्वास वाली उस मानसिकता को खत्म करने में कामयाब हो पाएंगे जिसके चलते दोनों देशों के संबंध एक कदम आगे बढ़ते हैं तो दो कदम पीछे हट जाते हैं। चीन की इसी मानसिकता के चलते तीस साल के फासले पर भारत और चीन का रिश्ता जस का तस खड़ा है। बातों में भरोसे की कोशिश लेकिन जमीन पर अविश्वास का माहौल हमेशा बना रहता है। हमें हिन्दी चीनी भाई भाई के नारे को भी नहीं भूलना चाहिए। इस नारे का ही तकाजा था कि साल 2017 के अंत तक भारत में चीन का निवेश 532 अरब रुपये का आंकड़ा पार कर गया है। या यू कहें  चीन ने भारत के बाजार पर काफी हद तक कब्जा कर रखा है। या यू कहे चीन के लिए भारत कमाऊ पुत है। इसके बावजूद डोकलाम को लेकर तीन महीने तक दोनों देशों के बीच खींचतान जारी रही। पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में चीन के दखल को लेकर विवाद अभी भी जस का तस है। मसूद अजहर को अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करने की फाइल अभी चीन के चलते ही अटका पड़ा है। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या भारत से रिश्तों की कीमत पर वो यहां सड़क और दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर बनाता रहेगा? आतंकी अजहर को अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी घोषित कराने में भारत की कोशिशों का समर्थन करेगा या आगे भी अड़ंगा ही लगाएगा? क्या न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप यानी एनएसजी में भारत की एंट्री को चीन समर्थन के लिए तैयार होगा? क्या उस कारोबारी असंतुलन को मिटाने की है, जिसमें चीन ने तो भारत पर कब्जा रखा है लेकिन भारत का चीन में उसके कारोबार का एक चैथाई भी नहीं हैं? ये ऐसे सवाल है जिसके उत्तर का इंतजार हमेशा रहेगा। 
             फिरहाल, इन सवालों के बीच अगर मोदी जिनपिंग के बीच दोस्ती आगे बढ़ती है तो स्वागतयोग्य है। क्योंकि पिछले साल डोकलाम में 72 दिन तक चले गतिरोध के बाद विश्वास बहाल करने और संबंध सुधारने के भारत और चीन के प्रयासों के तौर पर देखा जा रहा है। वैसे भी पड़ोसी और बड़ी ताकतें होने के नाते यह लाजमी है कि दोनों देशों में मतभेद होंगे। लेकिन समय पर विवाद सलट जाएं तो सोने पर सुहागा से भी कम नहीं। ऐसी स्थिति में शांतिपूर्वक और आपसी सम्मान को बनाए रखते हुए उसका निपटारा हो ही जाना चाहिए और इसके लिए कोशिश की जानी चाहिए। सौहार्दपूर्ण रिश्तों के लिए जरूरी है कि दोनों देशों की सीमाओं पर शांति बनी रहे। ऐसे में दोनों देशों को आपसी भरोसे को और मजबूत बनाने की दिशा में काम करना होगा। यह कोशिश उस वक् देखने को मिली जब चीन जैसी महाशक्ति का राष्ट्रपति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आगवनी के लिए एअरपोर्ट पर 52 सेकेंड तक इंतजार किया। फिर 28 सेकेंड तक मोदी से हाथ मिलाए रखा। दोनों शीर्ष नेता कई बार बहुत अच्छे मूड में दिखाई दिए। डोकलाम सीमा विवाद के बाद श्रीलंका, नेपाल और मालदीव में चीन के बढ़ते हस्तक्षेप के मद्देनजर मोदी और शी की यह अनौपचारिक वार्ता महत्वपूर्ण है। इस दौरान दोनों नेताओं के बीच सीमा विवाद सुलझाने समेत कई अहम मुद्दों पर चर्चा हुई। मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच भारत-चीन सीमावर्ती क्षेत्रों में शांति और संयम बनाए रखने को लेकर सहमति बनी है। दोनों नेता अपनी-अपनी सेनाओं को सामरिक दिशानिर्देश देने और शांति बनाए रखने के लिए जरूरी स्ट्रैटेजिक मेकेनिज्म मजबूत करने पर राजी हुए हैं। जो अच्छे संकेत है। 
              हो सकता है जिनपिंग मोदी से गहरी दोस्ती करके दुनिया का सबसे बड़ा खिलाड़ी बनना चाहते हो। हो सकता है अब वह एशिया में भारत से प्रतिद्वंदिता की बजाय वैश्विक दबदबा बनाने की कोशिश में हो। लेकिन इसमें भारत का भी हित निहित है। क्योंकि पड़ोसी से दुश्मनी किसी भी दशा में ठीक नहीं है। भारत और चीन के बीच 3,488 किमी लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा है। दोनों देशों को जल्द ही हॉटलाइन से भी जोड़ा जा सकता है। दोनों देशों को हॉटलाइन से कनेक्ट करने का सीनियर सैन्य नेतृत्व बेसब्री से इंतजार कर रहा है। हालांकि दोनों देश हॉटलाइन से कब जुड़ेंगे, इसको लेकर अभी विस्तार से जानकारी नहीं मिल पाई है। पीएम मोदी का यह दौरा औपचारिक नहीं था, जिसके मद्देनजर दोनों देशों के बीच कोई आधिकारिक समझौता नहीं हुआ। लेकिन दोनों राष्ट्राध्यक्षों के बीच जो बातचीत हुई, उसका भविष्य में कई मसलों पर असर दिखने की संभावना है। इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों के बीच इस तरह अनौपचारिक वार्ता हुई  हो। पीएम मोदी ने खुद दुनिया के नेताओं से इस परंपरा को आगे बढ़ाने का आह्वान किया है। हालांकि, इस वार्ता में कोई आधिकारिक समझौता नहीं हुआ, लेकिन सीमा विवाद और आतंकवाद जैसे तमाम मुद्दों पर दोनों नेताओं के बीच सकारात्मक बातचीत हुई। भारत और चीन के बीच अफगानिस्तान मसले को लेकर अहम बातचीत हुई। दोनों देश अफगानिस्तान में साथ मिलकर काम करेंगे। अफगान प्रोजेक्ट में दोनों देशों की आर्थिक भागीदारी होगी। दोनों देशों ने अफगानिस्तान में शांति कायम करने और आर्थिक मोर्चे पर मिलकर काम करने पर सहमति जताई है, ताकि यहां से आतंकवाद को जड़ से खत्म किया जा सके। 
           दोनों नेताओं ने विशेष प्रतिनिधियों द्वारा विवाद का बेहतर हल तलाशने का समर्थन किया। 2005 में जो पैरामीटर थे, उन्हीं के आधार पर सेकेंड स्टेज में बात होगी। साथ ही इस बाबत दोनों नेताओं ने फैसला किया कि वे अपनी-अपनी सेनाओं को सामरिक दिशानिर्देश जारी करेंगे ताकि हालात बेहतर हो सकें और डोकलाम जैसी स्थिति न पैदा हो। इस बात भी सहमति बनी कि दोनों देशों की सेनाओं के बीच संचार बढ़े और परस्पर विश्वास पैदा हो। कृषि, प्रौद्योगिकी, ऊर्जा और पर्यटन क्षेत्र पर भी बात की। साथ ही मौजूदा संस्थागत तंत्र को भी मजबूत किया जाएगा ताकि सीमाई इलाकों में हालात संभाले जा सकें। दोनों ही देश तेजी से विकसति हो रही अर्थव्यवस्था हैं। चीन और भारत, दोनों का काफी बड़ा घरेलू बाजार है। दोनों देशों की अर्थव्यवस्था दोनों देशों के बीच सहयोग बढ़ाने के लिए सबसे बेहतर माध्यम है। 1980 में भारत-चीन की अर्थव्यवस्था समान थी, चीन ने लगातार औद्योगिकीकरण पर काम किया, आज उसकी अर्थव्यवस्था भारत से पांच गुना अधिक है। अगर भारत अपने रवैए में सुधार करता है, तो चीन से उसे अधिक उत्पाद, क्षमता और इंफ्रास्ट्रक्चर मिल सकता है जो भारतीयों की जरूरत है। ये सवाल इसलिए खड़े हैं कि प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद ही पीएम मोदी ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को भारत बुलाया था लेकिन जिस वक्त शी जिनपिंग साबरमती नदी के किनारे झूला झूल रहे थे, उसी वक्त चीनी सैनिक जम्मू और कश्मीर के चुमार में घुस आए थे। 1988 में जिस वक्त राजीव गांधी चीनी राष्ट्रपति डेंग जिओपिंग से मुलाकात कर रहे थे, उस वक्त समडोरोंग में चीन का अतिक्रमण था। दरअसल 1954 में तब के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने चीन के साथ नए रिश्तों की बुनियाद रखने के मकसद से वहां की यात्रा की थी। लेकिन वो बुनियाद कमजोर निकला क्योंकि भारत के भरोसे के सीमेंट में उसने धोखे की रेत मिला दी.। तब से कोशिशें बहुत हुईं लेकिन कामयाबी नहीं मिली। अब फिर से प्रयास हो रहा है तो उम्मीद रखने में हर्ज क्या है। 

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