संत रविदास जयंती विशेष : जिनकी भेंट लेने स्वयं प्रकट हो गईं थीं ‘मां गंगा’
संत शिरोमणि
रविदास जी के
बारे में यही
कहा जाता है
कि खुद गंगा
मां इनकी सत्यता
और निष्ठा को
साबित करने के
लिए एक कठौती
में प्रकट हो
गईं थीं। वैसे
तो इस संत
को लेकर अनेक
किस्से प्रचलित हैं, लेकिन
यह किस्सा सबसे
ज्यादा मान्यता प्राप्त है।
विद्वान इन्हें मीराबाई का
गुरू भी मानते
हैं। संत रविदास
रैदास कबीर के
समकालीन हैं। इस
बार संत रविदास
की जयंती 19 फरवरी
को मनायी जाएगी।
इस बार उनकी
जन्मस्थली वाराणसी के सीरगोवर्धन
एक बार फिर
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मत्था
टेकेंगे। इसके पहले
मोदी फरवरी 2016 में
इस मंदिर में
मत्था टेकने आए
थे। देशभर के
रैदासी इस समारोह
में हिस्सा लेने
के लिए अभी
से जुटने लगे
हैं
सुरेश गांधी


रैदास
का यह किस्सा
जगजाहिर हुआ और
लोग उनके भक्त
बनने लगे। कहा
यह भी बताया
जाता है कि
एक बार काशी
के राजा ने
ईश्वर के सच्चे
भक्त को परखने
के लिए गंगा
नदी में भगवान
की मूर्ति तैरने
की शर्त रखी
उन्होंने कहा, जिसकी
मूर्ति नही डूबेगी
वही सच्चा भक्त
माना जाएगा। एक
ब्राम्हण और रैदास
दोनों ने मूर्तियां
गंगा में उतारीं
किंतु ब्राम्हण की
मूर्ति डूब गई
और रैदास की
तैरने लगी। संत
और फकीर जो
भी इनके द्वार
पर आते उन्हें
बिना पैसे लिये
अपने हाथों से
बने जूते पहनाते।
इनके इस स्वभाव
के कारण घर
का खर्च चलाना
कठिन हो रहा
था। इसलिए इनके
पिता ने इन्हें
घर से बाहर
अलग रहने के
लिए जमीन दे
दिया। जमीन के
छोटे से टुकड़े
में रविदास जी
ने एक कुटिया
बना लिया। जूते
बनाकर जो कमाई
होती उससे संतों
की सेवा करते
इसके बाद जो
कुछ बच जाता
उससे अपना गुजारा
कर लेते थे।
काशी में ‘गोल्डन टेंपल’ के नाम से है भव्य मंदिर
काशी में
संत रविदास के
मंदिर को काशी
विश्वनाथ मंदिर के बाद
दूसरे ‘गोल्डन टेंपल’ के नाम
से जाना जाता
है। संत रविदास
मंदिर के शिखर
का कलश और
मंदिर में संत
रविदास की पालकी
से लेकर छत्र
तक सब कुछ
सोने का है।
जिनका दर्शन जयंती
समारोह के दौरान
ही मिलता है।
हर साल देश-विदेश से बड़ी
तादाद में संत
के अनुयायी जयंती
पर मत्था टेकने
यहां आते हैं।
संत रविदास की
पालकी 130 किलो वजनी
सोने की है।
इसे 2008 में यूरोप
के अनुयायियों ने
पंजाब के जालंधर
में बनवाई थी।
इसका अनावरण बसपा
सुप्रीमो मायावती ने फरवरी
2008 में किया था।
इस पालकी को
साल में एक
बार जयंती के
दिन निकाला जाता
है। मंदिर प्रबंधन
ने बताया कि
पहला स्वर्ण कलश
1994 में संत गरीब
दास ने संगत
के सहयोग से
चढ़ाया था। 2012 में 35 किलो का
सोने का स्वर्ण
दीपक बनवाया गया।
इसमें अखंड ज्योति
जल रही है।
ऐसा चाहू राज मैं, जहां मिलई सबन के अन्न
ऐसा चाहू
राज मैं, जहां
मिलई सबन के
अन्न। छोट-बड़ेन
सब सम बसे,
रविदास रहे प्रसंन‘।। जी हां
संत शिरोमणि रविदास
जी की यह
सोच थी। इस
सोच को आत्मसात
करने-कराने के
लिए लाखों-करोड़ों
उनके अनुयायी प्रयासरत
है। उनकी जयंती
समेत प्रमुख पर्वो
पर बड़े पैमाने
पर लंगर का
आयोजन करने के
साथ ही आस्थावानों
को संदेश दिया
जाता है। जहां
तक उनके जन्मस्थली
का सवाल है,
वह धर्म एवं
आस्था की नगरी
काशी के सीर
गोवर्धन में एक
गरीब परिवार में
हुआ। जब तक
वह बड़े होकर
शिक्षा-दिक्षा अर्जित करते,
समाज में व्याप्त
कुरीतियां, जाति-पाति,
धर्म, वर्ण, छूत-अछूत, पाखण्ड, अंधविश्वास
का साम्राज्य उनके
समक्ष बाधा बनकर
खड़ा हो गया।
लेकिन इन कुरीतियों
से विचलित हुए
बिना उन्होंने इसके
समूल नाश का
संकल्प लिया। अनेक मधुर
व भक्तिमयी रसीली
कालजयी रचनाओं का निर्माण
किया और समाज
के उद्धार के
लिए समर्पित कर
दिया। सन्त रविदास
ने अपनी वाणी
एवं सदुपदेशों के
जरिए समाज में
एक नई चेतना
का संचार किया।
उन्होंने लोगों को पाखण्ड
एवं अंधविश्वास छोड़कर
सच्चाई के पथ
पर आगे बढने
के लिए प्रेरित
किया। देखा जाय
तो रविदास जी
के भक्ति गीतों
एवं दोहों ने
भारतीय समाज में
समरसता एवं प्रेम
भाव उत्पन्न करने
का प्रयास किया
है। हिन्दू और
मुसलिम में सौहार्द
एवं सहिष्णुता उत्पन्न
करने हेतु उन्होंने
अथक प्रयास किया।
इस तथ्य का
प्रमाण उनके गीतों
में देखा जा
सकता है। वह
कहते हैं- तीर्थ
यात्राएं न भी
करो तो भी
ईश्वर को अपने
हृदय में वह
पा सकते हो।
‘का मथुरा, का
द्वारिका, का काशी-हरिद्वार। रैदास खोजा
दिल आपना, तह
मिलिया दिलदार‘।। उनके
जीवन की घटनाओं
से उनके गुणों
का ज्ञान होता
है।
बेहद सरल व्यक्तित्व के स्वामी थे रविदास
संत रविदास
बेहद सरल व्यक्तित्व
के स्वामी थे।
उन्हें रैदास के नाम
से भी जाना
जाता है। जो
मिला उसे सहर्ष
अपनाया। संत रविदास
को जूते बनाने
का काम पैतृक
व्यवसाय के तौर
पर मिला। उन्होंने
इसे खुशी से
अपनाया। वे अपना
काम पूरी लगन
से करते थे।
यही नहीं वे
समय के पाबंद
भी थे। सबकी
मदद करते थे।
रैदास की खासियत
ये थी कि
वे बहुत दयालु
थे। दूसरों की
मदद करना उन्हें
भाता था। कहीं
साधु-संत मिल
जाएं तो वे
उनकी सेवा करने
से पीछे नहीं
हटते थे। अन्याय
को कभी नहीं
सहा। उन्होंने समाज
में फैली कुरीतियों
के खिलाफ आवाज
उठाई। छुआछूत आदि
का उन्होंने विरोध
किया और पूरे
जीवन इन कुरीतियों
के खिलाफ ही
काम करते रहे।
कभी किसी की
आलोचना नहीं की।
संत रविदास के
बारे में कहा
जाता है कि
वे जूते बनाने
का काम बड़ी
मेहनत से किया
करते थे. वे
समाज की कुरीतियों
के खिलाफ आवाज
तो उठाते थे
पर उन्होंने कभी
किसी की आलोचना
नहीं की. 14वीं
सदी के दौरान
को हिन्दी साहित्यिक
जगत में इस
समय को मध्यकाल
कहा जाता है।
मध्यकाल को भक्तिकाल
कहा गया। भक्तिकाल
में साधु-सन्तों,
ऋषि-मुनियों, योगियों-महर्षियों और महामानवों
ने जन्म लिया
है। समाज में
फैली कुरीतियों एवं
बुराइयों के खिलाफ
न केवल बिगुल
बजाया, बल्कि समाज को
टूटने से भी
बचाया। लेकिन संत शिरोमणि
रविदास जी ने
जो किया वह
अद्भूत, अकल्पनीय व बेमिसाल
रही। वे अपने
अलौकिक ज्ञान से समाज
को अज्ञान, अधर्म
एवं अंधविश्वास के
अनंत अंधकार से
निकालकर एक नई
स्वर्णिम आभा भी
प्रदान की। उनका
जीवन ऐसे अद्भुत
एवं अविस्मरणीय प्रेरक
प्रसंगों से भरा
हुआ है, जो
मनुष्यों को सच्चा
जीवन-मार्ग अपनाने
के लिए प्रेरित
करते हैं।
अपनी कविताओं से समाज में जगाई अलख


‘का मथुरा का द्वारिका, का कासी हरिद्वार’
जब तक
वह बड़े होकर
शिक्षा-दिक्षा अर्जित करते,
समाज में व्याप्त
कुरीतियां, जाति-पाति,
धर्म, वर्ण, छूत-अछूत, पाखण्ड, अंधविश्वास
का साम्राज्य उनके
समक्ष बाधा बनकर
खड़ा हो गया।
लेकिन इन कुरीतियों
से विचलित हुए
बिना उन्होंने इसके
समूल नाश का
संकल्प लिया। अनेक मधुर
व भक्तिमयी रसीली
कालजयी रचनाओं का निर्माण
किया और समाज
के उद्धार के
लिए समर्पित कर
दिया। सन्त रविदास
ने अपनी वाणी
एवं सदुपदेशों के
जरिए समाज में
एक नई चेतना
का संचार किया।
उन्होंने लोगों को पाखण्ड
एवं अंधविश्वास छोड़कर
सच्चाई के पथ
पर आगे बढने
के लिए प्रेरित
किया। देखा जाय
तो रविदास जी
के भक्ति गीतों
एवं दोहों ने
भारतीय समाज में
समरसता एवं प्रेम
भाव उत्पन्न करने
का प्रयास किया
है। हिन्दू और
मुसलिम में सौहार्द
एवं सहिष्णुता उत्पन्न
करने हेतु उन्होंने
अथक प्रयास किया।
इस तथ्य का
प्रमाण उनके गीतों
में देखा जा
सकता है। वह
कहते हैं- तीर्थ
यात्राएं न भी
करो तो भी
ईश्वर को अपने
हृदय में वह
पा सकते हो।
‘का मथुरा, का
द्वारिका, का काशी-हरिद्वार।
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