‘जीवन चक्र’ और ‘शक्ति’ को दर्शाता है ‘गरबा’
देशभर
में
नवरात्र
की
धूम
है.
शहर-शहर
मां
की
भक्ति
में
डूबा
है.
सुबह-शाम
घर,
मंदिर
और
पंडालों
में
मां
की
पूजा
आरती
विधि
-विधान
से
की
जा
रही
है.
इस
दौरान
मां
के
नौ
स्वरूपों
की
आराधना
की
जाती
है.
लेकिन
गरबा-डांडिया
के
बिना
नवरात्र
अधूरा
माना
जाता
है.
गरबा
यानी
’गर्भ’
या
’अंदर
का
दीपक’.
इसे
देवी
की
पूजा
अर्चना
का
प्रतीक
माना
जाता
है.
क्योंकि
गरबा
मां
दुर्गा
को
पसंद
हैं।
यही
वजह
है
कि
नवरात्र
के
दिनों
में
गरबा
के
जरिये
मां
को
प्रसन्न
करने
की
कोशिश
की
जाती
है।
‘गरबा’
तत्सम
‘गर्भद्वीप’
का
तद्भव
है।
मिट्टी
के
कुंभ
में
ढेर
सारे
छेद
बना
कर
भीतर
दीप
प्रज्जवलित
की
जाने
की
प्रथा
है।
इस
कुंभ
को
केंद्र
में
रख
महिलाएं
‘गरबा’
करती
हैं।
इसे
देवी
की
आरती
से
पहले
की
जाती
है।
जबकि
डांडिया
आरती
के
बाद
होता
है
और
उसमें
पुरुष
भी
नृत्य
करते
है।
हिंदूओं
में
नृत्य
को
भक्ति
और
साधना
का
एक
मार्ग
बताया
गया
है.
वैसे
भी
गरबा
को
संस्कृत
में
गर्भ
दीप
ही
कहते
है.
वर्षों
पहले
गरबा
को
गर्भदीप
के
नाम
से
ही
जाना
जाता
था.
गरबा
यानी
की
गर्भदीप
के
चारों
ओर
स्त्रियां-पुरुष
गोल
घेरे
में
नृत्य
कर
मां
दुर्गा
को
प्रसन्न
करते
हैं.
मान्यता
है
कि
गरबा
करने
के
समय
महिलाएं
तीन
ताली
बजाकर
नृत्य
करती
है
वह
तालियां
ब्रह्मा,
विष्णु
और
महेश
के
प्रति
अपनी
श्रद्धा
प्रकट
करने
का
तरीका
होता
है.
कहते
हैं
कि
तालियों
की
गूंज
से
मां
भवानी
जागृत
होती
हैं
सुरेश गांधी
आदिशक्ति मां अंबे और दुर्गा की आराधना पर्व नवरात्र सिर्फ अच्छाई की बुराई पर जीत का ही प्रतीक नहीं है, बल्कि भारतीय संस्कृति में एकता के प्रतीक के रूप में भी मनाते हैं। देखा जाए तो भक्त इस त्योहार को सिर्फ मां की पूजा करके ही नहीं मनाते, बल्कि पारंपरिक और रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर लोक गीत गाकर ‘गरबा‘ और ‘डांडिया‘ भी खेलते हैं। पारंपरिक और रंग-बिरंगे कपड़ों में सजे-धजे बच्चे, युवा, बड़े और बुजुर्ग एक अलग ही अंदाज को प्रस्तुत करते है। इसीलिए घट स्थापना के बाद ही इस नृत्य का आरंभ होता है। गरबा नृत्य में ताली, चुटकी, खंजरी, डंडा मंजीरा आदि का ताल देने के लिए प्रयोग किया जाता है। कहते है लयबद्ध ताल से देवी दुर्गा को प्रसन्न करने की कोशिश की जाती है। जहां भक्तिपूर्ण गीतों से मां को उनके ध्यान से जगाने का प्रयास किया जाता है ताकि उनकी कृपा हर किसी पर बनी रहे। पहले देवी के समीप छिद्र वाले घट में दीप ले जाने के क्रम में यह नृत्य होता था। हालांकि यह परिपाटी आज भी है लेकिन मिट्टी के घट या गरबी की शक्ल अब स्टील और पीतल ने ले ली है।
जहां तक नवरात्र
में ही गरबा या
डांडिया करने की प्रथा
का सवाल है तो
इसके पीछे मान्यता है
कि कुंभ हिंदू धर्म
के सांस्कृतिक मानस में स्थूल
देह का प्रतीक है।
‘फूटा कुंभ जल जलहि
समाना।’ अर्थात भक्त रुपी कुंभ
एवं गुरु रुपी वह
कुम्हार ‘जो गढ़ि-गढ़ि
काढ़े खोट’. यानी अपने भीतर
छिपे खोट को ढूढ़
निकाले। इसीलिए नवरात्रि के समय कुंभ
के भीतर दीप रखकर
उसके गिर्द ‘गरबा’ करने का रिवाज
है। क्योंकि दीपशिखा हमेशा ऊपर उठती है।
जबकि चेतना का भी यही
गुण धर्म है। देह
के भीतर चेतना उर्घ्वगामी
हो, वह मूलाधार में
ही न रहे, सहस्नर
तक पहुंचे, सारी सृष्टि को
आत्मवत् पहचाने! यही वजह है
हर गरबा या डांडिया
नाईट में काफी सजे
हुए घट दिखायी देते
हैं। जिस पर दिया
जलाकर इस नृत्य का
आरंभ किया जाता है।
यह घट दीपगर्भ कहलाता
है और दीपगर्भ ही
गरबा कहलाता है। देवी के
सम्मान में भक्ति प्रदर्शन
के रूप में गरबा,
‘आरती’ से पहले किया
जाता है और डांडिया
समारोह उसके बाद। बता
दें, नवरात्रि के पर्व में
मिट्टी के मटके में
दीप प्रज्वलित करते हैं, जिसे
’गरबी’ कहते हैं. इस
मटके को मां दुर्गा
की शक्ति और ऊर्जा का
रूप मान जाता है.
इसके चारों तरफ घेरा बनाकर
लोग नृत्य करते हैं. जो
जीवन चक्र और शक्ति
को दर्शाता है. गरबा नृत्य
मां के लोकप्रिय गीतों
पर किया जाता है.
जबकि डांडिया को देवी दुर्गा
और महिषासुर के बीच हुई
लड़ाई का प्रतीक माना
जाता है. डांडिया में
इस्तेमाल की जाने वाली
छड़ी को मां दुर्गा
की तलवार कहते हैं, जो
बुराई का विनाशक प्रतीक
है.
मां और महिषासुर के बीच लड़ाई का मंचन है डांडिया
गरबा और डांडिया
को मां और महिषासुर
के बीच हुई लड़ाई
का नाटकीय रूपांतर माना जाता है।
इसीलिए इस नृत्य में
इस्तेमाल की जाने वाली
डांडिया स्टीक को मां दुर्गा
की तलवार के रूप में
माना जाता है। यही
कारण है कि इस
नृत्य को डांडिया के
नाम से भी जाना
जाता है। यही वजह
है कि डांडिया के
लिए रंग-बिरंगी लकड़ी
की स्टीक्स, चमकते लहंगे और कढ़े हुए
ब्लाउज व कदमों को
थिरकाने वाले संगीत की
जरूरत पड़ती है। इस
नृत्य में सिर के
उपर पारंपरिक रूप से सजाए
गए मिट्टी बर्तन (गरबी) रखकर प्रदर्शित किया
जाता है। गरबा का
संस्कृत नाम गर्भ-द्वीप
है। गरबा के आरंभ
में देवी के निकट
सछिद्र कच्चे घट को फूलों
से सजा कर उसमें
दीपक प्रज्वलित किया जाता है,
जो ज्ञान रूपी प्रकाश का
अज्ञान रूपी अंधेरे के
भीतर फैलाने प्रतीक माना जाता है।
इस दीप को ही
दीपगर्भ या गर्भ दीप
कहा जाता है। यही
शब्द अपभ्रंश होते-होते गरबा
बन गया। इस गर्भ
दीप के ऊपर एक
नारियल रखा जाता है।
नवरात्र की पहली रात्री
गरबा की स्थापना कर
उसमें ज्योति प्रज्वलित की जाती है।
इसके बाद महिलाएं इसके
चारों ओर ताली बजाते
हुए फेरे लगाती हैं।
गरबा नृत्य में ताली, चुटकी,
खंजरी, डंडा या डांडिया
और मंजीरा आदि का इस्तेमाल
ताल देने के लिए
किया जाता है। महिलाएं
समूह में मिलकर नृत्य
करती हैं। इस दौरान
देवी के गीत गाए
जाते हैं।
संगीत से थिरक उठते है कदम
‘घूमतो-घूमतो जाए, अंबो थारों
गरबो रमतो जाए‘, ‘पंखिंडा
ओ पंखिडा...‘ जैसे गीतों के
बजते ही हर किसी
के कदम थिरक जाते
हैं। चारों ओर ढोलक की
थाप और संगीत में
गरबों का जो समां
बंधता है, उसे कुछ
घंटों क्या पूरी रात
करने से भी मन
नहीं भरता है। न
सिर्फ गरबा करने वाले
बल्कि देखने वालों की स्थिति भी
यही होती है। जहां
तक नवरात्र में ही गरबा
या डांडिया करने की प्रथा
का सवाल है तो
इसके पीछे मान्यता है
कि कुंभ हिंदू धर्म
के सांस्कृतिक मानस में स्थूल
देह का प्रतीक है।
‘फूटा कुंभ जल जलहि
समाना।’ अर्थात भक्त रुपी कुंभ
एवं गुरु रुपी वह
कुम्हार ‘जो गढ़ि-गढ़ि
काढ़े खोट’.यानी अपने
भीतर छिपे खोट को
ढूढ़ निकाले। इसीलिए नवरात्रि के समय कुंभ
के भीतर दीप रखकर
उसके गिर्द ‘गरबा’ करने का रिवाज
है। क्योंकि दीपशिखा हमेशा ऊपर उठती है।
जबकि चेतना का भी यही
गुण धर्म है। देह
के भीतर चेतना उर्घ्वगामी
हो, वह मूलाधार में
ही न रहे, सहस्नर
तक पहुंचे, सारी सृष्टि को
आत्मवत् पहचाने! यही वजह है
हर गरबा या डांडिया
नाईट में काफी सजे
हुए घट दिखायी देते
हैं। जिस पर दिया
जलाकर इस नृत्य का
आरंभ किया जाता है।
यह घट दीपगर्भ कहलाता
है और दीपगर्भ ही
गरबा कहलाता है। गरबों का
प्रमुख आकर्षण होता है रंग-बिरंगी, चटकीली पोषाकों का। जिसे पहनकर
हर कोई माता की
भक्ति में रमा हुआ
नजर आता है। साथ
ही यह आज के
युवा वर्ग द्वारा अपनी
संस्कृति से जुड़ने का
समय भी है।
सौभाग्य का भी प्रतीक है गरबा
गरबा को सौभाग्य
का भी प्रतीक माना
जाता है। इसीलिए महिलाएं
नवरात्र में गरबा को
नृत्योत्सव के रूप में
मनाती है। इस दौरान
पति-पत्नी हो या अन्य
सभी लोग पारंपरिक परिधान
पहनते हैं। लड़कियां चनिया-चोली पहनती हैं
और लड़के गुजराती केडिया
पहनकर सिर पर पगड़ी
बांधते हैं। नवरात्र पर्व
मां अंबे दुर्गा के
प्रति श्रद्धा प्रकट करने तथा युवा
दिलों में मौज-मस्ती
के साथ गरबा-डांडिया
खेलने और अपनी संस्कृति
से जुड़ने का सुनहरा अवसर
भी है। नवरात्र में
माता का पंडाल सजाकर
युवक-युवतियां पारंपरिक वस्त्र कुर्ता-धोती, कोटी, घाघरा (चणिया)-चोली, कांच और कौड़ियां
जड़ी पोशाक पहन कर पारंपरिक
नृत्य डांडिया और ‘गरबे की
रात आई, गरबे की
रात आई..., सनेडो सवेडो लाल लाल सनेडो‘,
‘अंबा आवो तो रमीये’
गाते हुए गरबा खेलती
है।
अब पूरे देश में होने लगा है गरबा
कुछ साल पहले
तक गरबा केवल गुजरात
व राजस्थान सहित उसके आसपास
के जिलों तक ही सीमित
था, लेकिन अब धीरे-धीरे
पूरे देश में फैल
चुका है। नवरात्र के
दौरान डांडिया नृत्य और गरबा पूरे
नौ दिनों तक प्रदर्शित किया
जाता है। हालांकि आज
भी गुजरात में खेला जाने
वाला गरबा और डांडिया
नृत्य दुनिया भर के बड़े
नृत्य त्योहारों में से एक
हैं। नवरात्र आयी नहीं की
हर तरफ गरबा और
डांडिया की धूम शुरू
हो जाती है। क्या
लड़के, क्या लड़कियां, क्या
बच्चे और क्या बूढ़े...
पारंपरिक अंदाज में सजे हर
उम्र के लोग गरबा
का जमकर लुत्फ उठाते
हैं।
स्वास्थ्य के लिहाज से भी उत्तम है गरबा
चिकित्सकों की मानें तो
आज के भाग-दौड़
भरी जिंदगी में जिनके पास
कसरत का समय नहीं
है उनके लिए माताजी
की भक्ति के साथ-साथ
गरबा खेल कर शरीर
की केलोरी व्यय कर वजन
घटाने का भी उचित
अवसर है। बशर्ते गरबा
खेलते वक्त डिहाइड्रेशन से
बचने के लिए आहार
को संतुलित मात्रा में लिया जाना
चाहिए।
डांडिया रास का भी है अपना महत्व
गुजरात के कुछ हिस्सों एवं यूपी के मथुरा में नवरात्र के दौरान डांडिया-रास भी बेहद लोकप्रिय है। यह अधिकतर पुरुष (उमद विसा) द्वारा किया जाता है। आज इन नृत्यों के व्यावसायीकरण हो जाने के कारण इस नृत्य की वास्तविकता, पारंपरिकता और नाजुक लय, वैकल्पिक रूपों में खोती जा रही है। रास या रसिया बृजभूमि का लोकनृत्य है, जिसमें वसंतोत्सव, होली तथा राधा और कृष्ण की प्रेम कथा का वर्णन होता है। रास अनेक प्रकर का होता है। यह उस रात को शुरु होती है जब श्रीकृष्ण अपनी बॉसुरि बजाते है। उस रात श्रीकृष्ण अपनी गोपियों के साथ बॉसुरि बजाते है। यह नृत्य वृंदावन में अधिक देखने को मिलती है। डांडिया रास नृत्य के कई रूप हैं, लेकिन गुजरात में नवरात्रि के दौरान खासा लोकप्रिय है। इसमें केवल एक बड़ी छड़ी प्रयोग किया जाता है।
रास लीला और डांडिया रास के समान हैं। जगह-जगह आयोजित समारोहों में जहां बड़ी संख्या में लोग गरबा, डांडिया खेलने एवं देखने के लिए आते हैं। वहीं इसकी खासियत है कि इसके लिए धर्म, जात एवं क्षेत्रीय भाव से ऊपर उठकर लोगों को खुले दिल से आमंत्रित किया जाता है। इस कारण इस त्योहार को अनेकता में एकता का प्रतीक भी माना जाता है। इसमें युवक-युवतियां एक दूसरे के करीब लाने में भी अहम भूमिका निभाते है। इस महोत्सव में हर उम्र वर्ग का व्यक्ति अपने भीतर के उल्लास एवं उमंग को बाहर निकालने का प्रयास करता है। बता दें कि गरबा और डांडिया दोनों डांस के दो फार्म्स हैं, जो गुजरात और मुख्यतः गुजरातियों से संबंधित है। इसके बावजूद अब ये दोनों डांस पूरे देशभर में प्रचलित और नवरात्र के दिनों में तो इनकी लोकप्रियता और भी ज्यादा बढ़ जाती है। देश के कोने-कोने में इस मौके पर लोग रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर गरबा और डांडिया में भाग लेते हैं।
गुजरात की पहचान बन चुकी है गरबा
जैसे ‘भांगड़ा’ को पंजाबियत के
एक प्रतीक के तौर पर
देखा जाने लगा है,
उसी तरह गुजरात की
पहचान के साथ ‘गरबा’
भी कुछ वैसे ही
हो चला है। ‘भांगड़ा’
एवं ‘गरबा’ को फिल्मों में
भी जगह मिली है।
कहा तो यह भी
जाता है कि अब
गांव कस्बों में भी डांडियां
के परंपरागत गवैए नहीं मिल
रहे। गरबा के आयोजनों
में फिल्मी गीत या उन
पर आधारित धुने बज रही
हैं। कहीं कोई कलाकार
आता है, सेलिब्रिटी आता
है तो वह अपनी
नई फिल्म के कुछ गीतों
की पंक्तियां सुनाता है।
पहनावा
नवरात्र के अवसरों पर
डांडिया के दौरान पहना
जाने वाला पोशाक स्टाइलिश
के साथ आरामदायक भी
होना चाहिए। इसके पीछे धारणा
यह होती है कि
आपकों गरबा करते समय
कठिनाई ना महसूस हो,
बेहिचक डांस कर सकें।
ऐसे में लहंगा-चोली
से बेहतरीन ऑप्शन भला क्या होगा।
यह मौके के हिसाब
से पारंपरिक भी है और
आरामदायक भी। सबसे बड़ी
बात की हेवी वर्क
के बावजूद इसे कैरी करने
में आपको कोई दिक्कत
नहीं होगी।
साज-सज्जा
मौसम चाहे जितना
बेहतर हो लेकिन भीड़-भाड़ और डांस
के दौरान पसीना आना वाजिब है।
ऐसे में मेकअप के
दौरान बेस वाटरप्रूफ हो
इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए। इससे
पसीने होने पर मेकअप
पर असर नहीं पड़ता।
ग्लॉसी या न्यूड मेकअप
अच्छा होता है। गुलाबी,
पीच या ब्राउन ब्लशर
खूब फबेगा। रात के समय
ब्लशर थोड़ा डार्क रखें
और इसे गालों से
कनपट्टी तक ब्रश से
लगाएं। ब्लशर आपके स्किन टोन
के हिसाब से ही हो।
लिपस्टिक के बजाय लिप
पेंसिंल लाइन के बाद
लिपग्लॉस के इस्तेमाल से
लुक अधिक ब्राइट दिखेगा।
ट्रैडिशनल टच के लिए
स्वरोस्की वाली पतली या
छोटी बिंदी लगाएं।
आंखों का मेकअप
कोई भी मेकअप
तब तक पूरा नहीं
है जब तक आंखों
के मेकअप को तरजीह न
दी जाए। डांडिया नाइट
पर खास लुक के
लिए आंखों पर पर्पल, पिंक,
ग्रीन, ब्लू या कॉपर
शेड के आइशैडो ट्राइ
कर सकती हैं जो
पार्टी लुक केलिए परफेक्ट
हैं। आइशैडो के शेड्स ड्रेस
से मैच करता हो
इसका ख्याल रखना होगा। आइब्रो
के ठीक नीचे आप
स्पार्कल्स भी लगा सकती
हैं। इससे रात में
मेकअप ब्राइट लगेगा। चाहें तो आंखों के
नीचे कलरफुल लाइनर लगाकर स्मज करें, सिर्फ
इतने से ही आपकी
आंखें आकर्षक लगेंगी। लाइनर या काजल को
बाहर की ओर निकालकर
लगाने से भी आपका
लुक चेंज हो जाएगा।
फैंटेसी मेकअप
आजकल बैकलेस, क्रॉसलेस
या हाल्टर लुक वाली चोली
का काफी चलन है।
इसमें पीठ, गर्दन आदि
का काफी एक्सपोज होता
है। कुछ अलग दिखने
की चाह है तो
आप अपने बैक या
गर्दन के खुले भाग
पर फैंटेसी मेकअप भी करवा सकती
हैं। इसमें मेंहदी, स्पार्कल्स और कई रंगों
के प्रयोग से तरह-तरह
की कलाकृतियां बनवा सकती हैं।
सिके अलावा, चूडियों की जगह भी
इनका प्रयोग आकर्षक लगेगा।
हेयरस्टाइल
आमतौर पर लड़कियां खुले
बाल ज्यादा पसंद करती हैं
पर आप अलग लुक
के लिए अपनी हेयरस्टाइल
के साथ थोड़े बदलाव
जरूर करें। बालों के आगे भाग
की कई चोटियां गुथ
लें और पीछे से
प्लेन चोटी या जूड़ा
बनाएं या फिर आगे
के बालों को कर्ल कराकर
निकाल लें और पीछे
चोटी रखें। चाहें तो चेटियों में
मोती या स्वरोस्की वाले
पिन क्लच करें। डांडिया
नाइट पर यकीनन सिर्फ
आप ही आप दिखेंगी।
पारंपरिक पहनावा
नौ दिनों की नवरात्रि त्योहार शुरु होते ही पूरे भारत में गरबा की धूम मच जाती है। परंपरागत परिधान पहने महिलाएं-पुरुष, युवा, बच्चे सभी गरबा करते दिखाई जाते है। शारदीय नवरात्रि में युवा मन सबसे ज्यादा प्रसंन नजर आता है। क्योंकि इस दौरान देवी पूजा के साथ-साथ गरबों के जरिए भक्ति की परंपरा हर कहीं झलकती है और साथ में दिखाई देती है पारंपरिक परिधानों की वह रौनक, जिसमें हर कोई खोया-खोया नजर आता है। डांडिया के दौरान पहना जाने वाला पोशाक स्टाइलिश के साथ आरामदायक भी होना चाहिए। इसके पीछे धारणा यह होती है कि आपकों गरबा करते समय कठिनाई ना महसूस हो, बेहिचक डांस कर सकें। ऐसे में लहंगा-चोली से बेहतरीन ऑप्शन भला क्या होगा। यह मौके के हिसाब से पारंपरिक भी है और आरामदायक भी। सबसे बड़ी बात की हैवी वर्क के बावजूद इसे कैरी करने में आपको कोई दिक्कत नहीं होगी।
ज्वैलरी का विशेष ध्यान रखें
गरबों में पारंपरिक परिधानों के साथ हैवी ज्वैलरी का कॉम्बिनेश नही ज्यादा बेस्ट होता है। हालांकि इसके लिए तैयारी थोड़ा दिन पहले से ही करनी होती है। क्योंकि ड्रेस के साथ सही मेकअप व ज्वैलरी ना होने से आपका पूरा गेटअप बिगाड़ सकता है। मगर ध्यान यह रखे कि ज्वैलरी लुक में हैवी होना चाहिए, वेट में नहीं। नही ंतो आपकी मूवमेंट बिगड़ सकती है। कोशिश करें कि पर्ल और स्टोन की ज्वैलरी ज्यादा प्रयोग करें। ये दिखने में हैवी होंगी लेकिन इन्हें आसानी से कैरी किया जा सकता है।
पाश्चात्य संस्कृति की छाया
बेशक, बदले परिवेश में नई संस्कृति और बाजार का कुछ असर गरबा उत्सव पर भी पड़ा है। कहीं देर रात चलने वाले इन गरबा उत्सवों को युवा अपनी स्वच्छंदता के तौर पर देखते है तो कहीं परंपरा का निवर्हन। लेकिन गरबा नृत्य गीत उत्सवों के पीछे एक गहरा पारंपरिक भाव है। यह मां अंबे की आराधना का उत्सव है। आज भी नवरात्र में गरबा हमारे जीवन का एक उल्लास बना है। कच्चे घड़े को फूल पत्तियों से सजाकर और दीप जलाकर लोग गरबा नृत्य गीतों करते हैं। गरबा नृत्यों में सौंदर्य और आभा है तो इसके परंपरागत गीत मन में समा जाते हैं। ताली, चुटकी, खंडरी, डांडियां मंजीरा ढोल के साथ गुजराती पारंपरिक पोशाक में युवक युवतियां झूम उठते हैं। मीठी लहक में कोई गा रहा होता है, ढोलीड़ा ढोल धीमो बगाड़। कहीं मधुर स्वर गूंजते हैं, पंखिड़ा तू उड़ न जावे माता के दरबार में। जहां तक डंडी के उपयोग का सवाल है तो कहते हैं हजारों साल पूर्व जब जंगल में बांस के पेड़ टकराते थे तो उनसे मीठी ध्वनि निकलती थी। इसी मीठी ध्वनि को सुन कर इन बांसों से डांडियां बनाए गए।
समय के साथ गरबा के आयोजनों ने अपना स्वरूप बदला। यह सच है कि पहले यह केवल देवी की आराधना का ही प्रतीक था। लेकिन जैसे सारे उत्सव आयोजन बदले, गरबा डांडिया भी बदलने लगा। गरबा के लिए कीमती परिधान, ऊंचे पंडाल, सेलिब्रिटी ये सब बहुत जरूरी हो गया। रंगबिरंगी आतिशबाजी और लहराती रोशनी में उन चार दियों की लौ का पता ही नहीं चलता जिन्हें श्रद्धा से मां अंबे के आगे रखा जाता है। गुजरात की मीठी बोली में जो गरबा डांडिया गीत होते थे उनकी जगह फिल्मी पेरोडी भी सुनाई देने लगी। जो गरबा आंतरिक मन को संतोष देने के लिए था, वह टीवी में किसी फिल्मी आयोजन की तरह नजर आने लगा। गरबा डांडिया के आयोजनों में जो समरसता थी वह भी खत्म होती दिखने लगी है।
सोसाइटियों के भी अपने अपने गरबा आयोजन होने लगे। कई जगह तो महंगे टिकट भी लगने लगे। अच्छा खासा व्यवसाय शुरू हो गया। मैं तो भूल चली बाबुल का देश जैसा गीत गरबा का प्रतीक गीत था। फिल्मों में आज के समय में गरबा के लिए ऐसी धुन नहीं बनती। आम तौर पर पुरुष और महिलाये रंगीन वेश-भूषा पहने हुए गरबा और डांडिया का प्रदर्शन करते हैं। लडकियां चनिया-चोली पहनती हैं और साथ मे विविध प्रकार के आभूषण पहनती हैं, तथा लडके गुजराती केडिया पहन कर सिर पर पगडी बांधते हैं। प्राचीन काल मे लोग गरबा करते समय सिर्फ दो ताली बजाते थे, लेकिन आज आधुनिक गरबा में नई तरह की शैलियों का उपयोग होता है, जिसमें नृत्यकार दो ताली, छः ताली, आठ ताली, दस ताली, बारह ताली, सोलह तालियां बजा कर खेलते हैं। गरबा नृत्य सिर्फ नवरात्री के त्योहार में ही नहीं अब शादी-ब्याह के मौकों व अन्य खुशी के अवसरों पर भी किया जाने लगा है। कुल मिलाकर भले ही इन आयोजनों के तरीके बदल गए हों, लेकिन इनकी महत्ता आज भी उन्हीं दिनों में है जब पहले के जैसे नवरात्र में हुआ करती थी। पहले भी लोग जिस जोश और रोमांच के साथ ऐसे मौकों पर शामिल होते थे, वही जोश और रोमांच आज भी कायम है। आज भी वहीं रौनक मां के इन नौ दिनों में डांडिया और गरबा रास में दिखाई देती है।
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