Sunday, 27 October 2024

त्रिपुष्कर, इंद्र, वैधृति योग व उत्तरा नक्षत्र में मनेगा धनतेरस, मिलेगा 13 गुना फल

त्रिपुष्कर, इंद्र, वैधृति योग व उत्तरा नक्षत्र में मनेगा धनतेरस, मिलेगा 13 गुना फल 

सुख, समृद्धि और उजास के महापर्व दीपोत्सव की शुरुवात मंगलवार से होगी। इस मौके पर आरोग्य के जनक भगवान धन्वंतरि की आराधना की जायेगी। कार्तिक माह में कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को धनतेरस का पर्व मनाया जाता है. इस दिन को धन त्रयोदशी या धनवंतरि जयंती भी कहा जाता है. धनतेरस पर मां लक्ष्मी, भगवान धनवन्तरी और कुबेर की उपासना करने से घर में धन के भंडार कभी खाली नहीं होते हैं. धनतेरस की त्रयोदशी तिथि 29 अक्टूबर को सुबह 10 बकर 31 मिनट पर शुरू हो जाएगी और तिथि का समापन 30 अक्टूबर को दोपहर 1 बजकर 15 मिनट पर होगा.  धनतेरस के दिन इस बार 100 साल बाद त्रिग्रही योग यानी त्रिपुष्कर योग, इंद्र योग, वैधृति योग और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र का महासंयोग बन रहा है। ज्योतिषियों का कहना है कि यह शुभ योग में आर्थिक उन्नति हो सकती है। इस योग में खरीदारी करना बहुत ही शुभ माना जाता है. पहला मुहूर्त 29 को सुबह 6 बजकर 31 मिनट से लेकर 10 बजकर 31 मिनट तक रहेगा. दूसरा मुहूर्त दोपहर 11 बजकर 42 मिनट से लेकर दोपहर 12 बजकर 27 मिनट तक. गोधूलि मुहूर्त शाम 5 बजकर 38 मिनट से लेकर 6 बजकर 04 मिनट तक रहेगा. इस मुहूर्त में भी खरीदारी की जा सकती है। जबकि पूजन का मुहूर्त शाम में 6 बजकर 31 मिनट से लेकर रात 8 बजकर 31 मिनट तक है। पूजन के लिए 1 घंटा 42 मिनट मिलेगा 

                                      सुरेश गांधी

धनतेरस यानीधनऔरतेरस“, यानी धन और समृद्धि। तेरस यानी कैलेंडर का 13 वां दिन। इस दिन भगवान धन्वतरि, जो स्वास्थ्य के देवता हैं उनकी पूजा की जाती है। इनकी आराधना से रोग से मुक्ति मिलती है। इस दिन कुबेर देव और देवी लक्ष्मी की पूजा करने की भी परंपरा है। पुष्य नक्षत्र के बाद यह खरीदारी के लिए बड़ा मुहूर्त माना जाता है। धनतेरस पर त्रिपुष्कर योग में सोना-चांदी, वाहन, मकान सहित अन्य वस्तुओं की खरीदारी करना बहुत ही शुभ फलदायी माना जाता है। कहते है इस दिन खरीदारी करने से सिर्फ तीन गुना फल मिलता है, बल्कि त्रिपुष्कर के साथ ही लक्ष्मीनारायण योग के चलते गुरु पुष्य के बाद खरीदारी का यह दूसरा सबसे बड़ा महामुहूर्त है। त्रयोदशी तिथि की शुरुआत 29 को सुबह 10.31 से 30 अक्टूबर को दोपहर 1.15 बजे तक रहेगी। इसमें किए गए कार्य के प्रभाव को तीन गुना बढ़ा देता है। इस योग में शुभ कार्यों को करना उत्तम माना जाता है। इसके साथ इस दिन अकाल मृत्यु के भय से मुक्ति के लिए यम दीप दान करते हैं। 


लक्ष्मी
-कुबेर पूजन के साथ यम दीप दान के लिए प्रदोषकाल में शाम 6.31 से रात 8.13 बजे तक 1 घंटा 42 मिनट का श्रेष्ठ समय है। प्रदोषकाल शाम 5.38 से रात 8.13 बजे तक रहेगा। ज्योतिषियों का कहना है कि धनतेरस के दिन अगर आप सही मुहूर्त में पूजा अर्चना करते हैं तो कई तरह के अच्छे बदलाव आपको जीवन में देखने को मिल सकते हैं। आपकी आर्थिक संपन्नता के लिए इस दिन पूजा करना बेहद शुभ माना जाता है। इसके साथ ही जो लोग आध्यात्मिक गतिविधियों में शामिल हैं, वो इस दिन मंत्रों का उच्चारण करके और ध्यान करके उन्नति प्राप्त कर सकते हैं। यह दिन साल में एक बार आता है, इसलिए इस दिन आपको पूजा अर्चना और खरीदारी करने के साथ ही आत्मज्ञान के लिए धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन भी करना चाहिए।

मान्यताएं 

1 - इस दिन भगवान धन्वंतरि का पूजन विशेष लाभकारी माना गया है। भगवान धन्वंतरि समुद्र मंथन के दौरान अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे, इसलिए वे स्वास्थ्य और दीर्घायु के देवता माने जाते हैं। इस दिन भगवान धन्वंतरि की प्रतिमा के समक्ष दीप जलाकर, पुष्प अर्पित कर और धन्वंतरये नमःमंत्र का जाप करना चाहिए। इस उपाय से व्यक्ति के जीवन में स्वास्थ्य और रोग-मुक्ति का आशीर्वाद प्राप्त होता है।

2. माता लक्ष्मी की कृपा पाने के लिए घर के मुख्य दरवाजे पर दीया जलाना अत्यंत शुभ माना जाता है। माना जाता है कि दीप जलाने से लक्ष्मी माता का प्रवेश होता है और घर में सकारात्मक ऊर्जा का वास होता है। साथ ही, इस दिन घर के हर कोने में दीप जलाएं, ताकि कोई भी स्थान अंधेरे में रहे। यह उपाय सुख-समृद्धि और शांति की प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण है।

3. इस दिन भगवान कुबेर की पूजा करना भी बहुत लाभकारी माना गया है। कुबेर धन के देवता हैं और उनकी पूजा से आर्थिक स्थिति मजबूत होती है। पूजा के दौरान भगवान कुबेर की प्रतिमा या चित्र के सामने घी का दीपक जलाएं और उन्हें अक्षत, फूल, और मिठाई अर्पित करें। पूजा के अंत में कुबेराय नमःमंत्र का 108 बार जाप करें। इस उपाय से आर्थिक समृद्धि और स्थिरता प्राप्त होती है।

4. इस दिन सोना, चांदी, बर्तन या अन्य धातु की चीजें खरीदना शुभ माना जाता है। माना जाता है कि इस दिन खरीदी गई धातु माता लक्ष्मी के घर आगमन का प्रतीक होती है और समृद्धि का वास होता है। अगर संभव हो तो चांदी का सिक्का या बर्तन खरीदें और इसे लक्ष्मी पूजन के दौरान शामिल करें, ताकि साल भर आपके घर में धन-धान्य की वृद्धि हो। सोना मां लक्ष्मी का रूप होता है. धनतेरस पर सोना खरीदने से घर में बरकत आती है, लक्ष्मी जी स्थाई रूप से घर में वास करती है. सोना चूंकि बहुत महंगा होता है ऐसे में धनतेरस पर जौ भी खरीद सकते हैं. जौ को भी संपन्नता का प्रतीक माना गया है और सोने के समान ही माना जाता है. आप इस दिन घर में जौ लेकर आएं. इसमें से थोड़ जौ को घर की क्यारी या गमले में बो दें और इसकी सेवा करें. बाकी के जौ को कहीं रख लें. जरूरत पड़ने पर पूजा आदि में इसका इस्तेमाल करें. इससे आपके घर में बहुत संपन्नता आएगी.

5. इस दिन झाड़ू खड़ा धनिया खरीदना भी शुभ माना जाता है। इसे घर में नए सिरे से शुभता लाने का प्रतीक माना गया है। झाड़ू को लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है और इसे घर में रखने से दरिद्रता और नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है। ध्यान रखें कि खरीदी हुई झाड़ू को धनतेरस के अगले दिन इस्तेमाल करना चाहिए। खड़ा धनिया माता लक्ष्मी और कुबेर देवता के चरणों में अर्पित करने से घर-परिवार और व्यापार में कभी धन की की नहीं होती है। इस दिन खरीदी गई झाड़ू से घर में झाड़ू लगाने से दरिद्रता दूर होती है। अपने घर नई झाड़ू लाएं, साथ ही दूसरों को दान भी करें। झाड़ू लाकर उस पर सफेद धागा बांधें। इससे लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं और कृपा करती हैं।


6 - इस दिन पीली कौड़ियां घर जरुर लाएं। कहते है जीवन में अचानक धन वृद्धि के लिए इस दिन पीली कौड़ियां जरुर खरीदें। इनकी पूजा करें और तिजोरी में रख लें। कौड़ियां पीली नहीं हैं, तो उन्हें हल्दी में रंगकर इस्तेमाल करें।

7 - पीली वस्तु होने के कारण हल्दी की गांठ को इस दिन घर लाना शुभ है। हल्दी को घर लाकर स्वच्छ सफेद कपड़े में लपेटे और पूजा करें। इसके बाद पोटली को तिजोरी के पास रख दें। साल भर किसी चीज की कमी नहीं होगी। लक्ष्मी की कृपा बनी रहेगी।

8 - वैसे तो धनतेरस का दिन धन के देवता कुबेर और भगवान धन्वंतरि को समर्पित है, लेकिन इस दिन लक्ष्मी जी की पूजा करने का भी विधान है। लक्ष्मी जी की पूजा करें और खीर का भोग लगाएं। साथ ही मां को लाल वस्त्र समर्पित करें।

9- इस दिन दीप जलाने के लिए, ईशान कोण दिशा को शुभ माना जाता है. वास्तु शास्त्र के मुताबिक, यह दिशा देवी-देवताओं की मानी जाती है. इस दिशा में दीप जलाने से परिवार के सभी सदस्यों का स्वास्थ्य अच्छा रहता है. पश्चिम दिशा को राहु की दिशा माना जाता है. इस दिशा में दीप जलाने से लोगों को अशुभ फल मिल सकते हैं और जीवन में कई तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता है. वास्तु शास्त्र के अनुसार, उत्तर दिशा की ओर दीपक की लौ होना शुभ होता है. उत्तर दिशा में दीपक रखने से धन में वृद्धि होती है. वहीं, पश्चिम दिशा की ओर दीपक की लौ का जलना बेहद अशुभ बताया गया है. इसलिए इस दिशा में दीपक का मुंह करके नहीं रखना चाहिए.

काशी में विराजमान है भगवान धन्वंतरि

काशी के बुलानाला में विराजमान है भगवान ध्न्वंतरि। धनतेरस के दिन भगवान धन्वंतरि का सार्वजनिक दर्शन होता है। यहां भगवान धन्वंतरि की अष्टधातु की मूर्ति है, जो लगभग 300 साल पुरानी है। कहते है धनतेरस के दिन भगवान धन्वंतरि के दर्शन मात्र से वर्ष भर निरोग एवं व्याधिमुक्त रहने का वरदान मिल जाता है। इस दिन श्री काशी विश्वनाथ को भिक्षा देने वाली मां अन्नपूर्णा अपने भक्तों पर कृपा बरसाएंगी। इस बार स्वर्णमयी अन्नपूर्णा मंदिर के कपाट धनतेरस के दिन घंटे भर पहले खुलेंगे और अंतिम दिन अन्नकूट को महाआरती के बाद आधे घंटे की देरी से वर्ष भर के लिए बंद हो जाएंगे। 29 अक्तूबर से दो नवंबर तक देश भर के श्रद्धालु माता के दर्शन करेंगे। इस बार स्वर्णमयी मां अन्नपूर्णा अपने भक्तों को 95 घंटे तक दर्शन देंगी और 25 घंटे विश्राम करेंगी। इसके साथ ही अन्न-धन का खजाना भी बरसाएंगी। पांच दिनों तक श्रद्धालु माता के स्वर्णमयी विग्रह मां अन्नपूर्णा, मां भूमि देवी, लक्ष्मी और रजत महादेव के दर्शन कर सकेंगे। 29 अक्तूबर को धनतेरस के दिन मां अन्नपूर्णा मंदिर के कपाट अपने निर्धारित समय से एक घंटा पहले ही तीन बजे खुल जाएंगे। भोर में पांच बजे से रात्रि 11 बजे तक भक्तों को माता के दर्शन होंगे। 30, 31 अक्तूबर और एक नवंबर को भक्तों को माता के स्वर्णमयी स्वरूप के दर्शन चार बजे भोर से रात्रि 11 बजे तक होंगे। दो नवंबर को अन्नकूट के दिन लड्डुओं की झांकी सजेगी और रात्रि 11.30 बजे माता की महाआरती होगी। इसके बाद एक वर्ष के लिए स्वर्णमयी अन्नपूर्णा का कपाट बंद कर दिया जाएगा। इस दिन शाम से देर रात तक दर्शन करने के लिए श्रद्धालुओं की भारी भीड़ होती है। धन्वंतरि निवास में स्थापित मूर्ति भगवान धन्वंतरि के दर्शन वर्ष में  सिर्फ एक दिन ही होता है। जिसके दर्शन के लिए देश विदेश के श्रद्धालु निरोग रहने हेतु आते हैं। रजत सिंहासन पर करीब ढाई फुट ऊंची रत्न जड़ित मूर्ति साक्षात हरि के सामने खड़े होने का आभास कराती है। एक हाथ में अमृत कलश, दूसरे में शंख, तीसरे में चक्र और चौथे हाथ में जोंक तो दोनों ओर सेविकाएं चंवर डोलाती और दिव्य झांकी के दर्शन कर भक्त मंडली जयकार लगाती है।

धन्वंतरि कूप

धर्म एवं आस्था की नगरी काशी में विराजमान है भगवान धन्वंतरि। चाहे वो मृत्युंजय महादेव का कुंआ हो या बुलानाला स्थित बैद्यराज स्व. शिव कुमार शास्त्री का धन्वंतरि निवास। दोनों ऐसी जगह है जहां इंसान भगवान धन्वंतरि के दर्शन कर लें या कुंए का एक गिलास पानी पीलें, उसके दूर हो जाते है सारे दुख मिल जाता है आरोग्य का वरदान। साथ ही धन्वन्तरि जयंती पर यानी धनतेरस के दिन अगर आपने सही मुहूर्त में सही कर ली पूजा-अर्चना तो यकीन मानिए धन तेरह गुना बढ़ेगा. कहते है जब समुद्र मंथन हो रहा था तब सागर की अतल गहराइयों से चौदह रत्न निकले थे. धन्वंतरि इन्हीं रत्नों मे से एक हैं. जब देवता और दानव मंदार पर्वत से समुद्र का मंथन कर रहे थे. तब तेरह रत्नों के बाद चौदहवें रत्न के रूप में धन्वंतरि सामने आए. जो अमृत कलश के साथ प्रकट हुए थे. धन्वंतरि अमृत यानी जीवन का वरदान लेकर प्रकट हुए थे और इन्हें आयुर्वेद जगत का प्रणेता और वैद्यक शास्त्र का देवता माना जाता है. इसलिए ऋषि मुनी इन्हें आरोग्य का देवता मानते थे. कहते है भगवान धन्वंतरि काशीराज के रूप में पूजे जाते हैं। काशी के राजपरिवार में उनको पुत्र के रूप में पाने की मान्यता के साथ काशीराज धन्य के कुल में जन्म लेने की वजह से वह धन्वंतरि कहलाए। महामृत्युंजयेश्वर मंदिर के तीसरे खंड परिसर में प्राचीन कूप को आज भी धन्वंतरि कूप के रूप में पहचाना जाता है। कहते है महाभारत कालीन युग के राजा परीक्षित को विधान के अनुसार डंसने जा रहे नागराज तक्षक संजीवनीके दम पर राजा को बचाने जा रहे आयुर्वेद पुरुष धन्वंतरि की भेंट यहीं पर हो गई थी। दोनों ने यहीं अपने प्रभाव प्रताप का परीक्षण किया। आज भी धन्वंतरि कूप के रूप में प्रसिद्ध महामृत्युंजय मंदिर के प्रांगण में पूजनीय है। मान्यता है कि सात घाटों वाले इस कूप के हर घाट का पानी और पानी की तासीर अलग-अलग है। इस धन के देवता कुबेर मृत्यु के देवता यमराज की भी पूजा की जाती है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन यमराज को दीप नैवेद्य समर्पित करने से व्यक्ति के अकाल मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। कहते हैं समंद्र मंथन से प्रकट होने के बाद जब धन्वंतरि ने विष्णु से अपना पद और विभाग मांगा, तो विष्णु ने कहा तुम्हें आने में थोड़ा बिलम्ब हो गया। देवो को पहले ही पूजित किया जा चुका है और समस्त विभागों का बटवारा भी हो चुका है। इसीलिए तुम्हें तत्काल देवपद नहीं दिया जा सकता। लेकिन तुम द्वितीय द्वापर में पृथ्वी पर राजकुल में जन्म लोगे और तीनों लोकों में तुम प्रसिद्ध और पूजित होगे। तुम्हें देवतुल्य माना जायेगा। मुत आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन करोगे। इस वरदान के कारण ही द्वितीय द्वापर युग में भगवान भोलेनाथ के द्वारा बसायी काशी में काशी नरेश राजा काश के पुत्र धन्व की संतान के रुप में भगवान धन्वंतरि ने पुनः जन्म लिया। जन्म लेने के बाद भारद्वाज से उन्होंने आयर्वेद को पुनः ग्रहण करके उसे आठ अंगों में बांटा। धन्वंतरि को समस्त रोगों के चिकित्सा पद्धति ज्ञात थी। कहते है कि शिव के हलाहल ग्रहण करने के बाद धन्वंतरि ने ही उन्हें अमृत प्रदान किया और तब उसकी कुछ बूंदे काशी में भी छलकी। इस प्रकार काशी कभी नष्ट होने वाली कालजयी नगरी बन गयी।

कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को धन्वंतरि के प्रकट होने से धनतेरस मनाया जाता है। कहा जाता है कि समुद्र मंथन के समय धन्वंतरि ने संसार को अमृत दिया था। भगवान धन्वंतरि देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमारों का ही अवतार हैं। प्राकट्य के समय धन्वंतरि के चार हाथों में अमृत कलश, औषधि, शंख और चक्र थे। प्रकट होते ही उन्होंने आयुर्वेद का परिचय कराया। आयुर्वेद के संबंध में कहा जाता है कि सर्वप्रथम ब्रह्मा ने एक लाख श्लोक वाले आयुर्वेद की रचना की जिसे अश्विनी कुमारों ने सीखा और इंद्र को सिखाया। इंद्र ने इससे धन्वंतरि को कुशल बनाया। आयुर्वेद के संबंध में कहा जाता है कि सर्वप्रथम ब्रह्मा ने एक सहस्त्र अध्याय तथा एक लाख श्लोक वाले आयुर्वेद की रचना की, जिसे अश्विनी कुमारों ने सीखा और इंद्र को सिखाया। इन्द्र ने इस धन्वंतरि को कुशल बनाया। जबकि धन्वंतरि से पहले आयुर्वेद गुप्त था। उनसे इस विद्या को विश्वामित्र के पुत्र सुश्रुत ने सीखा। सुश्रुतु विश्व के पहले सर्जन यानी शल्य चिकित्सक थे। धन्वंतरि के वंशज श्री दिवोदास ने जब काशी में विश्व का प्रथम शल्य चिकित्सा का विद्यालय स्थापित किया, तो सुश्रुत को इसका प्रधानाचार्य बनाया गया।

व्यापारी वर्ग के लिए बही-खाता विशेष मानी जाती है। जिसमें क्रय-विक्रय का लेखा-जोखा रखा जाता है। विशेष योग मुहूर्त में शुभ, लाभ, चंचल अमृत का चौघड़िया महत्वपूर्ण माना जाता है। इसलिए इस समय इन्हें खरीदना चाहिए और पूजन करना चाहिए। इस दिन धनवंतरी जी का पूजन इस तरह करें - नवीन झाडू एवं सूपड़ा खरीदकर उनका पूजन करें। सायंकाल दीपक प्रज्ज्वलित कर घर, दुकान आदि को सुसज्जित करें। मंदिर, गौशाला, नदी के घाट, कुओं, तालाब, बगीचों में भी दीपक लगाएं।

धनतेरस ही प्रारंभ होता है दीवाली

वैसे भी पांच दिवसीय दीपोत्सव धनतेरस से ही प्रारंभ होता है। आध्यात्मिक मान्यताओं में दीवाली की महानिशा से दो दिन पहले जुंबिश देने वाला यह काल यक्ष यक्षणियों के जागरण दिवस के रुप में प्रख्यात हैं। यक्ष-यक्षिणी स्थूल जगत के उन चमकीले तत्वों के नियंता कहे जाते हैं, जिन्हें जगत दौलत मानता है। लक्ष्मी और कुबेर यक्षिणी और यक्ष माने जाते है। यक्ष-यक्षिणी ऊर्जा का वो पद कहा जाता है, जो हमारे जीने का सलीका नियंत्रित करता है। धनतेरस दो शब्दों से बना है धन और तेरस। ऐसी मान्यता है कि इस दिन खरीदे गए धन स्वर्ण-रजत में 13 गुनी अभिवृद्धि हो जाती है। धन का भोग करने के लिए लक्ष्मी की कृपा के साथ ही उत्तम स्वास्थ्य और दीघार्यु की भी जरुरत होती है। यही अवधारणा धन्वंतरि के वजूद की बुनियाद बनती है। सनद रहे धन और वैभव का भोग बिना बेहतर के संभव नहीं हैं। लिहाजा एश्वर्य के भोग के लिए धन्वंतरि की अवधारणा सहज रुप से प्रकट हुई। आमजनमानस दीवाली को भी धन का ही पर्व मानती है, जो सही नहीं हैं। दीवाली तो आंतरिक जागरण की बेला है। यह सिर्फ धन ही नहीं, बल्कि हर प्रयास के सिद्धि की घड़ी है। धन का दिन तो धनतेरस को ही माना जाता है, जो औषधि और स्वास्थ्य के स्वामी धन्वंतरि का भी दिन है।

धन की वृद्धि होती है

त्रयोदशी धन वृद्धि करने वाली तिथि भी है। इसीलिए प्राचीन काल से ही इस दिन चांदी खरीदने की परंपरा रही है। चांदी चन्द्रमा का प्रतीक है और चंद्रमा धन और मन दोनों का स्वमी है। चंद्रमा शीतलता अर्थात शांति का भी प्रतीक है और संतुष्टि का भी। शायद इसके पीछे की सोच यह है कि संतुष्टि का का अनुभव ही सबसे बड़ा धन है। जो संतुष्ट है वही धन भी है और सुखी भी। चूंकि संपन्नता सभी का लक्ष्य होता है इसलिए इस दिन धन समृद्धि की कामना करते हुए चांदी स्वर्ण, रजत, ताम्र, पीतल, अष्टधातु की मूर्तियां, सोने के सिक्के, चांदी के सिक्के या लक्ष्मीजी श्रीगणेशजी की किसी भी धातु की मूर्ति को खरीदकर घर लाना शुभ माना जाता है। जिससे सुख, समृद्धि संपन्नता बनी रहती है। धनतेरस की रात को उड़द की दाल का चौमुखा दीपक सरसों का तेल डालकर घर की दक्षिण दिशा में यमराज को भेंट करते हुए रखा जाता है। साथ ही नैवेद्य अर्पित करते हैं। जिससे जीवन में कभी अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। यम के लिए दीप भेंट करने के पश्चात परिवार के प्रत्येक सदस्य उस दीप की तीन परिक्रमा करते हैं और भगवान से प्रार्थना करते हैं ताकि भय पर विजय प्राप्त कर सके। इस दिन भौम प्रदोष का संयोग भी हैं। इसलिए भूमि, भवन, खड़ी फसल आदि के सौदे शुभ फल प्रदान करेंगे। बही-खाते, कलम दवात, सोने-चांदी के आभूषण तथा मूर्ति, बर्तन, कलश, पंचपात्र तथा मूर्तियां, कम्प्यूटर, लैपटॉप, मोबाइल, एसेसरीज आदि खरीद कर प्रदोष काल में पूजन करने से कुबेर लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है।

कर्मों का भी मंथन करें मनुष्य

चूकिं धनवंतरी और मां लक्ष्मी का अवतरण समुद्र मंथन से हुआ था। दोनों ही कलश लेकर अवतरित हुए थे। यह इस बात का संकेत है कि मनुष्य को सदैव अपने कर्मो और दृष्टिकोण को लेकर मंथन करते रहना चाहिए। जब यह मंथन निष्पक्ष और निःस्वार्थ होगा तो समुद्र मंथन की ही तरह लक्ष्मी और धनवंतरी प्रकट होंगे, जो आरोग्य और वास्तविक समृद्धि का सृजन करेंगे। धनवंतरी और मां लक्ष्मी दोनों ही कलश के साथ प्रगट हुए थे और दोनों ही देवों को प्राप्त हुए। इस घटना से यह स्पष्ट है कि स्वास्थ्य और वास्तविक लक्ष्मी का सान्निध्य सदैव सुकर्मी तथा अच्छे लोगों को प्राप्त होता है। श्री सूक्त में लक्ष्मी के स्वरूपों का विवरण कुछ इस प्रकार मिलता है।धनमग्नि, धनम वायु, धनम सूर्यो धनम वसुरूअर्थात प्रकृति ही लक्ष्मी है और प्रकृति की रक्षा करके मनुष्य स्वयं के लिये ही नहीं, अपितु निःस्वार्थ होकर पूरे समाज के लिये लक्ष्मी का सृजन कर सकता है। श्री सूक्त में कहा गया है-‘ क्रोधो मात्सर्यम लोभो ना अशुभा मतिःयानी जहां क्रोध और किसी के प्रति द्वेष की भावना होगी, वहां मन की शुभता में कमी आयेगी, जिससे वास्तविक लक्ष्मी की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न होगी। मानसिक विकृतियों से चूंकि व्यक्ति और पूरे समाज को हानि होती है, अतः यह लक्ष्मी की प्राप्ति में बाधक हैं। लक्ष्मी प्रकृति स्वरूपा है, चंद्र, सूर्य की आभा प्रदान करने वाली हैं। अतः लक्ष्मी की वास्तविक परिकल्पना प्रकृति की सुन्दरता को बढ़ा कर ही साकार हो सकती है। इससे आचार्य धनवंतरी के बताये गये मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य सम्बंधी उपायों को हम अपना कर सबल हो सकेंगे। लक्ष्मी जी भय और शोक से मुक्ति दिलाती हैं तथा धन-धान्य और अन्य सुविधाओं से युक्त करके मनुष्य को निरोगी काया और लम्बी आयु भी देती हैं।

प्रचलित कथाएंः

धनतेरस के बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं। इसमें से एक प्रमुख कथा है- हीमा नाम के एक राजा के पुत्र की कुंडली में विवाह के चौथे दिन सर्प के काटने के कारण मृत्यु का योग था। राजा ने अपना वंश आगे बढ़ाने के लिए बेटे का विवाह कर दिया, परंतु जब उसकी पत्नी को यह बात पता चली तो शादी के चौथे दिन उसने अपने कमरे के चारों तरफ खूब रंग-बिरंगी रोशनी कर दी। सोने-चांदी के आभूषण सिक्के मुख्य द्वार पर बड़े ढेर की तरह लगा दिए, ताकि कोई अंदर सके और पति को नींद आए, इसलिए वे सारी रात उसे धार्मिक और प्रेरणादायक कहानियां सुनाती रही। रात में जब मृत्यु के देवता यमराज सांप के रूप में उसके पति को डसने आए तो आभूषणों की चकाचौंध और रंग-बिरंगी रोशनियों की चमक के कारण उनको कुछ भी दिखाई नहीं दिया। वे कमरे में प्रवेश नहीं कर पाए और खाली हाथ लौट गए। एक पतिव्रता पत्नी द्वारा मृत्यु के द्वार से अपने पति की मौत को लौटा देने के कारण धनतेरस के इस दिन कोयम दीपदानसे भी जानते हैं। ऐसी भी मान्यता है कि पूरी रात आटे का दीया बना कर उसमें जोत जलाने को परिजनों के जीवन का रक्षक माना जाता है। वैसे आयुर्वेद शास्त्र की उत्पत्ति भी इसी दिन मानी गई है। पांच दिन के दीपावली महोत्सव का पहला त्योहार धनतेरस ही है, इसलिए इसका बहुत महत्व है, क्योंकि किसी भी पूजा, उत्सव की शुरुआत जितनी अच्छी और विधि-विधान से होगी, उसका आशीर्वाद उतना ही प्रभावशाली योगकारक होना निश्चित है। हमारे शास्त्रों में भी बार-बार यही वर्णन किया गया है कि भगवान धन से नहीं, सच्ची भावना से प्रसन्न होते हैं।

 

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