Saturday, 7 June 2025

युद्धविराम की ओट में युद्ध की साजिश : भारत को रहना होगा अलर्ट

युद्धविराम की ओट में युद्ध की साजिश : भारत को रहना होगा अलर्ट 

हर बार जब भारत ने शांति का हाथ बढ़ाया, पाकिस्तान ने उसे काटने की कोशिश की। कारगिल से लेकर पुलवामा तक और फिर उरी से लेकर पठानकोट तक. पाकिस्तान ने दिखाया है कि उसके लिए युद्धविराम कोई शांति प्रस्ताव नहीं, बल्कि रणनीतिक विराम होता है। ताकि वह फिर से अपनी आतंकी फैक्ट्रियों को सक्रिय कर सके, घुसपैठ की साजिश रच सके और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने मासूम बनने का ढोंग कर सके। मतलब साफ हैयुद्धविराम की टेबल पर बैठा पाकिस्तान, पीठ पीछे खंजर लिए बैठा होता है।इसलिए भारत को केवल वर्तमान की नहीं, भविष्य की भी तैयारी करनी होगी। पाकिस्तान की हरशांतिएक नईसाजिशका मुखौटा हो सकती है। देश को हरपल सजग रहना होगा, ताकि हम सिर्फ जवाब दे सकें, बल्कि पहले वार को ही रोक सकें 

सुरेश गांधी

जब कोई राष्ट्र बार-बार शांति समझौतों को तोड़ता है, तब यह समझना आवश्यक हो जाता है कि शांति उसकी नीति नहीं, बल्कि रणनीति का हिस्सा है। पाकिस्तान के संदर्भ में यह बात बार-बार सिद्ध होती रही है। उसके लिएयुद्ध विरामकोई शांतिपूर्ण इरादों का प्रतीक नहीं, बल्कि एक अस्थायी विराम होता है, ताकि वह फिर से खुद को संगठित कर सके, अपनी आतंकी योजनाओं को धार दे सके और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भ्रमित कर सके। भारत और पाकिस्तान के बीच हुए हर युद्ध या सैन्य संघर्ष के बाद जब युद्धविराम की बात हुई, पाकिस्तान ने समय पाकर अपनी आतंकी गतिविधियों को और तेज किया। कारगिल युद्ध से लेकर उरी और पुलवामा हमले तक, इतिहास इस बात का गवाह है कि पाकिस्तान ने भारत की उदारता को उसकी कमजोरी समझने की भूल बार-बार की है। 

आज जब भारत आर्थिक, सैन्य और कूटनीतिक रूप से सशक्त हो रहा है, तब पाकिस्तान की नापाक हरकतें रुकने की बजाय नए-नए रूपों में सामने रही हैं. ड्रोन द्वारा हथियारों की तस्करी, घुसपैठ की कोशिशें, सीमावर्ती क्षेत्रों में आतंकी लॉन्च पैड्स का संचालन। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि भारत अबशांति के इच्छुकराष्ट्र की छवि के साथ-साथयुद्ध के लिए सदैव तैयारराष्ट्र की हकीकत भी दिखाए। एक ऐसा राष्ट्र जो अपने ही संविधान, लोकतंत्र और अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सम्मान नहीं करता, वह दूसरे देश के प्रति कितनी ईमानदारी रखेगा, यह सवाल अब नीति निर्धारकों को गहराई से सोचना होगा।

युद्धविराम की संधियां तब तक सार्थक नहीं जब तक उनका पालन सुनिश्चित हो। और जब पड़ोसी देश की नीति ही धोखा हो, तो भारत को केवलप्रतिक्रियानहीं, बल्किपूर्वक्रियाकी नीति अपनानी होगी.  

एलओसी पर शांति की बातें हों या कश्मीर में लोकतांत्रिक बहाली की पहल, पाकिस्तान ने हर सकारात्मक कोशिश को आतंक की आग में झोंकने का प्रयास किया है। उसके लिए युद्धविराम एक झांसा है, और भारत की शांति-नीति एक कमजोरी। इस समय, जबकि भारत वैश्विक मंचों पर आर्थिक और सामरिक रूप से मजबूत हो रहा है, पाकिस्तान की बौखलाहट और साजिशें बढ़ रही हैं। ऐसे में सवाल उठता है क्या अब भी हमें उसके शांति के झूठ पर भरोसा करना चाहिए? आज की सुरक्षा रणनीति मेंप्रतिक्रियानहीं, “पूर्व-सक्रियताकी नीति आवश्यक है। हमें यह मान लेना होगा कि युद्ध किसी भी समय हो सकता है. चाहे 8 दिन बाद, या 8 माह बाद। पाकिस्तान की नीयत में बदलाव की आशा करना अपने देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करने जैसा होगा. ऐसे में हमें हर वक्त सीमाओं पर अचूक निगरानी, ड्रोन रडार तकनीक की तैनाती करनी होगी। सर्जिकल और प्री-एम्पटिव स्ट्राइक्स की नीति को औपचारिक रणनीति बनाना होगा. आर्थिक कूटनीतिक मोर्चे पर वैश्विक दबाव बनाना होगा. आंतरिक सुरक्षा को मज़बूत करना, खासकर सीमावर्ती इलाकों में जरुरी हो गया है. भारत की संस्कृति शांति की है, लेकिन इतिहास भी सिखाता है कि जब-जब हमने युद्ध के लिए तैयार रहना छोड़ा, तब-तब हमने धोखा खाया। पाकिस्तान जैसे द्वेषपूर्ण पड़ोसी के साथ यह तैयारी और भी जरूरी हो जाती है। 

अब भारत को युद्ध की आशंका को 8 दिन या 8 महीने की सीमा में नहीं बांधना चाहिए, बल्कि उसे स्थायी सतर्कता को अपनी रणनीति का हिस्सा बनाना चाहिए। हालिया माहौल में भारत-पाकिस्तान के बीच चल रहे तनाव पर बोलते हुए पाक के विदेश सचिव आसिफ ने दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय समझौतों के भविष्य पर टिप्पणी की थी. उन्होंने एक सवाल के जवाब में कहा, ’सिंधु जल संधि स्थगित हो या नहीं, शिमला समझौता पहले ही खत्म हो चुका है.’ इससे सिंधु जल संधि को स्थगित रखने के भारत के फैसले पर पाकिस्तान की हताशा झलकती है. भारत और इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान की सरकारों के बीच 1972 में द्विपक्षीय संबंधों पर समझौता हुआ था, जिसे शिमला समझौते के नाम से भी जाना जाता है. जुलाई 1972 में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके पाकिस्तानी समकक्ष जुल्फिकार अली भुट्टो ने हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. मतलब साफ है पाकिस्तान दशकों से भारत के खिलाफ साजिश रचता रहा है और भविष्य में भी ऐसा करता रहेगा। सर्जिकल स्ट्राइक जैसे कार्रवाई के बाद भी पाकिस्तान की भारत विरोधी मानसिकता नहीं बदलेगी। भारत को और अधिक सतर्क और सावधान रहने की जरूरत है, क्योंकि पाकिस्तान अकेला नहीं है, बल्कि इसके साथ जुड़े लोग भी भारत के खिलाफ साजिशों में शामिल हैं। ऐसे में भारत को अपनी सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भर होना होगा, जिसमें सेना, शासन-प्रशासन और समाज की एकजुट भागीदारी जरूरी है। 

भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान भी मानते है पाकिस्तान को आतंकवाद के मु्द्दे पर कई बार आईना दिखाया गया है, लेकिन भारत को पाकिस्तान से हर बार धोखा ही मिला है। ताली बजाने के लिए दोनों हाथ चाहिए होते हैं, लेकिन अगर बदले में सिर्फ दुश्मनी मिले तो दूरी बनाए रखना समझदारी भरा फैसला है।जब भारत को आजादी मिली, उस समय पाकिस्तान प्रति व्यक्ति आय, जीडीपी और सामाजिक विकास जैसे हर पैमाने पर हमसे आगे था। लेकिन आज भारत की अर्थव्यवस्था, मानवीय विकास, समेत हर मोर्चे पर पाकिस्तान से आगे है। यह ना केवल संयोग है, बल्कि यह रणनीति का ही नतीजा है। अब सिर्फ भारत नहीं बदला, बल्कि उसकी रणनीति भी बदली है। अब भारत-पाकिस्तान संबंधों पर हम बिना किसी रणनीति के काम नहीं कर रहे हैं।सीडीएस ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण बयान में कहा कि पाकिस्तान ने 10 मई, 2025 को भारत को 48 घंटे में घुटनों पर लाने की योजना बनाई थी, लेकिन भारतीय सशस्त्र बलों की त्वरित और

प्रभावी प्रतिक्रिया के कारण पाकिस्तान को केवल 8 घंटे
में ही अपनी हार माननी पड़ी। पाकिस्तान नेऑपरेशन सिंदूरके तहत भारत पर कई हमले किए थे, जिनका उद्देश्य भारत को 48 घंटे में कमजोर करना था। हालांकि, भारतीय सेनाओं ने इन हमलों का मुंहतोड़ जवाब दिया, जिससे पाकिस्तान को अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर होना पड़ा। उन्होंने यह भी बताया कि भारत ने इस ऑपरेशन में साइबर, रडार, और सूचना युद्ध जैसे क्षेत्रों में भी सक्रियता दिखाई, जिससे पाकिस्तान की योजनाओं को विफल किया गया।

इस ऑपरेशन ने भारत की सैन्य रणनीति में महत्वपूर्ण बदलाव की ओर संकेत किया है। अब भारत आतंकवाद को केवल एक सीमित खतरे के रूप में नहीं देखता, बल्कि इसे एक व्यापक रणनीतिक चुनौती के रूप में स्वीकार करता है। भविष्य के युद्ध अब केवल पारंपरिक सीमाओं तक सीमित नहीं रहेंगे, बल्कि साइबर, अंतरिक्ष, और इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम जैसे क्षेत्रों में भी होंगे। इसलिए, भारतीय सेनाओं को इन नए क्षेत्रों में भी तैयार रहना होगा। ऑपरेशन सिंदूर के बाद, पाकिस्तान ने युद्धविराम की मांग की, जिसे भारत ने स्वीकार किया। जो इस बात का संकेत है कि पाकिस्तान की योजनाएं विफल हो गईं और भारत की सैन्य शक्ति ने उसे बातचीत की मेज पर लाने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने यह भी कहा कि भारत की सेनाएं भविष्य में किसी भी प्रकार की चुनौतियों का सामना करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। इस घटनाक्रम ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत की सैन्य तैयारियां और रणनीतियां अब पहले से कहीं अधिक मजबूत और प्रभावी हैं, और वह किसी भी प्रकार की आक्रामकता का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए सक्षम है।

शिमला एग्रीमेंट का इतिहास

यह समझौता भारत और पाकिस्तान के बीच दिसंबर 1971 में हुए युद्ध के बाद किया गया था, जिसमें पाकिस्तान के 90,000 से अधिक सैनिकों ने अपने लेफ्टिनेंट जनरल आमिर अब्दुल्ला खान नियाजी के नेतृत्व में भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण किया था और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश के रूप में पाकिस्तानी शासन से मुक्ति प्राप्त हुई थी. यह समझौता करने के लिए पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो अपनी पुत्री बेनजीर भुट्टो के साथ 28 जून 1972 को शिमला पधारे. ये वही भुट्टो थे, जिन्होंने घास की रोटी खाकर भी भारत से हजारों वर्ष तक युद्ध करने की कसमें खायी थीं. 28 जून से 1 जुलाई तक दोनों पक्षों में कई दौर की वार्ता हुई, लेकिन किसी समझौते पर नहीं पहुंच सके. इसके लिए पाकिस्तान की हठधर्मी ही मुख्य रूप से जिम्मेदार थी. तभी अचानक 2 जुलाई को लंच से पहले ही दोनों पक्षों में समझौता हो गया, जबकि भुट्टो को उसी दिन वापस जाना था. इस समझौते के तहत पाकिस्तान ने भारत को आश्वासन दिया कि दोनों देशों के बीच कश्मीर सहित जितने भी विवादित मुद्दे हैं, उनका समाधान आपसी बातचीत से ही किया जाएगा और उन्हें अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर नहीं उठाया जाएगा. लेकिन इस अकेले आश्वासन का भी पाकिस्तान ने सैकड़ों बार उल्लंघन किया है और कश्मीर विवाद को पूरी निर्लज्जता के साथ अनेक बार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाता रहा है. शिमला समझौते में भारत और पाकिस्तान के बीच यह भी तय हुआ था कि 17 दिसंबर, 1971 यानी पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण के बाद दोनों देशों की सेनाएं जिस स्थिति में थीं, उस रेखा को युद्ध विराम रेखा माना जाएगा और कोई भी पक्ष अपनी ओर से इस रेखा को बदलने या उसका उल्लंघन करने की कोशिश नहीं करेगा. बाद में इसी को लाइन ऑफ कंट्रोल (एलओसी) नाम दिया गया. लेकिन पाकिस्तान ने इसका पालन भी नहीं किया. पाकिस्तानी सेना ने एलओसी का उल्लंघन करते हुए 1999 में कारगिल में जानबूझकर घुसपैठ की और भारत को युद्ध में शामिल होने के लिए मजबूर किया.

सिंधु जल संधि का इतिहास

सिंधु जल संधि, नदियों के जल वितरण के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ एक समझौता है. इस संधि में विश्व बैंक (तत्कालीनपुनर्निर्माण और विकास हेतु अंतरराष्ट्रीय बैंक’) ने मध्यस्थता की. इस संधि पर कराची में 19 सितंबर, 1960 को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने हस्ताक्षर किए थे. इस समझौते के अनुसार, तीन पूर्वी नदियों- ब्यास, रावी और सतलुज का नियंत्रण भारत को, तथा तीन पश्चिमी नदियों- सिंधु, चिना. और झेलम का नियंत्रण पाकिस्तान को दिया गया. पाकिस्तान के नियंत्रण वाली नदियों का प्रवाह पहले भारत से होकर आता है. संधि के अनुसार भारत को उनका उपयोग सिंचाई, परिवहन और बिजली उत्पादन हेतु करने की अनुमति है. इस दौरान इन नदियों पर भारत द्वारा परियोजनाओं के निर्माण के लिए सटीक नियम निश्चित किए गए हैं. यह संधि पाकिस्तान के डर का परिणाम थी कि नदियों का आधार (बेसिन) भारत में होने के कारण कहीं युद्ध की स्थिति में उसे सूखे और अकाल का सामना करना पड़े. 1960 में हुए सिंधु जल समझौते के बाद से भारत और पाकिस्तान के बीच तीन युद्ध लड़े गए और कई ऐसे मौके बने जब हालात सैन्य टकराव के बन गए. इसके बावजूद भारत नेमानवियता का परिचय देते हुए कभी इस संधि का उल्लंघन नहीं किया था. हर प्रकार की असहमति और विवादों का निपटारा संधि के ढांचे के भीतर प्रदत्त कानूनी प्रक्रियाओं के माध्यम से किया. इस संधि के प्रावधानों के अनुसार सिंधु नदी के कुल जल के केवल 20 फीसदी का उपयोग भारत द्वारा किया जा सकता है. लेकिन, पाकिस्तान सिंधु जलसंधि की महत्ता और इसे लेकर भारत पर अपनी निर्भरता को जानते हुए भी कश्मीर में आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा देने और नई दिल्ली के खिलाफ साजिश रचने से बाज नहीं आया. 22 अप्रैल, 2025 को पाकिस्तान समर्थित आतंकियों द्वारा कश्मीर के पहलगांव के बैसरन घाटी में 26 पर्यटकों की नृशंस हत्या करने के बाद भारत ने सिंधुजल संधि को निलंबित कर दिया.

क्या है 2003 सीजफायर समझौता

अटल बिहारी वायपेयी की पहल के बाद भारत और पाकिस्तान ने वर्ष 2003 में एलओसी पर एक औपचारिक युद्धविराम का ऐलान किया था. भारत और पाकिस्तान के बीच 25 नवंबर 2003 की आधी रात से युद्धविराम लागू हुआ था हालांकि सीजफायर की इन बढ़ती घटनाओं के बीच बीते 5 सालों में इसका कोई ख़ास महत्व नहीं रह गया था. 90 के दशक में कश्मीर में आतंकवाद ने अपनी पैठ बनानी शुरू की और पाकिस्तान इसका खुलकर सपोर्ट करता था. पीओके और भारतीय सीमा से सटे पाकिस्तानी इलाकों में पाक सेना खुद आतंकियों के ट्रेनिंग कैंप चला रही थी. इसी दौरान भारत और पाक सेनाओं के बीच लगातार सीजफायर उल्लंघन की घटनाएं सामने आती थीं. भारतीय सेना लगातार आरोप लगा रही थी कि सीजफायर उल्लंघन के जरिए पाकिस्तानी सेना आतंकियों को सीमा पार कराने का काम कर रही है. 25 नवंबर 2003 की आधी रात से भारत और पाकिस्तान के बीच लागू हुए युद्धविराम का मकसद एलओसी पर 90 के दशक से जारी गोलीबारी को बंद करना था. भारत और पाकिस्तान के बीच जब सीजफायर लागू हुआ तो उससे पहले साल 2002 में दोनों देश कारगिल के बाद एक और जंग की ओर बढ़ रहे थे. इसकी वजह थी दिसंबर 2001 में भारतीय संसद पर हुआ हमला. भारत ने पाक की इंटेलीजेंस एजेंसी आईएसआई पर हमले की साजिश का आरोप लगाया था. आगरा समिट के बाद हुए संसद हमले के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की इस पहल को शक के नज़रिए से भी देखा जा रहा था. दरअसल उस समय जॉर्ज बुश अमेरिका की सत्ता पर काबिज थे और बुश को हमेशा से पाक के लिए एक नरम रुख रखने वाला राष्ट्रपति माना जाता था क्योंकि पाक अमेरिकी सेना को अफगानिस्तान युद्ध के लिए हवाई अड्डे इस्तेमाल करने दे रहा था. हालांकि जानकारों का मानना है कि कारगिल युद्ध में हार के बाद पाकिस्तान के पास समझौते के अलावा कोई और ऑप्शन बचा भी नहीं था.

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