Monday, 2 December 2024

दिव्यांगता को नहीं बनने दें ‘जीवन का कमजोरी’

दिव्यांगता को नहीं बनने देंजीवन का कमजोरी’ 

संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार दुनिया में 1.3 अरब से अधिक लोग विकलांग की श्रेणी में है, जो वैश्विक आबादी का 16 फीसदी हिस्सा है। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में विकलांग लोगों की संख्या 2.68 करोड़ थी. यह देश की कुल आबादी का 2.21 प्रतिशत था. विकलांग लोगों की आबादी में पुरुषों की संख्या 12.6 मिलियन और महिलाओं की संख्या 9.3 मिलियन है. खास यह है कि दिव्यांगता को अक्सर बांधा के रुप में देखा जाता है, लेकिन भारत ही नहीं दुनियाभर में हजारों ऐसे विकलांग है, जो दिव्यांगता के बावजूद अपनी विकलांगता को खुद पर हावी नहीं होने दिया। तमाम बाधाओं चुनौतियों से निपटते हुए और विपरीत हालात में अपनी प्रतिभा से सफलता हासिल की है। उन्होंने दिव्यांगता को कभी अपनी कमजोरी नहीं माना। उन्होंने अपनी प्रतिभा मेहनत से सिर्फ सफलता हासिल की, बल्कि दुनियाभर में प्रेरणस्रोत बनें। प्रस्तुत है सुहास एल यथिराज आइएस अफसर जैसी कई हस्तियों की सीनियर रिपोर्टर सुरेश गांधी की बातचीत पर आधारित विस्तृत रिपोर्ट, जिन्होंने विकलांगता के बावजूद अपनी कड़ी मेहनत, जुनून, दृढ़ संकल्प और दुसरों की मदद करने की इच्छाशक्ति बुलंद हौसलों के आगे विकलांगता को मात देते हुए लोगों के लिए प्रेरणा है 

सुरेश गांधी

कभी-कभी हम अपनी कमजोरी को बहाना बना लेते हैं, तो कभी-कभी हम अपनी असफलताओं के लिए किस्मत को दोष देते हैं. कुछ ही लोग होते हैं जो अपनी खामियों को ताकत में बदल सकते हैं, उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को छू सकते हैं और दूसरों के लिए प्रेरणा का काम कर सकते हैं. दिव्यांग होने के बावजूद एक नहीं सैकड़ों ऐसा नाम आज भी सुर्खियों में है, जिन्होने अपनी कमजोरी को असफलता का कारण नहीं बनने दिया। उन्हीं में से एक है भारतीय बैडमिंटन खिलाड़ी एवं आईएएस सुहास एल यथिराज जिन्होंने तमाम बाधाओं के बावजूद सिर्फ देश की सबसे कठिन परीक्षा पास की, बल्कि आईएएस अधिकारी रहते हुए उन्होंने अपनी मेहनत और लगन से टोक्यो पैरालंपिक में सिल्वर मेडल अपने नाम किया है. वे ओलंपिक में पदक जीतने वाले देश के पहले डीएम हैं. सुहासुहास एलवाई का जन्म कर्नाटक के शिमोगा में हुआ. जन्म से ही दिव्यांग (पैर में दिक्कत) है। उनकी मानें तो रास्ते में कई कठिनाइयां, बाधाएं आईं, लेकिन वे डटे रहे. उन्होंने अपनी कमजोरी को अपनी असफलता का कारण नहीं बनने दिया. मार्च 2018 में, मेन्स सिंग्ल कैटेगरी में गोल्ड मेडल जीता था. वह वाराणसी में दूसरी राष्ट्रीय पैरा-बैडमिंटन चैंपियनशिप में नेशनल चैंपियन बने. उनके पिता एक सरकारी कर्मचारी थे, उन्हें यात्रा करनी पड़ती थी और उनके साथ रहना पड़ता था क्योंकि उनके पिता अलग अलग जगहों पर तैनात थे.  

उन्होंने अपनी ज्यादातर माध्यमिक पढ़ाई के लिए कर्नाटक के शिवमोग्गा में डीवीएस इंडिपेंडेंट कॉलेज से की. 2004 में उन्होंने कर्नाटक के सुरथकल में राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान से कंप्यूटर साइंस और इंजीनियरिंग स्ट्रीम में फर्स्ट डिवीजन के साथ पास किया. उन्होंने खुद को कभी दिव्यांग नहीं देखा। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुहास ने खासी कामयाबी हासिल की है. 2016 में चीन में आयोजित एशियन चैंपियनशिप में पुरुषों के एकल स्पर्धा में उन्होंने स्वर्ण पदक जीता था. इस टूर्नामेंट में वे पहले गोल्ड जीतने वाले नॉन रैंक्ड खिलाड़ी थे. सुहास 2017 में तुर्की में आयोजित पैरा बैडमिंटन चैंपियनशिप में भी.पदक जीत चुके हैं. उन्होंने कोरोना से पहले 2020 में ब्राजील में गोल्ड जीता था. सिल्वर जीतने के बाद खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें बधाई दी थी। मतलब साफ है सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता. इसके लिए लगन और मेहनत करनी पड़ती है. लेकिन जब कामयाबी मिलती है. तो उसका शोर दूर तक सुनाई देता है. और संघर्षों के उन घावों पर सफलता मरहम बन जाती है

प्रांजल पाटिल देश की पहली दृष्टिबाधित आईएएस अधिकारी हैं। महाराष्ट्र की उल्लासनगर की रहने वाली प्रांजल पाटिल की आंखों की रोशनी बचपन में ही चली गई थी। दृष्टिबाधित होने के बादजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की और यूपीएससी की तैयारी भी की। उन्होंने पीएचडी और एमफिल की डिग्री भी हासिल की है। उन्होंने बिना कोचिंग के ही यूपीएससी की तैयारी की। साल 2017 में उन्होंने 124वीं रैंक के साथ यूपीएससी पास कर आईएएस अफसर बनीं। दिल्ली के एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखने वाले सम्यक जैन ने अपने दूसरे प्रयास में यूपीएससी की परीक्षा पास की थी। सम्यक बचपन से दृष्टिबाधित नहीं थे, 20 की उम्र में उनकी आंखों की रोशनी कम होना शुरू हुई और फिर धीरे-धीरे उन्हें सबकुछ दिखना ही बंद हो गया। उन्होंने ऑडियो बुक की मदद से यूपीएससी की तैयारी की। अपने दूसरे प्रयास में सम्यक ने सातवीं रैंक के साथ यूपीएससी की परीक्षा पास कर आईएएस अधिकारी बनें। दृष्टिबाधित होने के बावजूद आयुषी डबास ने यूपीएससी की परीक्षा पास की। हालांकि, उन्होंने यह उपलब्धि अपने पांचवें प्रयास में हासिल की थी। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत एक शिक्षिका के तौर पर की थी। दृष्टिबाधित होने के कारण उन्हें बच्चों को पढ़ाने में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। आयुषी ने इसी के साथ यूपीएससी की तैयारी जारी रखी। साल 2021 में उन्होंने कड़ी मेहनत के दम पर 48वीं रैंक के साथ यूपीएससी की परीक्षा पास कर आईएएस अफसर बनीं। आईएएस अखिला बीएस की सफलता भी समाज के लिए मिसाल बन चुकी है। साल 2000 में एक दुर्घटना में उन्होंने अपना दाहिना हाथ खो दिया था। इस दुर्घटना के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और अपनी पढ़ाई जारी रखी। उन्होंने दूसरे हाथों से लिखना शुरू किया और अपनी पढ़ाई पूरी की। यूपीएससी की परीक्षा के लगातार लिखना उनके लिए एक बड़ी चुनौती थी, लेकिन उन्होंने इस चुनौती का भी डटकर सामना किया और साल 2020 और 2021 में असफल होने के बाद तीसरे प्रयास में 760वीं रैंक के साथ आईएएस बनीं। महज पांच वर्ष की उम्र में डायरिया की वजह से आईएएस अजीत कुमार ने अपनी आंखो की रोशनी खो दी। दृष्टिबाधित होने के बादजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। साल 2008 में अजीत यूपीएससी की परीक्षा में शामिल हुए और 208 वीं रैंक हासिल की और आइएएस बने। 

आईएएस सूरज तिवारी ने साल 2017 में एक ट्रेन हादसे में अपने दोनों पैर, दाहिने हाथ और बाएं हाथ की दो उंगलियां खो दिया था। इस हादसे के बाद सूरज ने हार नहीं मानी। उन्होंने साल 2018 जेएनयू दिल्ली में बीए में दाखिला लिया। साल 2021 में बीए की डिग्री हासिल करने के बाद उन्होंने एमए में दाखिला लिया। इसी के साथ वह यूपीएससी की तैयारी में जुट गए। उन्होंने अपने पहले प्रयास में ही 917वीं रैंक के साथ यूपीएससी की परीक्षा पास कर आईएएस अधिकारी बनें। शारीरिक रूप से अक्षम होने के बावजूद इरा सिंघल ने यूपीएससी की परीक्षा पास कर आईएएस अफसर बनीं। मेरठ में जन्मीं इरा ने दिल्ली के नेताजी सुभाष इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से ग्रेजुएशन की डिग्री और फैकल्टी ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज से एमबीए की डिग्री हासिल की। अपने बचपन का सपना पूरा करने के लिए इरा यूपीएससी की तैयारी में जुट गईं। साल 2014 में इरा ने यूपीएससी की परीक्षा दी और पहली रैंक हासिल की। यूपीएससी 2014 की टॉपर इरा आईएएस अधिकारी बनकर समाज के लिए एक प्रेरणा बनकर उभरीं। विश्व टी20 ब्लाइंड क्रिकेट चैंपियन शेखर नाइक जन्म से ही दृष्टिहीन थे। वे टीम इंडिया के कप्तान रहे और उन्होंने फाइनल मैच में 58 गेंदों पर 134 रन बनाकर देश को इंग्लैंड में पहली बार टी20 विश्व कप जिताया है। अरुणिमा सिन्हा 2011 में गुंडों के एक समूह ने चलती ट्रेन से नीचे धकेल दिया था। इस घटना के कारण उन्हें अपना पैर खोना पड़ा। दो साल बाद, सिन्हा ने शिखर पर पहुंचने वाली पहली विकलांग महिला के रूप में शक्तिशाली माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई की। पूर्व राष्ट्रीय वॉलीबॉल और फुटबॉल खिलाड़ी सिन्हा उत्तर प्रदेश में केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल में हेड कांस्टेबल के रूप में काम करती हैं। उन्हें 2015 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया था। उन्होंने पहाड़ पर चढ़ने में 52 दिन लगाए और शीर्ष पर एक नोट छोड़ा, जिसमें लिखा था।

साईं प्रसाद विश्वनाथन की उपलब्धियों को शब्दों में बयां करना मुश्किल है। बचपन में ही उनकी पीठ के निचले हिस्से में संवेदना खत्म हो गई थी। हालांकि, उन्होंने चैतन्य भारती इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से स्वर्ण पदक जीता, विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय से कंप्यूटर विज्ञान में मास्टर डिग्री प्राप्त की और हैदराबाद में इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस से बिजनेस की डिग्री भी प्राप्त की। वह युवा राजदूत के रूप में अंटार्कटिका जाने वाले पहले एशियाई भी हैं। उन्हें 14,000 फीट से स्काईडाइव करने वाले पहले विकलांग भारतीय के रूप में लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में शामिल किया गया था। हैरी बोनिफेस प्रभु को चार साल की उम्र में लम्बर पंक्चर की बीमारी हो गई थी, जिसके कारण उन्हें जीवन भर के लिए क्वाड्रिप्लेजिक हो जाना पड़ा। हालांकि, उन्होंने बीमारी से लड़ाई लड़ी और भारत के सबसे सफल क्वाड्रिप्लेजिक टेनिस खिलाड़ी बन गए। उन्होंने 1978 की विश्व चैंपियनशिप में पदक जीता और भारत में खेल और सामाजिक कल्याण में उनके योगदान के लिए 2014 में पद्म श्री पुरस्कार प्राप्त किया। प्रीति श्रीनिवासन जब अंडर 19 तमिलनाडु महिला क्रिकेट टीम की कप्तान थीं, तब वह किसी भी भारतीय महिला क्रिकेटर के लिए एक खतरनाक प्रतिद्वंद्वी थीं। उन्हें आठ साल की उम्र में टीम के लिए चुना गया था, जो कि अधिकांश महत्वाकांक्षी क्रिकेटरों के लिए अकल्पनीय उपलब्धि थी। तैराकी दुर्घटना के कारण, प्रीति ने किशोरावस्था में अपनी गर्दन के नीचे से मोटर सेंस खो दिया। उनका क्रिकेट करियर स्तब्ध रह गया, हालाँकि, उन्होंने अपनी खेल भावना को नहीं छोड़ा। वह अब सोलफ्री नामक एक कल्याणकारी संगठन चलाती हैं। गिरीश शर्मा बैडमिंटन जगत में एक ऐसा नाम है जिन्हें लोगएक पैर वाला वंडर बॉय कहते हैं। सिर्फ़ बायां पैर होने के बावजूद गिरीश ने कई अंतरराष्ट्रीय बैडमिंटन प्रतियोगिताएं जीतकर भारत को गौरवान्वित किया है। वह वर्तमान में भारत में शारीरिक रूप से अक्षम एथलीटों के लिए पुरुष एकल और युगल दोनों श्रेणियों में दूसरे स्थान पर है। उन्होंने पैरालिंपिक एशिया कप फॉर डिसेबल्ड में स्वर्ण पदक जीता है। 

गूंगा पहलवानके नाम से मशहूर वीरेंद्र ने वर्ष 2005 और 2013 में अंतर्राष्ट्रीय डेफलिम्पिक्स में भारत को गौरवान्वित किया है। मूक-बधिर एथलीट ने वर्ष 2005 के मेलबर्न और 2013 के बुल्गारिया डेफलिम्पिक्स- बधिर एथलीटों के लिए अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीते हैं। यह उपलब्धि हासिल करने वाले वे एकमात्र भारतीय एथलीट हैं। उन्होंने वर्ष 2008 में आर्मेनिया में विश्व बधिर कुश्ती चैम्पियनशिप में रजत पदक, वर्ष 2009 में ताइपे में डेफलिम्पिक्स में कांस्य पदक और वर्ष 2012 में बुल्गारिया में विश्व बधिर कुश्ती चैम्पियनशिप में एक और कांस्य पदक जीता है। ग्रेनो वेस्ट की रहने वाली साक्षी कसाना 2017 में बैचलर ऑफ डेंटल सर्जन सेकंड ईयर के एग्जाम देने के बाद तीन दोस्तों के साथ हरिद्वार घूमने गई थीं। ट्रक की टक्कर से उनकी कार फ्लाईओवर से नीचे जा गिरी। एक दोस्त की मौत हो गई। रीढ़ की हड्डी टूटने के कारण साक्षी व्हीलचेयर पर गईं। इस हादसे ने उनको अंदर तक तोड़ दिया। इससे उबरने के लिए पढ़ाई छोड़ खेल की दुनिया में कदम रखा। बतौर खिलाड़ी 2021 में खेल के मैदान में उतरीं। पहली साल में ही साक्षी ने डिस्कस थ्रो और शॉटपुट में दो सिल्वर मेडल जीते। इसके बाद 2023 में उन्होंने जैवलिन और डिस्कस थ्रो में नैशनल रेकॉर्ड तोडकर खुद का कीर्तिमान स्थापित किया और गोल्ड मेडल जीते। एक ट्रेन हादसे में कुलेसरा निवासी अमन सिंह अपने दोनों हाथ गंवा चुके हैं। इसके बावजूद उन्होंने सीबीएसई 12वीं की परीक्षा में 75 प्रतिशत मार्क्स लेकर एक मिसाल पेश की। अमन पेंटिंग भी बनाते हैं।

आज है जागरुकता का है दिन 

आमतौर पर विकलांगों को लेकर लोग दया या हीन भाव रखते हैं. लोगों को लगता है कि यदि कोई व्यक्ति विकलांग है कि इसका मतलब है कि वह निश्चित तौर पर दूसरों पर बोझ बना रहेगा. जो सही नहीं है. थोड़े से प्रयास से विकलांग व्यक्ति भी सामान्य जीवन जी सकते हैं. लोगों में इसी सोच को लेकर जागरूकता फैलाने, दुनिया भर में विकलांग या दिव्यांग जनों के अक्षमता से जुड़े मुद्दों की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करने तथा उनके उचित आर्थिक सामाजिक विकास के लिए प्रयास करने के उद्देश्य से हर साल 3 दिसंबर को दुनिया भर में विश्व विकलांग दिवस या विश्व दिव्यांग दिवस मनाया जाता है. बता दें, विश्व विकलांग दिवस के लिए वार्षिक ऑब्जरवेशन की घोषणा यूनाइटेड नेशंस ने जनरल असेम्बली रेजोल्यूशन में 1992 में की थी. हर साल ये दिन आज यानी 3 दिसंबर को मनाया जाता है

इसका उद्देश्य विकलांग व्यक्तियों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता सुनिश्चित करना। 1981 को संयुक्त राष्ट्र नेविकलांग व्यक्तियों का अंतरराष्ट्रीय वर्षघोषित किया था। इसके बाद 1983-1992 कोविकलांग व्यक्तियों के लिए संयुक्त राष्ट्र दशकघोषित किया गया। अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस विकलांग व्यक्तियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण को बदलने का अवसर प्रदान करता है। अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस के दिन विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों और समस्याओं के लिए जागरूकता अभियान चलाए जाते हैं। यह दिवस विकलांग लोगों के साथ भेदभाव को खत्म करने और उन्हें समाज में समान भागीदारी देने की दिशा में प्रेरित करता है। यह सरकारों, गैर-सरकारी संगठनों और अन्य संस्थानों को विकलांग व्यक्तियों के कल्याण के लिए नीतियां और योजनाएं बनाने के लिए प्रेरित करता है। अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस का मुख्य उद्देश्य विकलांग व्यक्तियों को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और अन्य क्षेत्रों में समान अवसर प्रदान करना है।

दिव्यांगों केसमावेशी और टिकाऊ

भविष्य को मिले बढ़ावा

हर साल इस दिवस के लिए एक विशेष थीम निर्धारित की जाती है। जो कि विकलांग व्यक्तियों से जुड़े किसी विशेष मुद्दे को उजागर करती है और उनके अधिकारों पर ज़ोर देती है। इस साल अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस 2024 की थीमसमावेशी और टिकाऊ भविष्य के लिए विकलांग व्यक्तियों के नेतृत्व को बढ़ावा देना।समाज का विकास तभी संभव है जब हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी प्रकार की विकलांगता से पीड़ित हो, सम्मान और समानता के साथ जीवन जी सके।

एक चौथाई दिव्यांग नहीं जाते स्कूल

यूनेस्को की एक रिपोर्ट के मुताबिक स्कूलों में विकलांग लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना मेंकमहै। पांच वर्ष की आयु के तीन-चौथाई विकलांग बच्चे तथा 5-19 वर्ष की आयु के एक-चौथाई बच्चे किसी भी शैक्षणिक संस्थान में नहीं जाते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 78,64,636 विकलांग बच्चे हैं, जो कुल बाल आबादी का 1.7 प्रतिशत है। रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 12 प्रतिशत दिव्यांग बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं, जो सभी बच्चों के बीच स्कूल छोड़ने के कुल प्रतिशत के बराबर है। 

दिव्यांग बच्चों में से 27 प्रतिशत ने कभी कोई शैक्षणिक संस्थान नहीं देखा, जबकि यदि सम्पूर्ण बाल जनसंख्या को ध्यान में रखा जाए तो यह आंकड़ा 17 प्रतिशत है। रिपोर्ट के मुताबिक बड़ी संख्या में विकलांग बच्चे नियमित स्कूल नहीं जाते हैं, लेकिन वे राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान (एनआईओएस) में नामांकित हैं। एनआईओएस में नामांकन के आंकड़ों की समीक्षा से पता चलता है कि 2009 और 2015 के बीच विकलांगता की अधिकांश श्रेणियों में गिरावट आई है।


कुल आबादी के 15 फीसदी लोग दिव्यांग           

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक विश्व आबादी का करीब 15 फीसदी यानि एक अरब से अधिक लोग किसी ना किसी प्रकार की दिव्यांगता से पीड़ित हैं. जिनमें से 80 फीसदी विकासशील देशों में रहते है. वहीं संयुक्त राष्ट्र बाल कोष द्वारा नवम्बर 2021 में जारी की गई एक रिपोर्ट की माने तो विश्व भर में क़रीब 24 करोड़ विकलांग बच्चे हैं. यानि हर दस में एक बच्चा दिव्यांगता का शिकार है. रिपोर्ट के अनुसार 18 वर्ष उससे अधिक उम्र की महिलाओं में, दिव्यांगता की औसत दर जहां 19 फीसदी है( क़रीब हर पांच में से एक महिला) वहीं पुरुषों के लिये यह आंकड़ा 12 फीसदी का है. वहीं विश्व में लगभग 80 करोड़ दिव्यांगजन कामकाजी उम्र के हैं.


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