मोबाइल की ’कैद’ में बचपन
बदलते परिवेश व एआई के दौर में अब स्मार्टफोन हर सख्श के हाथ में है. मतलब साफ है किसी के पास कुछ और हो न हो, लेकिन फोन जरूर है. मोबाइल पर रील, तस्वीर और गेमिंग की लत से ना सिर्फ युवा, बल्कि बच्चे भी ग्रस्त हैं. हर घर में छोटे बच्चे पैरेंट्स के फोन लेकर गेम और वीडियो देखने लगते हैं. अक्सर मां-बाप भी बच्चों को खाना खिलाने या रोते हुए को चुप कराने के लिए तुरंत मोबाइल थमा देते हैं. यदि आपको भी लगता है कि आपके घर में भी यही सब हो रहा है तो आपको अलर्ट होने की जरूरत है. मोबाइल फोन की लत किसी ड्रग्स की लत के समान ही है. अब तो स्थिति यहां तक पहुंच चुकी हैं कि फोन बनाने वाली कंपनियां भी इस पर चिंता वयक्त करने लगी हैं. स्मार्टफोन का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल निश्चित रूप से बच्चों की फिजिकल और मेंटल हेल्थ को बर्बाद कर रहा है. खुद दुनिया की दिग्गज स्मार्टफोन निर्माता कंपनी के टॉप अधिकारी ने मोबाइल को बच्चों के लिए घातक बतलाया है. ये वक्त अब हाई अलर्ट पर आने का है क्योंकि गैजेट्स का एडिक्शन बच्चों के दिमाग की कपैसिटी भी घटा रहा है। सेलफोन पर ज्यादा वक्त बिताने से बच्चों की फिजिकल एक्टिविटी कम हुई है जिससे उनकी हाइट रुक रही है, वजन बढ़ रहा है, हड्डियां कमजोर हो रही हैं और तमाम तरह की डेफिशिएंसी बढ़ रही है। सबसे खतरनाक बात तो ये है कि मोबाइल एडिक्शन बच्चों में हुई आयरन की कमी का कारण बन सकता है, जिससे उनका आई क्यू लेवल घट रहा है और ये डेफिशिएंसी उम्र बढ़ने के साथ तमाम बीमारियों को आमंत्रित कर सकती है।
सुरेश गांधी
एआई यानी आर्टिफिसियल इंटेलीजेंस के युग में हमारा आपका बच्चा, मोबाइल की दुनिया में कैद है. हद इस कदर बढ़ गयी है कि हर घर में अब आम बात हो गयी है कि उनके बच्चे आजकल डिजिटल दुनिया में अटके रहते हैं। बच्चे हरियाली-खुले आसमान में खेले जाने वाले आउटडोर गेम्स से दूर हो गए हैं। वो सुबह उठता है और स्कूल जाने की तैयारी करता है. लेकिन घर से निकलने से पहले किसी भी हालत में मोबाइल पर नजर मारने से बचना नहीं चाहता. मां जूते का फीता बांध रही होती है और कहती है बेटा-लेट हो रहा है जल्दी करो. लेकिन वह छोटा बच्चा घड़ी का समय देखता है और कहता है- अभी 5 मिनट बचे हैं. इस दौरान वह मोबाइल में सिर गड़ाकर कुछ देख रहा होता है. जी हां, आज घर-घर में यही हो रहा है. एक सर्वे रिपोर्ट की मानें तो बच्चों को मोबाइल की लत को लेकर हर सख्श परेशान तो है, लेकिन उस पर कंट्रोल नहीं हो पा रहा है। परिणाम यह देखने को मिल रहा है कि स्मार्टफोन के इस्तेमाल से कुछ वर्ष बाद ही बच्चे खराब मानसिक सेहत का शिकार हो रहे है. जाहिर है कि इसका असर उनकी फिजिकल-मेंटल हेल्थ के पर भी पड़ रहा है। ये पेरेंट्स के लिए बड़ी टेंशन की बात है क्योंकि ऑनलाइन गेमिंग बच्चों-बड़ों सबकी सेहत पर भारी पड़ सकती है। खास तौर पर बच्चे जो मोबाइल में रील्स देखकर जिद्दी हो रहे हैं, अजब-गजब फरमाइशे कर रहे हैं और कुल मिलाकर पेरेंट्स की बात नहीं मान रहे। आसान भाषा में बोलें तो बच्चों का बचपन ही खोता जा रहा है इसलिए समय रहते उनके डिजिटल वर्ल्ड को कंट्रोल करना जरूरी है। इसके लिए पेरेंट्स को थोड़ा सख्त होना पड़ेगा और बच्चों के साथ खुद भी इस दुनिया से बाहर निकलना होगा और आउटडोर गेम खेलने होंगे।
हाल यह है
कि बच्चों में बढ़ता स्क्रीन
टाइम खतरनाक लेवल तक पहुंच
चुका है. बढ़ते स्क्रीन
टाइम के चलते बच्चों
में चिड़चिड़ापन और कई तरह
की बीमारियां घर कर रही
हैं. आज के युवा
दंपतियों में एक बच्चा
रखने का प्रचलन बढ़ा
है. ऐसे में बच्चों
में अकेलापन भी मोबाइल की
ओर धकेलने का एक बड़ा
कारण है. मोबाइल आज
जिंदगी का अहम हिस्सा
हो गया है. सुबह
से शाम तक हम
मोबाइल और लैपटॉप के
बिना चाहे अनचाहे नहीं
रह पाते हैं. बड़े
तो बड़े बच्चों में
भी इसका प्रचलन काफी
बढ़ गया है. ऐसे
में बच्चों का बढ़ता स्क्रीन
टाइम हमें कई चीजें
सोचने पर मजबूर करता
है. विशेषज्ञों का कहना है
कि अगर बच्चों को
स्मार्टफोन देरी से दिया
जाता है तो यह
उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए बेहतर
हो सकता है. इस
अध्ययन से पता चलता
है कि 60-70 प्रतिशत महिलाएं जो 10 साल की उम्र
से पहले स्मार्टफोन के
संपर्क में थीं उनमें
मेंटल हेल्थ की समस्यां जवानी
में आ रही है.
45 से 50 फीसदी पुरुष जो 10 साल की उम्र
से पहले स्मार्टफोन का
यूज कर थे उन्हें
भी इसी तरह की
परेशानी हो रही है.
यानि छोटे उम्र में
बच्चों को फोन देना
उचित नहीं है. ये
आदत बच्चों के मेन्टल हेल्थ
को कमजोर कर रही है।
लगातार वीडियो गेम्स खेलने और सोशल मीडिया
देखने से बच्चों की
नजर भी कमजोर हो
रही है, चश्मे का
नंबर बढ़ रहा है
और आई मसल्स के
थकने से मायोपिया के
मामले तेजी से बढ़
रहे हैं। देखा जाएं
तो मां-बाप अक्सर
अपने बच्चों को मोबाइल के
ज्यादा इस्तेमाल पर डांटते तो
हैं, लेकिन क्या वे खुद
सही उदाहरण पेश कर रहे
हैं? आज के जमाने
में बड़े भी पूरे
दिन मोबाइल में लगे रहते
हैं। जब हमने बच्चों
की मोबाइल लत पर एक्सपर्ट
से बात की, तो
उन्होंने इसके लिए बच्चों
से ज्यादा बड़ों को ज़िम्मेदार
ठहराया। जबकि हकीकत यह
है कि स्कूल जाने
वाले बच्चे कम उम्र में
सोशल मीडिया के आदी हो
जाएं तो इससे उनके
दिमाग पर परमानेंट नकारात्मक
असर पड़ सकता है।
मोबाइल की लत पूरी
तरह से छोड़ने के
बाद भी इस असर
को दूर कर पाना
संभव नहीं होगा। यह
असर ताउम्र उनके साथ बना
रहेगा और जिंदगी से
सभी अहम मोड़ पर
नुकसान पहुंचाएगा। ऐसी स्थिति में
स्मार्टफोन की वजह से
बच्चों का सहज दिमागी
विकास नकारात्मक रूप से प्रभावित
होता है। ब्रेन सिस्टम
और नॉर्मल साइकोलॉजी गड़बड़ाने से ‘रिवॉर्ड पनिशमेंट
थॉट’ का क्रम भी
उलट जाता है। जिसकी
वजह से ‘एडवर्स ब्रेन
डेवलपमेंट’ का खतरा बढ़
जाता है। ऐसी स्थिति
में बच्चे कम उम्र में
ही डिप्रेशन, एंग्जाइटी के शिकार होने
लगते हैं। उनका सहज
दिमागी विकास इस तरह प्रभावित
होता है कि वे
स्मार्टफोन और सोशल मीडिया
से होने वाली एंग्जाइटी
से बचने के लिए
फिर से उसी का
इस्तेमाल करने लगते हैं।
जिसके चलते एक अंतहीन
क्रम बन जाता है
और लोग इसमें फंसते
चले जाते हैं। दूसरी
ओर, उनकी मानसिक और
शारीरिक सेहत गिरती चली
जाती है। परिणाम यह
है कि लत से
उनकी मानसिक और मनोवैज्ञानिक सेहत
स्क्रीन टाइम कंट्रोल करने
के बाद भी पहले
जैसी स्थिति में नहीं आ
सकती। यानी इसका नुकसान
परमानेंट और हमारी सोच
से ज्यादा खतरनाक है। विशेषज्ञों का
कहना है कि एक
सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक कुछ
बच्चों से जब एक हफ्ते के
लिए मोबाइल से दूर कर
दिया गया तो वे
डिप्रेशन और एंग्जाइटी के
लक्षणों की चपेट में
आ गए। मतलब साफ
है स्मार्ट फोन के प्रचलन
ने भले ही दुनियाभर
की सूचनाएं व तकनीक लोगों
की मट्ठी में भर दी
हों लेकिन इससे नुकसान भी
पहुंच रहा है। स्मार्टफोन
की लत लोगों पर
इस कदर हावी हो
रही है कि स्मार्टफोन
से दूर रहना एक
पल भी गंवारा नहीं
है। खास कर छोटे
बच्चों में यह नशा
अब बढ़ता ही जा
रहा है। बच्चों का
सुनहरा बचपन भटक कर
स्मार्टफोन के सतरंगी स्क्रीन
तक सिमट कर रह
गया है। बचपन की
शरारतें, खेल और क्रिएटिविटी
इस लत में गुम
होती जा रहीं है।
हाल ही में
जारी एक रिपोर्ट के
मुताबिक 2 से 5 साल तक
के बच्चों का स्क्रीन टाइम
बढ़कर 4 घंटे से अधिक
हो गया है। यही
नहीं 2 साल से कम
उम्र के बच्चों तक
को फोन थमा दिया
जाता है। बच्चों और
युवाओं को घंटों स्क्रीन
पर नजर टिकाए देखकर
लगता है कि हम
मोबाइल का इस्तेमाल नहीं
करते, बल्कि मोबाइल ही हमें संचालित
करने लगा है। या
यूं कहे बच्चों का
ऑनलाइन गेम ड्रग्स और
मादक पदार्थों की लत की
तरह हो चला है।
इसलिए जरूरी है कि इस
पर कोई कानून लाया
जाए। सरकार को इस पर
गंभीरता से मंथन करने
की जरूरत है कि मोबाइल
सिर्फ फोन रहे, यह
किसी भी हालत में
लत न बने। क्योंकि
स्क्रीन टाइम अधिक होने
की समस्या का समाधान भी
ऐप के जरिए खोजने
की कोशिश की जा रही
है। जबकि इसके लिए
जरूरी है कि हमारे
आस-पास के सामाजिक
परिवेश को एक बार
फिर पुरानी स्थिति में लेकर आए।
बच्चों को समय दें।
उन्हें खेल के मैदानों
पर ले जाने का
प्रयास करें ताकि आउटडोर
गेम्स में रुचि ले
सकें। योग, ध्यान, संगीत
की ओर ध्यान आकर्षित
करें ताकि वे स्क्रीन
से दूर हो सकें।
इसके साथ ही दिनचर्या
में समय का सही
प्रबंधन करने के लिए
प्रेरित करें ताकि बच्चे
समय का सही उपयोग
कर सकें और स्क्रीन
टाइम कम हो सके।
इसके साथ ही हमें
बच्चों को आप-पास
दोस्त बनाने और रिश्तों का
महत्त्व भी बताना होगा
ताकि उन्हें वास्तविक और आभासी दुनिया
में अंतर बताया जा
सके। हमें बच्चों को
जागरूक करना होगा और
बताना होगा कि तकनीक
हमारे लिए है,
हम तकनीक के लिए नहीं। बच्चे को फोने देने के बजाय उसे अलग-अलग एक्टिविटी में बिजी रखें. उसके साथ खेंले, उसे पार्क लेकर जाएं. किसी भी तरह से बच्चे को बाहर या अन्य एक्टिविटीज में बिजी रखें. स्मार्टफोन के इस्तेमाल को लेकर बच्चों को समझाएं, साथ ही फोन में हमेशा पासवर्ड लगाकर रखें. आजकल मां-बाप छोटे बच्चों को बहलाने के लिए उनके हाथ में मोबाइल फोन थमा देते हैं. लेकिन अब एक नई स्टडी में ये पता चला है कि 6 साल तक के ऐसे बच्चे जो मोबाइल फोन से खेलते हैं, आगे चलकर उनकी याददाश्त कमजोर हो जाती है और उन्हें कई प्रकार की मानसिक विकृतियों का सामना करना पड़ता है। चिकित्सकों का कहना है कि मोबाइल से निकलने वाली किरणों से कई बच्चों में नए रोग का जन्म हो रहा है। मोबाइल की लत इतनी बढ़ गई कि यदि किसी बच्चे के हाथ से मोबाइल छीन लिया जाता है तो वह आक्रामक तक हो जाता है।
स्मार्टफोन से निकलने वाली नीली रोशनी से न सिर्फ सोने में दिक्कत आती है, बल्कि बार-बार नींद टूटती है। इसके ज्यादा प्रयोग से रेटिना को नुकसान होने का खतरा रहता है। मोबाइल से चिपके रहने से दिनचर्या अनियमित रहती है। इससे मोटापे और टाइप-2 डायबिटीज की आशंका बढ़ जाती है। लगातार प्रयोग से बच्चों में मोबाइल की लत लग जाती है। इससे उनके ब्रेन में बदलाव आ जाता है। उसे डिसऑर्डर में शामिल किया गया है। मोबाइल के ज्यादा प्रयोग से उनमें बेचैनी, घबराहट, चिड़चिड़ापन, उदासी, खाना छोड़ देते, सामाजिक व पारिवारिक कटाव हो जाता है। ऐसे मामलों में दवा का कोई रोल नहीं होता है। ऐसे बच्चों की काउंसलिंग, बिहेवियर थेरेपी दी जाती है। ''इसका नकारात्मक प्रभाव यह होता है कि उनमें स्पीच डेवलपमेंट नहीं हो पाता है. वो गैजेट्स में ही बिजी रहने लगते हैं. उनके व्यवहार में दिक्कतें आने लगती हैं, वो कई बार बहुत नखरे करने लगते हैं. कई बार आक्रामक भी हो जाते हैं. कई मां-बाप बच्चों को रात में गैजेट्स पकड़ा देते हैं जिससे उनका स्लीप पैटर्न खराब हो जाता है. ऐसा मां-बाप को भी नहीं करना चाहिए, उन्हें देखकर भी कई बार.बच्चे टीवी देखने या मोबाइल चलाने की जिद करते हैं. इससे उनका कॉन्सन्ट्रेशन भी खराब होता है.''
क्यों बच्चे बन रहे ऑटिज्म का शिकार
पिछले कुछ सालों में
मां-बाप के बीच
एक यह प्रवृत्ति बढ़ी
है कि वो अपने
बच्चों का मन बहलाने
के लिए उन्हें कहानी
या लोरियां सुनाने की जगह मोबाइल
फोन और अन्य गैजेट
पकड़ा देते हैं. नतीजतन
बच्चे इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की पेश की
गई वर्चुअल दुनिया में डूब जाते
हैं. इसके अलावा सिंगल-न्यूक्लियर फैमिली सेटअप के बढ़ते ट्रेंड
और परिवार के सदस्यों के
बीच आपसी बातचीत की
कमी ने इस स्थिति
को और जटिल बना
दिया है. विशेषज्ञ ने
बताया, ''मेरे सामने हर
महीने ऑटिज्म के लगभग दो
केस आते हैं. ऑटिज्म
एक ऐसी स्थिति है
जिसकी कोई ज्ञात दवा
नहीं है लेकिन पर्सनैलिटी
डेवलपमेंट थेरेपी, स्पीच थेरेपी और स्पेशल एजुकेशन
थेरेपी काफी हद तक
प्रभावी हो सकती है
जिससे बच्चे की स्थिति में
सुधार हो सकता है.
हालांकि, इस प्र.क्रिया
में काफी समय और
प्रयास की आवश्यकता होती
है.''
ऑटिज्म के संकेत एवं लक्षण
वर्चुअल ऑटिज्म से पीड़ित बच्चे
दूसरों से बात करने
में कतराते हैं, आई कॉन्टैक्ट
नहीं करते, उनमें बोलने की क्षमता का
विकास देर से होता
है, उन्हें लोगों के साथ घुलने-मिलने में दिक्कत होती
है और उनका आईक्यू
भी कम होता है.
साइकोलॉजिस्ट ने बताया, ''अगर
आपको अप.ने बच्चों
के अंदर इस तरह
के लक्षण नजर आएं तो
डरने और देरी करने
के बजाय उन्हें यह
स्वीकार करना चाहिए कि
उनके बच्चे को अतिरिक्त देखभाल
और इलाज की आवश्यकता
है. कई तरह की
थेरेपी की मदद से
माता-पिता अपने बच्चों
को बेहतर ढंग से समझ
सकते हैं और उन्हें
ठीक होने में मदद
कर सकते हैं.''
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