‘गंगा’ धरती पर ‘देवलोक’ का ‘महाप्रसाद’
मां
गंगा
भारत
ही
नहीं
संपूर्ण
विश्व
की
परम
पवित्र
नदी
है।
कहते
है
भारत
भूमि
में
जिस
तरह
संस्कृत
भाषा
को
‘देववाणी’
की
मान्यता
है,
उसी
प्रकार
गंगा
को
‘देवनदी’
के
रुप
में।
धवल
स्वेत
वस्त्राभूषणों
में
सुशोभित
चतुर्भुजस्वरूपिणी,
मकरवाहिनी
मां
गंगा
को
कलिमलदहिनी
और
पापनाशिनी
भी
कहा
जाता
है।
दस
दिव्य
योगों
में
धरती
पर
अवतरण
करने
वाली
मां
गंगा
का
उल्लेख
श्रीमद्भागवत
पुराण,
वाल्मीकि
रामायण
और
महाभारत
समेत
कई
ग्रंथों
में
हैं।
गंगे
तव
दर्शनात
मुक्तिः!
यानी
गंगा
मां
के
दर्शन
से
मुक्ति
मिलती
है।
इस
दिन
ऊं
नमः
शिवाय
नारायण्यै
दशहरायै
गंगायै
स्वाहा,
मंत्रों
द्वारा
गंगा
का
पूजन
करने
से
जीव
को
मृत्युलोक
में
बार-बार
भटकना
नहीं
पड़ता।
निष्कपट
भाव
से
गंगा
मां
के
दर्शन
करने
मात्र
से
जीव
को
कष्ट
से
मुक्ति
मिल
जाती
है।
ज्येष्ठ
मास
शुक्ल
पक्ष
गंगा
दशहरा
के
दिन
ही
भगवान
शंकर
की
जटा
से
वृषभ
लग्न
में
मां
गंगा
धरती
पर
अवतरित
हुईं
थीं।
गंगा
दशहरा
को
बाबा
रामेश्वर
महादेव
की
प्राण
प्रतिष्ठा
का
दिन
भी
माना
जाता
है।
इस
दिन
गंगा
स्नान,
पूजन
और
दान
के
साथ
बाबा
विश्वनाथ,
महाकाल,
बाबा
सोमनाथ,
बाबा
बैजनाथ
धाम
समेत
12 ज्योर्तिलिंगों
का
दर्शन
मोक्षदायिनी
माना
गया
है।
इस
बार
गंगा
दशहरा
16 जून
को
मनाया
जाएगा।
इस
बार
23 साल
बाद
पंच
महायोग
बन
रहा
है
सुरेश गांधी
गंगा दशहरा यानि
मां गंगा के धरती
पर आने का दिन।
कामनाओं को पूरा करने
का दिन। मां से
वरदान पाने का दिन।
गंगा दशहरा पर पतित पावनी
में लगाई गई एक
छोटी सी डुबकी आपकी
किस्मत बदल सकती है।
इस बार गंगा दशहरा
पर ग्रह-नक्षत्रों का
शुभ संयोग बना है। गंगा
दशहरा पर मां गंगा
की पूजा का विशेष
महत्व है। इस दिन
गंगा या किसी भी
पवित्र नदी में स्नान,
ध्यान तथा दान करने
से मिल जाती है
सभी पापों से मुक्ति। गंगा
दशहरा रविवार के दिन है.
गंगा दशहरा पर रवि योग
समेत 3 शुभ योग बन
रहे हैं. 16 जून को ज्येष्ठ
माह के शुक्ल पक्ष
दशमी तिथि, हस्त नक्षत्र, वरीयान
योग, तैतिल करण, पश्चिम का
दिशाशूल और दिन रविवार
है. गंगा दशहरा पर
बनने वाले सर्वार्थ सिद्धि
योग, अमृत सिद्धि योग
और रवि योग अत्यंत
शुभ फलदायी माने जाते हैं.
निर्जला एकादशी से एक दिन
पूर्व गंगा दशहरा का
पावन पर्व मनाते हैं.
इस दिन सुबह में
गंगा स्नान करते हैं, मां
गंगा की पूजा करते
हैं और अपनी क्षमता
के अनुसार दान करते हैं.
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, गंगा
दशहरा पर गंगा स्नान
और पूजा करने से
पाप मिट जाते हैं
और मोक्ष की प्राप्ति होती
है. गंगा दशहरा के
दिन धरती पर मां
गंगा का अवतरण हुआ
था, इसलिए इसे गंगा अवतरण
दिवस भी कहते हैं.
गंगा दशहरा के दिन मां
गंगा भगवान शिव की जटा
से निकलकर धरती पर अवतरित
हुई थी. उन्होंने राजा
सगर के 60 हजार पुत्रों को
मोक्ष प्रदान किया था. गंगा
को पृथ्वी पर लाने का
श्रेय राजा भगीरथ को
जाता है. उन्होंने अपने
कठोर तप से गंगा
जी को स्वर्ग से
धरती पर लाए थे.
इसलिए गंगा को भागीरथी
भी कहते हैं. गंगा
दशहरा पर मां गंगा
का आशीर्वाद पाने के लिए
आप गंगाजल से जुड़े उपाय
कर सकते हैं. आप
घर पर स्नान कर
रहे हैं तो पानी
में गंगाजल मिला लें. गंगाजल
का छिड़काव पूरे घर में
करें.रविवार के दिन व्रत
रखकर सूर्य देव की पूजा
करने से कुंडली का
सूर्य दोष दूर होता
है. सूर्य देव को जल
अर्पित करना भी लाभकारी
होता है. जो लोग
रविवार व्रत रखते हैं,
वे नमक का सेवन
न करें. आज के दिन
गेहूं, लाल चंदन, तांबा,
लाल कपड़ा दान करने
से लाभ होता है.
मान्यता है कि सूर्यवंशी
राजा भगीरथ के कठोर तप
के बाद ज्येष्ठ मास
के शुक्ल दशमी तिथि, दिन
बुधवार, हस्त नक्षत्र, व्यतिपात
योग, गर योग, आनंद
योग, कन्या राशि में चंद्रमा
और वृषभ में सूर्य
योग में देव नदी
मां गंगा का स्वर्ग
से धराधाम पर आई थी।
ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी
को संवत्सर का मुख कहा
गया है। इसलिए इस
इस दिन दान और
स्नान का ही अत्यधिक
महत्व है। मां गंगा
इतनी पावन है कि
इसके संपर्क में आते ही
लोगों के पाप धुल
जाते हैं, निष्कलंक हो
जाते हैं। सदियों से
मोक्षदायिनी मां गंगा निरंतर
लोगों की नकारात्मकता को
स्वयं में समाहित कर
सकारात्मकता का प्रसार करती
आ रही है। इस
दिन गंगा नदी में
खड़े होकर जो गंगा
स्तुति करता है, तर्पण
करता है वह जाने-अनजाने में किए गए
अपने सभी दस पापों
से मुक्ति पा लेता है।
इन दस पापों के
हरण होने से ही
इस तिथि का नाम
गंगा दशहरा पडा है। इन
दस पापों में तीन पाप
कायिक, चार पाप वाचिक
और तीन पाप मानसिक
होते हैं। इस दिन
दान में सत्तू, मटका
व हाथ का पंखा
दान करने से दोगुना
फल प्राप्त होता है। गंगा
दशहरा के दिन सभी
गंगा मंदिरों में भगवान शिव
का अभिषेक किया जाता है।
शिव की सर्वाधिक प्रिया थी गंगा
गंगा ने पति रूप में चाहा था शिव को
गंगा शिवप्रिया के
रूप में पुराणों में
प्रसिद्ध है तथा पार्वती
शिवपत्नी के रूप में।
दोनों देवियों के बीच अत्यंत
रोचक संबंध है। कहीं-कहीं
तो भगवान शिव को उमागंगा
पतीश्वर भी कहा गया
है। गंगा राजा हिमवान
की ज्येष्ठ पुत्री थीं। पार्वती भी
गंगा की ही भांति
हिमवान और मैना की
पुत्री थीं। दोनों सहोदरा
थीं। पार्वती को छोड़कर हिमवान
की सारी कन्याएं नदी
रूप में थीं। गंगा
का वर्णन शरीर और नदी
दोनों रूपों में है। गंगा
और पार्वती के संबंधों को
मुख्यतः तीन धरातलों-सती
के मृत शरीर के
विखंडित, अंतिम और सभी 51 वें
पिंड की रक्षिका के
रूप में, सहोदरा रूप
में सपत्नी या शिवप्रिया रूप
में। जब सती के
शरीर के विभिन्न टुकड़े
भिन्न-भिन्न स्थलों पर गिर कर
शक्तिपीठ का रूप ग्रहण
कर चुके थे, तो
सती का अंतिम और
51 वां पिंड तारकासुर नष्ट
कर रहा था। मार्कंडेय
ऋषि ने राजा हिमवान
और गंगा के सहयोग
से तारकासुर से युद्ध कर
उस पिंड की रक्षा
की। उसी समय भगवान
शिव का पदार्पण हुआ।
शिव को देखते ही
गंगा के मन में
उनके प्रति प्रेम उत्पन्न हो गया। गंगा
ने शिव से पत्नी
रूप में स्वीकारने की
प्रार्थना की। शिव सती
के वियोग में थे। उन्होंने
कहा- मैं सती के
अतिरिक्त किसी के बारे
में सोच भी नहीं
सकता। शिव ने गंगा
को वरदान दिया कि जबतक
ब्रह्मांड रहेगा, तबतक तुम पावन
बनकर लोगों को पापमुक्त करती
रहोगी। बाद में असुरों
से स्वर्गलोक की रक्षा के
लिए ब्रह्मा जी की याचना
पर हिमवान ने त्रिभुवन के
हित की इच्छा से
गंगा को धर्मपूर्वक उनको
दे दिया। गंगा ने भी
प्रतिज्ञा की कि जबतक
शिव स्वयं नहीं बुलाएंगे, मैं
पृथ्वी पर नहीं आऊंगी।
ईश्वरीय योजना के अनुरूप सती
का पार्वती के रूप में
हिमवान के घर जन्म
हुआ। रिश्ते से गंगा पार्वती
की ज्येष्ठ बहन हो गईं।
पार्वती और गंगा के
संबंधों का सर्वाधिक रोचक
स्थल तब सामने आता
है, जब भगीरथ के
प्रयास से गंगा पृथ्वीलोक
पर आने को तैयार
होती हैं। स्वर्गलोक से
पृथ्वी पर आने की
बात से गंगा कुपित
थीं। अपने तीव्र वेग
से पृथ्वी का नाश कर
देना चाहती थीं। भगवान शिव
ने भूलोक की रक्षा के
लिए गंगा को अपनी
जटाओं में धारण कर
लिया।
जटा में देख कुपित थीं पार्वती
एक दिन गंगा
जटाओं से समुद्गत हो
गईं और शिव जटाओं
में छुपाने लगे, तो पार्वती
की नजर पड़ गई।
पार्वती से यह सहन
हुआ। उन्होंने कहा-जिसे आप
छुपा रहे हैं, उसे
प्रकट कर प्रेम कीजिए।
शिव तैयार नहीं हुए। पार्वती
ईर्ष्या से कुपित थीं।
उन्होंने अपनी परेशानी गणेश
को बताई। गणेश ने जया
ब्रह्मा के सहयोग से
गौतम ऋषि को गोहत्या
के पाप में फंसाया।
फिर ब्रह्मा ने पापमुक्ति के
लिए शिव को प्रसन्न
कर गंगा को विमुक्त
करने के लिए तैयार
किया। गौतम ऋषि ने
सोचा कि ठीक ही
है, गंगा पृथ्वी पर
आएंगी, जो सबके लिए
श्रेयस्कर होगा। मेरा भी पाप
नहीं रहेगा। यद्यपि यह पौराणिक प्रसंग
है, पर इसे लोककल्याण
के लिए ईश्वरीय योजना
के रूप में स्वीकारना
श्रेयस्कर होगा।
दस पापों से मिलती है मुक्ति
ऐसी मान्यता है
कि गंगा दशहरा के
दिन गंगा स्नान पूजन
से 10 तरह के पापों
का शमन होता है।
इस दिन दान में
सत्तू, मटका और हाथ
का पंखा दान करने
से दुगुना फल प्राप्त होता
है। इस दिन भगवान
विष्णु की पूजा-अर्चना
की जाती है। इस
दिन लोग व्रत करके
पानी भी (जल का
त्याग करके) छोड़कर इस व्रत को
करते हैं। ग्यारस (एकादशी)
की कथा सुनते हैं
और अगले दिन लोग
दान-पुण्य करते हैं। इस
दिन जल का घट
दान करके फिर जल
पीकर अपना व्रत पूर्ण
करते हैं। इस दिन
दान में केला, नारियल,
अनार, सुपारी, खरबूजा, आम, जल भरी
सुराई, हाथ का पंखा
आदि चीजें भक्त दान करते
हैं। गंगा दशहरे के
दिन श्रद्धालु जन जिस भी
वस्तु का दान करें
उनकी संख्या दस होनी चाहिए
और जिस वस्तु से
भी पूजन करें उनकी
संख्या भी दस ही
होनी चाहिए। ऐसा करने से
शुभ फलों में और
अधिक वृद्धि होती है। यदि
कोई व्यक्ति पूजन के बाद
दान करना चाहता है
तब वह भी दस
प्रकार की वस्तुओं का
करता है तो अच्छा
होता है लेकिन जौ
और तिल का दान
सोलह मुठ्ठी का होना चाहिए।
दक्षिणा भी दस ब्राह्मणों
को देनी चाहिए। जब
गंगा नदी में स्नान
करें तब दस बार
डुबकी लगानी चाहिए।
पूजा विधि
गंगा दशहरा का
व्रत भगवान विष्णु को खुश करने
के लिए किया जाता
है। इस दिन भगवान
विष्णु की पूजा-अर्चना
की जाती है। इस
दिन लोग व्रत करके
पानी भी (जल का
त्याग करके) छोड़कर इस व्रत को
करते हैं। ग्यारस (एकादशी)
की कथा सुनते हैं
और अगले दिन लोग
दान-पुण्य करते हैं। इस
दिन जल का घट
दान करके फिर जल
पीकर अपना व्रत पूर्ण
करते हैं। इस दिन
दान में केला, नारियल,
अनार, सुपारी, खरबूजा, आम, जल भरी
सुराई, हाथ का पंखा
आदि चीजें भक्त दान करते
हैं। गंगा जी का
ध्यान करते हुए षोडशोपचार
से पूजन करना चाहिए।
गंगा जी का पूजन
करते हुए निम्न मंत्र
पढ़ना चाहिए -
“ऊं नमः शिवायै नारायण्यै
दशहरायै
गंगायै
नमः”
इस मंत्र के
बाद “ऊं नमो भगवते
ऐ ह््रीं श्रीं हिलि हिलि मिलि
मिलि गंगे मां पावय
पावय स्वाहा” मंत्र का पांच पुष्प
अर्पित करते हुए गंगा
को धरती पर लाने
भगीरथी का नाम मंत्र
से पूजन करना चाहिए।
इसके साथ ही गंगा
के उत्पत्ति स्थल को भी
स्मरण करना चाहिए। गंगा
जी की पूजा में
सभी वस्तुएं दस प्रकार की
होनी चाहिए। जैसे दस प्रकार
के फूल, दस गंध,
दस दीपक, दस प्रकार का
नैवेद्य, दस पान के
पत्ते, दस प्रकार के
फल होने चाहिए। यदि
कोई व्यक्ति पूजन के बाद
दान करना चाहता है
तब वह भी दस
प्रकार की वस्तुओं का
करता है तो अच्छा
होता है। लेकिन जौ
और तिल का दान
सोलह मुठ्ठी का होना चाहिए।
दक्षिणा भी दस ब्राह्मणों
को देनी चाहिए। यूं
तो प्रायः सभी तीर्थों की
महिमा अकथनीय है परंतु भगवती
गंगा के संबंध में
तो वैदिक साहित्य में अनेकों ऐसे
मंत्र पाए जाते हैं
जिनमें गंगाजल की लोकोत्तर महिमा
का विशद वर्णन विद्यमान
है।
इं मे
गंगे!
यमुने
सरस्वती!
शतुऋि!
स्तोमं
सचत
परुष्ण्या।
अतिक्न्या मरुद्बधे,
वितस्तयार्जीकाये!
शृणुहया
सुषोमया।।
अर्थात - हे गंगा, शतुद्री,
परुष्णी, असिक्नी, मरुद्वृधा, वितस्ता, सोमा, आर्जीकीया नाम वाली नदियोंध्तुम
हमारी प्रार्थना को श्रवण करो
और स्वीकार करो। उपर्युक्त मंत्र
में जिन पवित्र दस
नदियों का नाम लिया
गया है उन सबमें
सर्वप्रथम गंगा का उल्लेख
हुआ है। एक अन्य
मंत्र में भी इसी
आशय की पुष्टि की
गई है। यथा-
सितासिते-सरिते-यत्र-संगते,
तत्रप्लुता
सो
दिवमुत्पतन्ति।
ये वे
तनुं
विसृजन्ति
धीरा,
स्तैजनासोऽमृतत्वं
भजन्ते।।
अर्थात - ‘जिस स्थान में
(प्रयाग) श्वेत काली नदियों-(गंगा
और यमुना) का संगम हुआ
है उस स्थान में
यात्रा करने से स्वर्ग
मिलता है और जो
धीर पुरुष इस स्थान में
शरीर त्याग देते हैं वे
अमर पद को प्राप्त
होते हैं।’ यहां भी ‘अभ्यर्हितं
पूर्व’ के अनुसार ‘सिता’
नाम से प्रथम गंगा
का ही उल्लेख किया
गया है।
गंगा जल महौषधि है-
हिमवतः प्रस्त्रवन्ति
सिन्धो
समह
संगम।
आपौ हृ
मह्यं
तद्देवीर्ददन
हृद्द्योतभेषजम्।।
इसलिए ‘बाल्मीकीय रामायण’ बालकांड सर्ग-34 में महर्षि विश्वामित्र
जी ने भगवान रामचंद्र
जी को भगवती गंगा
का वर्णन करते हुए उसे
‘सर्व लोकनमस्कृता’ और ‘स्वर्गदायिनी’ कहा
है। जगजननी सीता ने भी
वन यात्रा के समय गंगा
की वंदना करते हुए सकुशल
वापस लौटाने पर बड़े समारोह
के साथ पूजा करने
की मन्नत मांगी है।़
वैज्ञानिक तथ्य
निर्मल जलस्तर पर हुए तमाम
शोधों के बाद वैज्ञानिक
भी मानते है कि मां
गंगा सबसे पवित्र नदियों
में एक है गंगा।
गंगाजल में किटाणुओं को
मारने की क्षमता होती
है। इसका जल हमेशा
पवित्र रहता है। यह
सत्य भी विश्वव्यापी है
कि गंगा नदी में
एक डुबकी लगाने से सभी पाप
धुल जाते हैं। हिन्दू
धर्म में तो गंगा
को देवी मां का
दर्जा दिया गया है।
गंगा मैया के मंत्र
‘नमो भगवते दशपापहराये
गंगाये नारायण्ये रेवत्ये शिवाये दक्षाये अमृताये विश्वरुपिण्ये नंदिन्ये ते नमो नमः’
अर्थात हे भगवती, दसपाप
हरने वाली गंगा, नारायणी,
रेवती, शिव, दक्षा, अमृता,
विश्वरूपिणी, नंदनी को नमन।। ‘ॐ
नमो भगवति हिलि हिलि मिलि
मिलि गंगे मां पावय
पावय स्वाहा’, अर्थात हे भगवती गंगे!
मुझे बार-बार मिल
और पवित्र कर।।
पौराणिक मान्यताएं
कहते हैं भगवान
राम के रघुवंश में
उनके एक पूर्वज हुए
हैं महाराज सगर, जो चक्रवर्ती
सम्राट थे। एक बार
महाराज सगर ने अश्वमेघ
यज्ञ का अनुष्ठान किया।
उसके लिए अश्व को
छोड़ा गया। राजा इन्द्र
यह यज्ञ असफल करना
चाहते थे। इसीलिए इंद्र
ने अश्वमेघ यज्ञ के उस
घोड़े को ले जाकर
कपिलमुनि के आश्रम में
पाताल में बांध दिया।
तपस्या में लीन होने
के कारण कपिल मुनि
को इस बात का
पता नहीं चला। महाराज
सगर के साठ हजार
पुत्र थे, जो स्वभाव
से उद्दंड एवं अहंकारी थे।
मगर उनका पौत्र अंशुमान
धार्मिक एवं देव-गुरु
पूजक था। सागर के
साठ हजार पुत्रों ने
पूरी पृथ्वी पर अश्व को
ढूंढा परंतु वह उन्हें नहीं
मिला। उसे खोजते हुए
वे पाताल में कपिल मुनि
के आश्रम में पहुंचे, जहां
उन्हें अश्व बंधा हुआ
दिखाई दिया। यह देख सगर
के पुत्र क्रोधित हो गए तथा
शस्त्र उठाकर कपिल मुनि को
मारने के लिए दौड़े।
तपस्या में विघ्न उत्पन्न
होने से जैसे ही
कपिल मुनि ने अपनी
आंखें खोलीं, उनके तेज से
सगर के सभी साठ
हजार पुत्र वहीं जलकर भस्म
हो गए! इस बात
का पता जब सगर
के पौत्र अंशुमान को चला, तो
उसने कपिल मुनि से
प्रार्थना की, जिससे प्रसन्ना
होकर कपिल मुनि ने
अंशुमान से कहा, यह
घोड़ा ले जाओ और
अपने पितामह का यज्ञ संपन्न
कराओ। महाराज सगर के ये
साठ हजार पुत्र उद्दंड
एवं अधार्मिक थे, अतः इनकी
मुक्ति तभी हो सकती
है, जब गंगाजल से
इनकी राख का स्पर्श
होगा। महाराज सगर के बाद
अंशुमान ही राज्य के
उत्तारधिकारी बने किंतु उन्हें
अपने पूर्वजों की मुक्ति की
चिंता सतत बनी रही।
कुछ समय बाद गंगा
को स्वर्ग से पृथ्वी पर
लाने के लिए अंशुमान
राज्य का कार्यभार अपने
पुत्र दिलीप को सौंपकर वन
में तपस्या करने चले गए
तथा तप करते हुए
ही उन्होंने शरीर त्याग दिया।
महाराज दिलीप ने भी पिता
का अनुसरण करते हुए राज्यभार
अपने पुत्र भगीरथ को सौंपकर तपस्या
की, किंतु वे भी गंगा
को पृथ्वी पर नहीं ला
सके। सूर्यवंशी महाराजा भागीरथ ने अपने पितामहों
का उद्धार करने का संकल्प
लेकर हिमालय पर्वत पर घोर तपस्या
की। इससे ब्रह्माजी प्रसंन
होकर भगीरथ से कहा, हे
भगीरथ! मैं गंगा को
पृथ्वी पर भेज तो
दूंगा, पर उनके वेग
को कौन रोकेगा? इसलिए
तुम्हें देवादिदेव महादेव की आराधना करनी
चाहिए। इस पर भगीरथ
ने एक पैर पर
खड़े होकर भगवान शंकर
की आराधना की। उनकी तपस्या
से प्रसन्न होकर शिवजी ने
गंगा को अपनी जटाओं
में रोक लिया और
उसमें से एक जटा
को पृथ्वी की ओर छोड़
दिया। इस प्रकार गंगा
का पृथ्वी पर अवतरण हुआ।
अब आगे-आगे भगीरथ
का रथ और पीछे-पीछे गंगाजी चल
रही थीं। शिव की
जटाओं से होकर ज्येष्ठ
माह के शुक्ल पक्ष
की दशमी को हस्त
नक्षत्र, बृषभ राशिगत सूर्य
एवं कन्या राशिगत चन्द्र की यात्रा के
मध्य गंगा का स्वर्ग
से धरती पर पहाड़ों
से उतर कर हरिद्वार
ब्रह्मकुंङ में आईं थीं।
मार्ग में जह्नुऋषि का
आश्रम था। गंगा उनके
कमंडल, दंड आदि को
भी अपने साथ बहाकर
ले जाने लगीं। यह
देख ऋषि ने उन्हें
पी लिया। राजा भगीरथ ने
जब पीछे मुड़कर देखा,
तो गंगा को नहीं
पाकर उन्होंने जह्नुऋषि से प्रार्थना की
तथा उनकी वंदना करने
लगे। प्रसन्न होकर ऋषि ने
अपनी पुत्री बनाकर गंगा को अपने
दाहिने कान से निकाल
दिया। इसीलिए गंगा को जाह्नवी
के नाम से भी
जाना जाता है। भगीरथ
की तपस्या से अवतरित होने
के कारण उन्हें भागीरथी
भी कहा जाता है।
जिसके बाद मां गंगा
के पावन चरणों की
धूली पाकर राजा सगर
के 60 हजार पुत्रों का
उद्धार हुआ था। तभी
से इस दिन को
गंगा दशहरा के रूप में
मनाया जाने लगा।
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