क्या कांग्रेस 26/11 पर तुष्टिकरण की कीमत पर खामोश रही?
राजनीति अगर राष्ट्रहित से ऊपर हो जाए तो चुप्पी घातक बन जाती है. 26/11 भारत के इतिहास का सबसे भीषण आतंकी हमला था, लेकिन उसकी प्रतिक्रिया सबसे कमजोर रही। कांग्रेस सरकार उस वक्त शायद अंतरराष्ट्रीय समीकरण, धर्मनिरपेक्ष छवि और वोटबैंक की राजनीति के बीच निर्णयविहीनता की शिकार थी। आज जब भारत निर्णायक रूप से आतंक के खिलाफ खड़ा होता है, तब यह तुलना और भी स्पष्ट हो जाती है। मतलब साफ है तब सेना सक्षम थी, पर नेतृत्व नतमस्तक था। आज सेना सक्षम है, और नेतृत्व साथ खड़ा है, यही फर्क है। कहा जा सकता है कांग्रेस ने 26/11 जैसे ऐतिहासिक आतंकी हमले के बाद भी जिस तरह संयम नहीं, बल्कि चुप्पी और कूटनीतिक भ्रम दिखाया, वह सीधे तौर पर उसकी तुष्टिकरण की राजनीति का परिणाम था। इसका असर न सिर्फ तत्कालीन सुरक्षा नीति पर पड़ा, बल्कि इससे भारत की वैश्विक छवि भी कमजोर हुई. फिरहाल, 26/11 पर कार्रवाई नहीं होना केवल सैन्य नीति की कमी नहीं थी, वह एक वैचारिक असमर्थता और राजनीतिक तुष्टिकरण की देन थी। आज देश ने सीखा है कि “धैर्य और नीति“ का अर्थ यह नहीं कि आतंक के आगे झुक जाया जाए। अब भारत झुकेगा नहीं, लड़ेगा और जीतेगा भी
सुरेश गांधी
भारत के इतिहास
में वह काला दिन
जब आतंकवाद ने देश की
आर्थिक राजधानी मुंबई को लहूलुहान कर
दिया। या यूं कहे
26 नवम्बर 2008, मुंबई की सड़कों पर
जंग का मंजर था।
दस आतंकी समुद्री रास्ते से घुसे, और
ताज होटल, छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, नरीमन हाउस और लियोपोल्ड
कैफे जैसे कई सार्वजनिक
स्थानों को रणभूमि बना
दिया। यह भारतीय अस्मिता
पर कायराना हमला था। 60 घंटे
तक भारत की आर्थिक
राजधानी आतंक के कब्जे
में रही। 166 निर्दोष जानें गईं, 300 से अधिक घायल
हुए। कई सुरक्षाकर्मी शहीद
हुए, और पूरे देश
की आत्मा दहली। पूरा देश आक्रोश
से उबल रहा था,
मगर तब की सरकार
निंदा के दायरे से
बाहर नहीं निकली। इस
खौफनाक हमले के बाद
सरकार की प्रतिक्रिया उतनी
ही मौन और संयमित
थी जितनी आतंकियों की क्रूरता मुखर।
या यूं कहे जब
पूरी दुनिया पाकिस्तान की भूमिका को
स्वीकार कर रही थी,
तब भारत का नेतृत्व
केवल डोजियर थमा कर सहानुभूति
बटोरने तक सीमित था।
जब देश पूछ
रहा था, “अब क्या
पाकिस्तान को सबक सिखाया
जाएगा?“ तब सरकार केवल
डोजियर तैयार कर रही थी।
यह वही दौर था
जब आतंकवाद को धार्मिक पहचान
से अलग कर दिखाने
के प्रयास में “हिन्दू आतंकवाद“
जैसे दुर्भावनापूर्ण शब्द गढ़े जा
रहे थे। नतीजा यह
हुआ कि लश्कर, हाफिज
सईद, डेविड हेडली जैसे गुनहगार खुलेआम
जहर उगलते रहे और भारत
सिर्फ निंदा करता रहा। यह
वही दौर था जब
कांग्रेस नेतृत्व ने बार-बार
यह सावधानी बरती कि आतंकवाद
को किसी “विशेष धर्म“ से न जोड़ा
जाएं। इसी नीति के
तहत “हिन्दू आतंकवाद“ जैसा विवादास्पद नैरेटिव
खड़ा किया गया। पाकिस्तान
समर्थित आतंकवाद के खिलाफ कठोर
प्रतिक्रिया से बचा गया
ताकि देश के मुस्लिम
वर्ग में “गलत संदेश“
न जाए। पाकिस्तान के
खिलाफ सिर्फ डोजियर और कूटनीतिक संवाद
तक बात सीमित रही।
ऐसे में बड़ा
सवाल तो यही है,
जब सेना और खुफिया
तंत्र सक्रिय थे, तब राजनीतिक
नेतृत्व क्यों निष्क्रिय था? क्या यह
रणनीतिक चूक थी या
फिर एक वैचारिक तुष्टिकरण
की मजबूरी? विभिन्न सुरक्षा सूत्रों और पूर्व सैन्य
अधिकारियों के अनुसार, भारत
के पास उस समय
भी सीमित समय में सीमापार
जवाबी कार्रवाई करने की क्षमता
थी। नेवी के मरीन
कमांडो और वायुसेना के
विशेष दस्ते ऑपरेशन की तैयारी में
थे। खुफिया एजेंसियों ने पाकिस्तान के
लिंक का ठोस सबूत
तत्काल उपलब्ध कराया। यहां तक कि
अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआई ने भी लश्कर-ए-तैयबा और
हाफिज सईद की संलिप्तता
की पुष्टि की। फिर क्यों
नहीं हुआ कोई जवाब?
क्यों न उरी जैसा
सर्जिकल स्ट्राइक हुआ, न बालाकोट
जैसी एयरस्ट्राइक? यही वह बिंदु
है जहां राष्ट्रीय सुरक्षा
को वोटबैंक की राजनीति के
नीचे दबा दिया गया।
जबकि 2016 में उरी और
2019 में पुलवामा जैसे आतंकी हमलों
के बाद भारत ने
निर्णायक कार्रवाई की - एलओसी पार
कर सर्जिकल स्ट्राइ, बालाकोट में एयर स्ट्राइक
कर दुनिया को संदेश दिया
गया, अब भारत चुप
नहीं बैठेगा।
ये कार्रवाइयां दर्शाती
हैं कि समस्या सेना
की ताकत में नहीं
थी, बल्कि पहले के नेतृत्व
की राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी में
थी। सवाल केवल यह
नहीं कि 26/11 के बाद सैन्य
कार्रवाई क्यों नहीं हुई, असली
प्रश्न यह है, क्या
सरकार ने जानबूझकर कार्रवाई
नहीं की क्योंकि वह
एक धर्म विशेष की
नाराजगी से डरती थी?
यदि हां, तो यह
केवल रणनीतिक चूक नहीं, बल्कि
नीतिगत अपराध की श्रेणी में
आता है, जो देश
की सुरक्षा, प्रतिष्ठा और मनोबल को
ठेस पहुंचाता है। देखा जाएं
तो कांग्रेस पार्टी पर लंबे समय
से यह आरोप लगता
रहा है कि उसने
धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुस्लिम
समुदाय, को नाराज़ न
करने के उद्देश्य से
कई राष्ट्रीय मुद्दों पर ’तुष्टिकरण की
नीति’ अपनाई। 26/11 के बाद इस
नीति की झलक स्पष्ट
रूप से देखी गई
: पाकिस्तान के खिलाफ सीधी
सैन्य कार्रवाई से बचने की
कोशिश की गई। आतंकियों
के “इस्लामी चरित्र“ को लेकर संवेदनशीलता
दिखाई गई, जबकि वे
खुले तौर पर लश्कर-ए-तैयबा और
आईएसआई के एजेंट थे।
इसी दौर में
“हिन्दू आतंकवाद“ का विमर्श आगे
बढ़ाया गया, जिससे असली
खतरे से ध्यान भटका।
जबकि एनएसजी कमांडो, नौसेना और रॉ यानी
आरएडब्ल्यू की रिपोर्ट्स बताती
हैं कि सेना के
पास सीमित समय में पाकिस्तान
में जवाबी कार्रवाई करने की योजना
थी, लेकिन राजनीतिक मंजूरी नहीं मिली। इससे
यह संकेत मिलता है कि सरकार
राजनीतिक नुकसान और ’धार्मिक छवि’
खराब होने के डर
से पीछे हटी। जनता
का ध्यान भटकाने के लिए सरकार
ने कार्रवाई की जगह केवल
पाकिस्तान को डोजियर (सबूतों
की फाइलें) सौंपे। यह अलग बात
है कि उस वक्त
अमेरिका तक ने माना
कि हमले की जड़ें
पाकिस्तान में थीं। फिर
भी भारत ने कोई
सर्जिकल या सैन्य प्रतिक्रिया
नहीं दी। क्या तुष्टिकरण
ने रोक दी थी
सेना की गोली? क्या
सेना तैयार थी, पर राजनीतिक
इच्छाशक्ति नाकाम थी? क्या सर्जिकल
सोच की गैरहाज़िरी ही
26/11 की सबसे बड़ी चूक
थी? क्या तुष्टिकरण की
कीमत पर देश की
सुरक्षा को ताक पर
रखा गया?
ये ऐसे सवाल
है जो आज भी
करोड़ों भारतीयों के जुबान पर
है कि कांग्रेस की
चुप्पी के चलते 26/11 के
हमले में मारे गए
166 लोगों के परिवार को
न्याय नहीं मिला? देश
आक्रोशित था, लेकिन न
सर्जिकल स्ट्राइक हुई, न जवाबी
कार्रवाई, क्यों? क्योंकि तत्कालीन नेतृत्व वोटबैंक और तुष्टिकरण के
दबाव में था। आतंकवाद
को धार्मिक भावनाओं से न जोड़ने
की राजनीतिक चिंता ने राष्ट्र की
सुरक्षा को पीछे धकेल
दिया। अब प्रश्न उठता
है : क्या यह सब
केवल वैश्विक राजनीति का दबाव था?
नहीं। यह नेतृत्व की
आंतरिक वैचारिक भ्रम, वोटबैंक की चिंता और
मुस्लिम तुष्टिकरण की जड़ें जमाई
राजनीति थी, जिसने आतंकवाद
जैसे संकट को भी
“धर्म“ से जोड़कर देखने
और बचने की आदत
बना ली। लेकिन 2014 के
बाद देश में जब
नेतृत्व बदला, तब आतंकवाद पर
सोच भी बदली। आज
भारत बदला है। भारत
अब वार की भाषा
में जवाब देता है।
उरी (2016) के बाद सर्जिकल
स्ट्राइक। 2019 में पुलवामा के
बाद बालाकोट एयरस्ट्राइक ने पाकिस्तान को
घर में घुसकर सबक
सिखाया।
इन कार्रवाइयों ने
स्पष्ट कर दिया कि
आज की भारत सरकार
धर्म के चश्मे से
नहीं, बल्कि राष्ट्रहित के दृष्टिकोण से
आतंकवाद को देखती है।
दुनिया को स्पष्ट संदेश,
भारत अब चुप नहीं
बैठेगा। अब आतंकवाद को
वोटबैंक या धार्मिक मतभेद
के चश्मे से नहीं देखा
जाता, बल्कि इसे राष्ट्र पर
सीधा हमला माना जाता
है। अब पुलवामा हो
या उरी, जवाब एलओसी
पार जाकर दिया जाता
है। सेना पहले भी
सक्षम थी, फर्क सिर्फ
राजनीतिक इच्छाशक्ति और राष्ट्रवादी सोच
का है। अब भारत
चुप नहीं रहता, वार
करता है। 26 नवम्बर 2008 की घटना का
जिक्र करते हुए मुबई
के उमेश गुप्ता कहते
है सेना तैयार थी,
एनएसजी के कमांडो लड़े,
लेकिन आतंकी संगठनों की जड़ों पर
वार करने का कोई
राजनीतिक आदेश नहीं आया।
दरअसल, यह वो दौर
था जब आतंकी हमलों
को भी धार्मिक पहचान
के डर से ’सावधानीपूर्वक’
देखा जाता था। कहीं
किसी एक वर्ग की
भावनाएं आहत न हों,
इस चिंता में देश की
संप्रभुता को बार-बार
गिरवी रखा गया। लश्कर-ए-तैयबा के
आतंकियों ने पाकिस्तान से
ऑपरेशन चलाया, लेकिन भारत सरकार ने
अंतरराष्ट्रीय दबाव और वोटबैंक
की राजनीति के आगे आत्मरक्षा
का मौलिक अधिकार भी स्थगित कर
दिया।
वास्तव में, 26/11 जैसी राष्ट्रीय आपदा
के बाद जिस प्रकार
की निर्णायक प्रतिक्रिया अपेक्षित थी, जैसे सर्जिकल
स्ट्राइक, एयर स्ट्राइक, या
गुप्त ऑपरेशन, उसकी न तो
योजना बनाई गई, और
न ही साहस दिखाया
गया। यह स्थिति तब
और चिंताजनक हो जाती है
जब हम देखते हैं
कि आतंकवादियों के खिलाफ कार्यवाही
न करने का मौलिक
कारण तथाकथित “धार्मिक तुष्टिकरण“ था। आज जब
भारत पुलवामा हमले के बाद
बालाकोट तक बम गिराता
है, उरी के बाद
एलओसी पार कर आतंकियों
के अड्डे तबाह करता है,
तो यह सवाल और
तीखा हो जाता है,
क्या 2008 में भारत के
पास सेना नहीं थी?
या हिम्मत नहीं थी? मतलब
साफ है, सेना तब
भी सक्षम थी, आज भी
है। फर्क था तो
केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति और नीति के
दृष्टिकोण का।
कहा जा सकता
है किसी समुदाय के
प्रति पूर्वाग्रह रखना और उसे
आतंकवाद से जोड़ना निंदनीय
है, परंतु राजनीतिक लाभ के लिए
आंख मूंद लेना उससे
भी घातक है। भारत
को यदि सुरक्षित, स्वाभिमानी
और निर्णायक बनाना है, तो तुष्टिकरण
की नीतियों को इतिहास की
गलियों में छोड़ देना
होगा। लेकिन
अफसोस है साजिशें पाकिस्तान
की है, विपक्ष दुश्मन
की ज़ुबान बोल रहा है.
भारत जब आतंकवाद के
खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ रहा
है, तब देश के
विपक्षी स्वर ऐसे उभर
रहे हैं, जिन्हें पाकिस्तान
की मीडिया हथियार बनाकर भारत के खिलाफ
नैरेटिव चला रही है।
हालिया ऑपरेशन ‘सिन्दूर’ और ‘महादेव’ के
तहत देश में सक्रिय
आतंकी नेटवर्क्स का भंडाफोड़ हुआ।
लेकिन इस बीच विपक्षी
नेताओं द्वारा संसद में दिए
गए कुछ बयान न
सिर्फ़ चौंकाने वाले रहे, बल्कि
पाकिस्तान की मीडिया में
भी इनका स्वागत हुआ।
यह अलग बात
है कि ऑपरेश सिंदूर
के तहत एनआईए ने
जम्मू, कर्नाटक और महाराष्ट्र में
आतंकी मॉड्यूल को ध्वस्त किया।
हिंदू त्योहारों, मंदिरों और महिलाओं को
निशाना बनाने की बड़ी साजिश
नाकाम की. आईएसआई द्वारा
फंडेड मॉड्यूल से 1.8 करोड़ हवाला राशि,
11 आईईडी, और फर्जी दस्तावेज
बरामद किया। ऑपरेशन ‘महादेव’ के तहत शिव
ज्योतिर्लिंग स्थलों और कांवड़ यात्रा
पर आतंकी हमला टालने में
सफलता हासिल करते हुए 27 आतंकी
गिरफ्तार किया, जिनमें 5 पाक प्रशिक्षित थे।
इसके अलावा पाकिस्तान से संचालित क्रिप्टो
फंडिंग चैनल जब्त किया
गया। बावजूद इसके राहुल गांधी
से लेकर चिदंबरम तक
आरोप लगा रहे है
कि सरकार ‘महादेव’ जैसे धार्मिक नामों
से ऑपरेशन कर धर्म के
नाम पर राजनीति कर
रही है। सुरक्षा के
नाम पर डर फैलाया
जा रहा है। इतना
ही नहीं पी. चिदंबरम
(पूर्व गृह मंत्री) कहते
है “हर बार पाकिस्तान
का नाम लेकर अपने
भीतर की खामियों को
छुपाना एक रणनीति बन
गई है।“ और उनका
यह बयान पाकिस्तनी मीडिया
की सुर्खिया बन गयी।
पाकिस्तान के कई न्यूज
चैनलों ने कांग्रेस नेताओं
के बयानों को “भारत में
अंदरूनी असहमति“ और “मोदी सरकार
की पोल“ कहकर प्रचारित
किया। यह अलग बात
है कि अमित शाह
(गृह मंत्री) ने विपक्ष के
नेताओं की जमकर बखियां
उधेड़ी, कहा, “विपक्ष के कुछ नेता
पाकिस्तान के हक में
बोल रहे हैं। उनके
बयान पाकिस्तानी चैनल्स की हेडलाइन बन
रहे हैं। ये महज
बयान नहीं, देश की सुरक्षा
पर आघात हैं।“ प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने भी
संसद में कांग्रेस पर
तीखा प्रहार करते हुए कहा,
“उन्हें ‘महादेव’ नाम से आपत्ति
है, पर साजिशकर्ता पाकिस्तान
से नहीं। सवाल ये है
कि उन्हें समस्या आतंक से है
या सरकार से?“
जहां तक जनता
का सवाल है तो
सीएसडीएस के एक सर्वे
के मुताबिक देश के 78 फीसदी
लोगों ने कहा, ‘महादेव’
और ‘सिन्दूर’ जैसे ऑपरेशनों से
सुरक्षा को मजबूती मिली।
82 फीसदी युवाओं ने विपक्ष के
बयानों को ‘राष्ट्रहित के
खिलाफ’ माना। 67 फीसदी लोगों का मानना है
कि पाकिस्तान इन बयानों का
दुरुपयोग कर भारत की
छवि बिगाड़ रहा है। मतलब
साफ है भारत में
आतंकवाद कोई काल्पनिक खतरा
नहीं है। दशकों से
देश ने पठानकोट, उरी,
पुलवामा जैसे घाव झेले
हैं। जब सरकार और
एजेंसियां सक्रियता से कार्यवाही करती
हैं, तब उनसे राजनीतिक
असहमति की गुंजाइश हो
सकती है, लेकिन ऐसी
बयानबाजी जो सीधे पाकिस्तान
के नैरेटिव से मेल खाए,
वह लोकतांत्रिक असहमति नहीं, राजनीतिक अपरिपक्वता है। आज जब
देश की सुरक्षा एजेंसियां
आतंक के ख़लिफ़ कमर
कसकर अभियान चला रही हैं,
तब पूरे राजनीतिक तंत्र
की जिम्मेदारी है कि वह
एक स्वर में खड़ा
हो। सवाल पूछे जाएं,
पर ऐसा न हो
कि जवाब पाकिस्तान में
हेडलाइन बन जाएं। साजिशें
भले पाकिस्तान रचे, लेकिन बयान
भारत से न आएं,
यही देशहित है।
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