मझवा : बटेंगे तो कटेंगे’ वीएस ’जुड़ेंगे तो जीतेंगे’, के बीच छिड़ी है जंग
विधानसभा
उपचुनाव
मझवा
में
एक
तरफ
सियासी
दलों
में
मनोहर
के
बावजूद
बगावत
बुलंद
है,
तो
दुसरी
तरफ
सपा
और
बीजेपी
में
जुड़ेंगे
तो
जीतेंगे...
’बंटेंगे
तो
कटेंगे’
की
नारे
के
बीच
संग्राम
छिड़ा
है।
बाजी
किसके
हाथ
लगेगी
ये
तो
नतीजे
बतायेंगे,
लेकिन
भाजपा
व
सपा
इसी
नारों
के
बीच
मतदाताओं
को
रिझाने
में
जुटी
है।
जबकि
बसपा
दलित-
ब्राह्मण
समीकरण
के
सहारे
मैदान
मारने
की
आस
लगाएं
बैठी
है।
ऐसे
में
बड़ा
सवाल
तो
यही
है
लगातार
तीन
बार
से
जीत
रही
भाजपा
लगायेगी
जीत
की
हैट्रिक
या
विपक्ष
की
रणनीति
कुछ
कर
पायेगी
कमाल?
फिरहाल,
बसपा
की
मौजूदगी
से
भाजपा-सपा
के
उम्मींदवारों
के
बीच
इस
बार
कड़ा
मुकाबला
है।
दोनों
तरफ
से
वादों
और
इरादों
की
झड़ी
लगी
है।
लेकिन
मझवा
के
भइसा
गांव
निवासी
भैरव
दुबे
की
मानें
तो
जीत
उसी
की
होगा,
जो
जातिय
गुणा-गणित
के
सांचे
में
फिट
बैठेगा।
जबकि
कछवा
बाजार
के
मो
याकुब
कहते
जड़ेंगे
तो
जीतेंगे
के
साथ
इस
इलाके
में
अखिलेश
का
पलड़ा
भारी
है।
हालांकि
उन्हीं
के
बगल
में
खड़े
रामजीयावन
गुप्ता
का
कहना
है
कि
वोटबैंक
की
समीकरण
के
बीच
श्रीराम
मंदिर,
राष्ट्रवाद,
विकास
व
योगी
का
बटेंगे
तो
कटेंगे
का
नारा
भी
उनके
जेहन
में
है।
कटका
के
राजेन्द्र
बिन्द
व
रामापुरा
के
रामखेलवावन
पटेल
कहते
है
इस
बार
जाति
नहीं
विकास
व
महिलाओं
की
सुरक्षा
के
साथ
ही
योगी
के
त्वरित
न्याय
यानी
बुलडोजर
के
नाम
पर
वोट
पड़ेगा।
यह
अलग
बात
है
कि
इस
चुनाव
में
बेराजेगारी,
महंगाई
तो
बड़ा
मुद्दा
है
ही
बुनकरों
का
पलायन
व
जनप्रतिनिधियों
द्वारा
किसी
फैक्ट्री
न
लगवाने
की
टीस
उन्हें
सता
रहा
है
सुरेश गांधी
उत्तर प्रदेश के नौ सीटों
पर हो रहे विधानसभा
उपचुनाव के परिणाम पर
पूरे देश की निगाहें
हैं. उसमें मझवा विधानसभा की
चर्चा कुछ ज्यादा ही
है। कारण यह क्षेत्र
न सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संसदीय
सीट वाराणसी से लगा है
तो दूसरी तरफ जीत की
हैट्रिक लगा चुकी अनुप्रिया
पटेल की संसदीय क्षेत्र
की विधानसभा सीट है। खास
यह है कि मुख्यमंत्री
योगी आदित्यनाथ इस चुनाव की
जीत के लिए अपनी
प्रतिष्ठा लगा दी है।
लेकिन बीजेपी के लिए मुश्किल
यह है कि बिन्द
ब्राह्मण बाहुल्य वाले क्षेत्र में
2017 व 2002 विधानसभा चुनावों को छोड़ दें
तो उसके बाद यह
इलाका उसके लिए सुकून
देने वाला नहीं रहा
है. खास यह है
कि पारंपरिक रुप से बसपा
की सीट माने जाने
वाले इस सीट पर
सपा को भी कभी
सफलता नहीं मिली है।
हालांकि, इस बार सपा
अपने दांव से खाता
खोलने की जुगत में
लगी हुई है. इसके
अलावा उसका माइनस प्वाइंट
यह है कि इक्का-दुक्का को छोड़कर चुनाव
मैदान में उतरे कोई
बागी मानने को तैयार नहीं
हैं तो दुसरी तरफ
टिकट न मिलने से
नाराज कई सपा व
बसपा के बागी भी
निर्दलीय मैदान में उतरे हैं।
इसी धमाचौकड़ी के बीच मां
विंध्यवासिनी के दरबार से
सटे इस क्षेत्र में
टक्कर दो देवियां के
बीच है, से इनकार
नहीं किया जा सकता।
भाजपा की पूर्व विधायक
सुचिस्मिता मौर्य के सामने अपना
पहला चुनाव लड़ रहीं तीन
बार विधायक और भाजपा से
भदोही के सांसद रहे
रमेश बिंद की बेटी
डा. ज्योति बिंद से है।
2024 के लोकसभा चुनाव में मिर्जापुर से
सपा प्रत्याशी रहे रमेश बिंद
भले ही हार गए
लेकिन उन्होंने अपना दल-एस
प्रमुख अनुप्रिया पटेल को जोरदार
टक्कर दी थी। यह
अलग बात है कि
भाजपा अपने विकास कार्यों
की बदौलत कामयाबी हासिल करने का दावा
कर रही है। उसके
पास अपना दल-एस
और निषाद पार्टी का साथ भी
है। सुचिस्मिता खुद 2017 में यहां से
विधायक बनी थीं, वह
भी तीन बार से
जीतते आ रहे रमेश
बिंद को हराकर। 2022 में
डा. विनोद बिंद को भाजपा
के सहयोगी दल निषाद पार्टी
से जीत मिली थी।
विनोद बिंद अभी भाजपा
से भदोही के सांसद हैं
और उनके इस्तीफे के
कारण यहां उपचुनाव हो
रहे हैं। यानी 2017 से
भाजपा को लगातार यहां
पर सफलता मिली है। बसपा
ने ब्राह्मण, दलित, बिंद बहुल इस
सीट पर दीपक तिवारी
उर्फ दीपू तिवारी पर
भरोसा जताया है। बता दें,
मझवां विधानसभा का अधिकांश इलाका
ग्रामीण परिवेश का है। यहां
एक नगर पंचायत और
तीन विकासखंड हैं। इस विधानसभा
क्षेत्र में सबसे बड़े
मुद्दों की बात किया
जाए तो किसानों के
लिए खेतों तक सिंचाई के
लिए पानी गंगा से
लिफ्ट करके पहुंचाने की
चुनौती है। इसके अलावा
ओवरब्रिज न होने से
कई रेलवे क्रासिंगों पर आए दिन
हादसे होते रहते हैं।
हर चुनाव में नेताओं से
ओवरब्रिज का आश्वासन तो
मिलता है, लेकिन पूरा
नहीं होता।
1996 में पहली बार खिला था कमल
सुचिस्मिता के सामने अपने
श्वसुर रामचंद्र मौर्या की विरासत को
बचाने की चुनौती भी
है। मझवां की जनता ने
1996 में पहली बार रामचंद्र
मौर्य को विधानसभा भेजकर
यहां कमल खिलाया था।
जबकि 2017 में भाजपा की
सुचिस्मिता मौर्य ने बसपा के
रमेश बिन्द को हराकर अपना
परचम लगहराया। यह अलग बात
है कि पाला बदलवाने
में कामयाब रही भाजपा ने
बसपा के रमेश बिंद
को 2019 में भदोही लोकसभा
सीट पर उतारकर जीत
हासिल की थी। 2014 के
लोकसभा चुनाव में टिकट नहीं
मिलने पर अंतिम समय
में रमेश बिन्द साइकिल
पर सवार होकर मिर्जापुर
से चुनाव लड़ा और हार
गए। अब उनकी बेटी
ज्योति बिंद सपा से
मझवां उपचुनाव में अपना किस्मत
आजमा रही हैं। डा.
ज्योति के सामने पिता
की राजनीतिक प्रतिष्ठा को बहाल करने
की चुनौती है। विश्लेषकों का
कहना है कि बसपा
अपने कोर वोटरों के
साथ ब्राह्मण मतदाताओं को लुभा पाई
तो दीपक तिवारी भी
भाजपा-सपा को कड़ी
टक्कर दे सकते हैं।
बसपा ने वैसे भी
सबसे पहले यहां अपना
प्रत्याशी घोषित कर दिया था।
बसपा को 5 बार मिली जीत, सपा का नहीं खुला खाता
मझवां विधानसभा सीट 1952 में अस्तित्व में आई। लंबे समय तक आरक्षित रही यह सीट 1974 में सामान्य सीट हो गई। 1952 से 1960 तक कांग्रेस के बेचन राम, 1962 में भारतीय जनसंघ के राम किशुन, 1967 व 1969 में कांग्रेस के बेचन राम, 1974 में कांग्रेस के रुद्र प्रसाद सिंह, 1977 संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के शिवदास, 1980 व 1985 में कांग्रेस के लोकपति त्रिपाठी चुनाव जीते थे। 1989 में जनता दल के रुद्र प्रसाद, 1991 व 1993 में बसपा के भागवत पाल, 1996 में भाजपा के रामचंद्र मौर्या, 2002 से 2017 तक बसपा के डा. रमेश चंद बिंद, 2017 में भाजपा के टिकट पर सुचिस्मिता मौर्या ने चुनाव जीता। 2022 में बीजेपी की सहयोगी निषाद पार्टी के विनोद बिंद यहां से विधायक बने।
जातीय समीकरण
कुल मतदाता 3,85,548 है।
इसमें पुरुष मतदाता 2,03,281 व महिला मतदाता
1,82,236 है। इनमें 72 हज़ार बिंद, 68
हजार दलित, 65 हज़ार ब्राह्मण,
38 हज़ार मौर्य, 28
हज़ार मुस्लिम, 26 हज़ार पाल, 25
हज़ार यादव, 20 हज़ार राजपूत,
16 हज़ार पटेल वोटर्स हैं.
यहां बिंद, ब्राह्मण और दलित वोट
जीत हार में सबसे
बड़ी भूमिका निभाते हैं. फ़िलहाल मझवां
में लड़ाई बड़ी है.
एक तरफ़ ये सीट
एनडीए की एकजुटता का
प्रमाण साबित हो सकती है.
वहीं अगर सपा ने
यहां से अपना खाता
खोल लिया, तो पीडीए फ़ॉर्मूला
मिर्ज़ापुर में भी चल
निकल सकता है. यही
वजह है कि बीजेपी
और उसकी सहयोगी पार्टी
अपना दल (एस) ने
जीत सुनिश्चित करने के लिए
पूरी ताकत झोंक दी
है. केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल अपनी सक्रियता
से क्षेत्रीय मतदाताओं को लुभाने में
जुटी हैं. वह गांव-गांव जा कर
जनसंपर्क कर बीजेपी प्रत्यासी
को जीतने की अपील कर
रही हैं.
क्या कहते है मतदाता
मझवां और पहाड़ी ब्लॉक
में ग्राम कहुआ बेलवन, नगहट,
जरहा और सरैया व
रमईपट्टी में बातचीत के
दौरान राम चरित्र, बुधई
व इंद्रजीत ने कहा कि
सपा और भाजपा के
अलावा बसपा को हल्के
में लेना बड़ी भूल
होगी. जबकि नीतीश गिरी
ने कहा कि मझवां
में सबसे अधिक ब्राह्मण
और बिंद हैं. बसपा
ने ब्राह्मण को टिकट दिया
है. अगर दलित और
ब्राह्मण एक साथ आएं
तो परिणाम बदला नजर आएगा.
रामचंदरपुर के मेवालाल मिश्र,
अहिबनवा के रामजीत गुप्ता
व रत्नाकर दुबे ने कहा
कि सपा हो या
बसपा मझवां में जीत बीजेपी
की होने जा रही
है. वजह विकास के
साथ शासन में विश्वास
है. प्रत्याशी कोई भी रहे,
लेकिन बीजेपी का पलड़ा भारी
है. परसड़ा के किशोरीलाल ने
कहा कि मझवां में
बिंद और ब्राह्मण प्रत्याशी
के बीच ही टक्कर
होती है. ज्यादातर बार
उपविजेता ब्राह्मण रहे हैं. इस
वजह से बसपा को
हल्के में लेना बड़ी
भूल हो सकती है.
सेमरी व करसड़ा के
जीतेन्द्र दुबे व रमेश
यादव ने बताया कि
मझवां में चुनाव के
वक्त विकास से ज्यादा जाति
का मुद्दा हावी रहता है.
लोकसभा चुनाव में ऐसा ही
हुआ. पीडीए कार्ड से जीत का
अंतर दो लाख से
37 हजार पहुंच गया. इस बार
मझवां में सपा मजबूत
नजर आ रही है.
हो सकता है कि
उपचुनाव में सपा ऐतिहासिक
प्रदर्शन करे. लोकसभा चुनाव
में भी सपा प्रत्याशी
को मझवां में कुछ ही
मतों से पीछे थे.
इसलिए सपा मजबूत नजर
आ सकती है. गोतवा
के नरोत्तम दूबे ने कहा
कि मझवां में सपा हो
या बसपा हो. उपचुनाव
में सब साफ हो
जाएंगे. सिर्फ बीजेपी ही यहां से
जीत सकती है. हर
बार पीडीए कार्ड नहीं खेला जा
सकता है. कटका के
जुगुनू उपाध्याय ने कहा कि
अगर सपा और बसपा
जीत जाएगी तो विधायक यह
कहकर काम नहीं करेंगे
कि हमारी सरकार नहीं है. सत्ताधारी
दल के विधायक होंगे
तो कुछ काम
जरुर कराएंगे. जबकि मझवा के
खेतईराम कहते वोटबैंक की
समीकरण के बीच श्रीराम
मंदिर, राष्ट्रवाद, विकास व मोदी लहर
तो है ही मां
विन्ध्यवासिनी विश्वविद्यालय, विसुन्दरपुर का मेडिकल कालेज,
मॉ विन्ध्यवासिनी कॉरीडोर, 6 लेन ओवरब्रिज, इंडियन
ऑयल कारपोरेशन (आईओसी) का पेट्रोलियम डिपों,
रामनगर-टिंगरामोड़ ओवरब्रिज जैसे विकास कार्य
भी उनके जेहन में
है। कछवा के सलीम
अंसारी कहते है नफरत
की राजनीति उन्हें डराती है।
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