Saturday, 26 July 2025

भारत की आज़ादी : तलवार, विचार और तिरंगा

भारत की आज़ादी : तलवार, विचार और तिरंगा 

जब सावरकर को काल कोठरी मिली और गांधी-नेहरू को जेल में किताबें, तब सवाल उठा, देश को आज़ादी मिली या किसी विचारधारा को ही विरासत में सत्ता मिल गई? और क्यों नहीं सुने जाते भगत सिंह, बोस, आज़ाद, राजगुरु जैसे अनसुने बलिदान? और दुसरा सबसे बड़ा सवालकालकोठरी में वीरता, संसद में नीतियां, पर क्या इतिहास सबका मूल्यांकन करता है?“ यह अलग बात है कि इतिहासकारों में भी इस पर मतभेद है, कुछ इसे समझौता मानते हैं तो कुछकूटनीति मतलब साफ है भारत की स्वतंत्रता किसी एक आंदोलन, विचारधारा या दल की देन नहीं थी। यह विचार, वीरता और बलिदान की एक संगठित श्रृंखला थी, जिसमें कुछ ने चरखा चलाया, कुछ ने बम फेंका और कुछ ने आत्मबलिदान किया। लेकिन दुर्भाग्य से, इतिहास की किताबों, राजनीतिक मंचों और सरकारी आयोजनों में हमेशा एक ही चेहरा बार-बार सामने लाया गया, गांधी और नेहरू। जबकि दूसरी ओर, सावरकर, भगत सिंह, सुभाष बोस, चंद्रशेखर आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला, दुर्गा भाभी जैसे महानायकों कोक्रांतिकारीकहकर सिर्फ एक पन्ने में समेट दिया गया 

सुरेश गांधी

भारत का स्वतंत्रता संग्राम बहुध्रुवीय और बहुआयामी संघर्ष था। इस संघर्ष में कहीं भगत सिंह की गूंज थी, तो कहीं गांधी की गूंज, कहीं नेताजी सुभाष का रणभेरी थी, तो कहीं विनायक दामोदर सावरकर की तलवार। समय-समय पर लोगों के बीच यह सवाल खड़ा होता रहा है कि यदि सावरकर सचमुच देशभक्त थे, तो उन्हेंकाल कोठरीमें क्यों डाला गया और फिर उन्होंने अंग्रेजों सेमाफ़ीक्यों मांगी? वहीं दूसरी ओर गांधी और नेहरू को अगर अंग्रेजों के कट्टर विरोधी कहा जाता है, तो उन्हें जेल में हर तरह की सुविधा क्यों दी गई? इन सवालों की तह में जाने के लिए हमें स्वतंत्रता संग्राम के राजनीतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को गहराई से समझना होगा। हमें समझना होगा नेहरू गांधी से आगे भी थे नायक. सावरकर, बोस, भगत सिंह, गांधी, सबकी आज़ादी, सबका बलिदान! स्वतंत्रता की लड़ाई में बराबर का था। स्वतंत्रता किसी विचार की नहीं, भारत की थी, अब इसे सबका बनाने की जरुरत है। जिन्होंने आज़ादी के लिए सबकुछ दिया, उन्हें इतिहास ने क्यों भुला दिया? इस पर गहन मंथन करना होगा. हमें जानना होगा सावरकर और गांधी के विरोध के दो पथ जरुर थे, लेकिन, दोनों की मंज़िल आजा दी थी। जब एक ने हिंसा चुनी और दूसरे ने मौन, तो इसे आज़ादी का साझा संघर्ष नहीं तो और क्या कहेंगे? इस स्वतंत्रता दिवस के मौके पर हमें हमें सावरकर और गांधी दोनों को समझना होगा? देश उन्हीं का नहीं जो दिखे मंच पर, वे भी नायक थे जो कालकोठरी में गुमनाम रहे. आज़ादी का सूरज केवल चरखे से उगा था, तलवारों और त्याग की छाया भी साथ थी. सावरकर का साहस और गांधी का सत्य, दोनों ने भारत को दिशा दी. 15 अगस्त को याद करें हर उस पथिक को जिसने भारत माता के लिए कष्ट सहे.

विनायक दामोदर सावरकर 20वीं सदी के प्रारंभ में सबसे तेजतर्रार, मेधावी और विचारशील क्रांतिकारियों में माने जाते थे। उन्होंने केवल हथियारों के जरिए अंग्रेजों से लड़ने की योजना बनाई, बल्कि हिंदू राष्ट्रवाद की वैचारिक नींव भी डाली। 1909 में ब्रिटिश अधिकारी मदनलाल ढींगरा द्वारा कर्ज़न वायली की हत्या के बाद सावरकर को हथियार भेजने के आरोप में लंदन से गिरफ्तार कर भारत लाया गया. उनके खिलाफ मुकदमा चला और उन्हें दो बार उम्रकैद (कुल 50 साल) की सजा हुई, जिसे काटने के लिए उन्हें सेल्युलर जेल (अंडमान की कुख्यात कालापानी) भेजा गया। यह जेल कोई साधारण कैदगृह नहीं था। यहां कैदियों को यातनाएं दी जाती थीं, नारियल पीसने, तेल निकालने और भूखे रहने पर मजबूर किया जाता था। सावरकर ने इस भयावह स्थिति में 1911 से 1924 तक लगभग 11 वर्ष जेल में बिताए। इसी कालखंड में उन्होंने 14 नवंबर 1913 को ब्रिटिश सरकार कोदया याचिकाएं“ (मर्सी पेटीशन) भेजीं। इन याचिकाओं में उन्होंने लिखा कि वे अब ब्रिटिश राज के खिलाफ किसी भी तरह की हिंसक गतिविधियों में भाग नहीं लेंगे। इन पत्रों को लेकर उन्हें बाद में आलोचना झेलनी पड़ी। वामपंथी और कांग्रेस-समर्थक विचारधाराओं ने सावरकर पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगी और फिर बाहर निकलकर हिंदू महासभा के जरिए सत्ता में सहयोग दिया। परंतु उनके समर्थक मानते हैं कि यह याचिकाएं एक रणनीतिक कदम थीं ताकि जेल से निकलकर वे पुनः राष्ट्र निर्माण में भाग ले सकें। सावरकर को काल कोठरी इसलिए मिली क्योंकि उनका जुड़ाव हथियारबंद क्रांति से था, जिसे अंग्रेज सख्ती से कुचलते थे। वैसे भी ऐतिहासिक दस्तावेजों में ऐसा कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि सावरकर ने जेल से छूटने के बदले किसी क्रांतिकारी की मुखबिरी की हो। हाँ, उन्होंने ब्रिटिशों से सहयोग करने का वादा किया, ताकि वे रिहा हो सकें, जिसे उनके समर्थकरणनीतिक चालमानते हैं, और विरोधीसमर्पण

महात्मा गांधी और पंडित नेहरू का आंदोलन अहिंसात्मक था। उन्होंने भारत को आज़ादी दिलाने के लिए सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन जैसे अनेक जन-आंदोलनों का नेतृत्व किया। उनकी गतिविधियों को अंग्रेजराजनीतिक असहमतिमानते थे, कि आपराधिक हिंसा। इसी कारण उन्हें आम तौर पर भारतीय मुख्यभूमि की जेलों में रखा गया, जैसे साबरमती, यरवदा या नैनी जेल। हां, नेहरू को बार-बार जेल भेजा गया। उन्होंने अपनी आत्मकथा, “डिस्कवरी ऑफ इंडिया“, जेल में ही लिखी। गांधी ने भी जेल में भूख हड़तालें कीं और कई बार जीवन-मृत्यु के संघर्ष किए। यह सही है कि गांधी और नेहरू को कुछ हद तक पढ़ने-लिखने की सुविधा, पत्राचार और स्वास्थ्य सुविधा दी गई, लेकिन यह इसलिए भी था क्योंकि अंग्रेज उन्हें अंतरराष्ट्रीय दबाव और आलोचना के डर से किसी भी प्रकार से शारीरिक नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते थे। गांधी की एक मौत पूरी ब्रिटिश साम्राज्य की नैतिक कब्र बन सकती थी, यह उन्हें मालूम था। लेकिन प्रश्न उठता है : अगर वे ब्रिटिशों केमुखबिरथे, तो उन्हें कालकोठरी में क्यों भेजा गया? इसका उत्तर है, उनकी क्रांतिकारी विचारधारा, जो हथियारबंद क्रांति और हिंदू राष्ट्रवाद पर आधारित थी। अंग्रेजों को उनसे वैचारिक नहीं, सुरक्षा का खतरा था। यहां जिक्र करना जरुरी है कि विनायक दामोदर सावरकर एक क्रांतिकारी राष्ट्रवादी थे। उन्होंनेअभिनव भारतनामक गुप्त संगठन की स्थापना की और 1857 की क्रांति कोभारत का पहला स्वतंत्रता संग्रामबताया। गांधी और नेहरू ने भारत को आज़ादी दिलाने के लिए अहिंसक आंदोलन, सत्याग्रह, असहयोग और भारत छोड़ो आंदोलन चलाए। वे कई बार जेल गए, लेकिन अधिकांशतः भारत की मुख्यभूमि की जेलों में, जहां उन्हें पत्र-व्यवहार, अध्ययन, पुस्तक लेखन जैसी सुविधाएं दी गईं। यहां प्रश्न उठता है : अगर वे ब्रिटिश विरोधी थे, तो उन्हेंसुविधाएंक्यों दी गईं? उत्तर है, अंग्रेज उन्हें अंतरराष्ट्रीय दबाव और जनभावना के चलते नियंत्रित करना चाहते थे, क्रांतिकारियों की तरह कुचलना नहीं। गांधी की मृत्यु ब्रिटिश शासन के लिए नैतिक आपदा बन सकती थी।

अब सबसे बड़ा प्रश्नः स्वतंत्रता दिवस पर सुभाष, भगत, आज़ाद की चर्चा क्यों नहीं? कांग्रेस और वामपंथी इतिहासकारों ने क्यों हाशिए पर रखा क्रांतिकारियों को? भारत की स्वतंत्रता के तुरंत बाद, कांग्रेस सत्ता में आई और इतिहास की कहानी उन्हीं के हाथों लिखी गई। उन्होंने नेहरू-गांधी को राष्ट्र केनायकके रूप में स्थापित किया और बाकियों कोसहयोगी’, ’क्रांतिकारी’, याप्रेरककहकर कमतर कर दिया। सुभाष चंद्र बोस, जिन्होंने आईएनए (आजाद हिंद फौज) बनाई, जिनकेतुम मुझे खून दो...“ जैसे नारों से भारत गूंजा, उन्हें अक्सर संदिग्ध नजरों से देखा गया। भगत सिंह, जिन्होंने जेल में किताबें पढ़ीं, मृत्यु से पहले भी विचार दिया, उन्हें सिर्फबम फेंकने वाला नौजवानकहा गया। चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु, बिस्मिल, आशफाक, दुर्गा भाभी, इन सबके बलिदान को महज एकक्रांतिकारी धाराकहकर समेट दिया गया। ये सभी नेता और शहीद नेहरू-गांधी की वैचारिक रेखा से अलग थे, इसलिए उन्हें भारत सरकार और कांग्रेस की मुख्यधारा से धीरे-धीरे अलग कर दिया गया। ऐसे में तो सवाल पूछा ही जायेगा, क्या देश को आज़ादी सिर्फ अहिंसा से मिली? या उन फांसी के फंदों और बमों की गूंज भी निर्णायक थी? क्या आज़ादी सिर्फ एक पार्टी की थी? या संपूर्ण भारत की? स्वतंत्रता दिवस पर यह समझना जरूरी है कि  आईएन सावरकर की कालकोठरी हो, गांधी की चुप्पी हो, नेहरू का कलम हो या भगत सिंह की फांसी, सभी ने एक भारत के लिए अपना जीवन दांव पर लगाया। मतलब साफ है भारत की आज़ादी किसी एक विचार, पार्टी, या व्यक्ति की नहीं थी। यह हिंदू महासभा से लेकर कांग्रेस तक, सुभाष बोस से लेकर चंद्रशेखर आज़ाद तक, हर विचार और हर बलिदान का संगम थी। स्वतंत्रता दिवस पर नायकों को चुनना नहीं, उनका समावेश करना चाहिए। स्वतंत्रता दिवस भारत को आज़ाद बनाने वालों को स्मरण करने का दिन है, कि किसी को ऊंचा या नीचा साबित करने का। स्वतंत्रता दिवस पर विचारधारा नहीं, बलिदान को करें नमन. जब सावरकर को काल कोठरी मिली और गांधी-नेहरू कोआरामदेह जेलेंतो क्या यह भेदभाव था या विचारधारा का अंतर नहीं है?

गांधी और नेहरू का आंदोलन अहिंसा, सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा पर आधारित था। अंग्रेजों के लिए यह आंदोलन एक राजनीतिक चुनौती था, लेकिन अपराध नहीं जैसा कि हथियारबंद क्रांतिकारियों का आंदोलन। गांधी और नेहरू को भी अनेक बार जेल भेजा गया, नेहरू 9 बार जेल गए, कुल लगभग 9 साल तक। परंतु उन्हें आमतौर पर भारत की मुख्य भूमि की जेलों में रखा गया ( कि कालापानी जैसे दूरस्थ और क्रूर जेलों में) और सीमित साहित्यिक सुविधाएं दी गईं। यह सुविधा उनके सामाजिक प्रभाव और अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण थी। अंग्रेजों को उनकी गिरफ्तारी से अंतरराष्ट्रीय आलोचना का भी भय रहता था। गांधी-नेहरू कोअभिजात्य वर्गमाना जाता था और उनके आंदोलन में जन समर्थन के कारण अंग्रेजों ने उन्हें नियंत्रण में रखने के लिएउदारदृष्टिकोण अपनाया, मगर यह कोई विशेष कृपा नहीं थी; वे भी बार-बार कैद हुए। इतिहास में घटनाएंकाले-सफेदमें नहीं होतीं, इसलिए सावरकर कोमुखबिरकह देना या गांधी-नेहरू कोअंग्रेजों के दोस्तबता देना,दोनों ही अतिवादी और असत्य रूप हैं। सावरकर और गांधी-नेहरू दोनों की स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका थी, पर उनका मार्ग और रणनीति भिन्न थी। एक ने हिंसा का रास्ता अपनाया, दूसरे ने अहिंसा का। अंग्रेजों की प्रतिक्रियाएं उसी हिसाब से अलग थीं। जहां सावरकर की रणनीति को लेकर प्रश्न उठते हैं, वहीं गांधी-नेहरू की नीति को लेकर भी आलोचनाएं होती रही हैं। कहा जा सकता है भारत की आज़ादी कई धाराओं, कई विचारों और अनेक बलिदानों का परिणाम थी, कि किसी एक विचारधारा की जीत।

यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि अंग्रेजों के लिए सबसे बड़ा डर था हिंसा और विदेशी मदद। इसलिए भगत सिंह, राजगुरु, सावरकर, बोस जैसे लोगों को कठोर सजा दी गई। वहीं, गांधी और नेहरू के आंदोलन को वेशांतिपूर्ण दबावके रूप में देखते थे, जिससे निपटने के लिए वे वैचारिक युद्ध अपनाते थे, कि सीधे गोली या फांसी। कहा जा सकता है भारत का इतिहास सिर्फकांग्रेस बनाम हिंदुत्व“, याअहिंसा बनाम हिंसातक सीमित नहीं है। बल्कि यह एक ऐसा संघर्ष था जिसमें अलग-अलग विचारधाराएं थीं, अलग-अलग यथार्थ थे और अपने-अपने तरीके से आज़ादी पाने की लालसा थी। सावरकर को काल कोठरी इसलिए मिली क्योंकि उन्होंने क्रांति का रास्ता चुना। गांधी और नेहरू को जेल मेंसुविधाएंइसलिए मिलीं क्योंकि उनका तरीका अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अनुरूप था। जबकि इतिहास को राजनीतिक चश्मे से देखने पर हम सत्य से दूर चले जाते हैं। यह सच है कि सावरकर ने माफीनामे दिए, लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने अंडमान जैसी भयानक जेल में जीवन बिताया। यह भी सच है कि गांधी-नेहरू ने कोई हथियार नहीं उठाया, लेकिन यह भी झूठ है कि उन्हें आराम की जिंदगी मिली। आज की राजनीति में इन चेहरों को अपने-अपने हिसाब से मोड़ने का चलन बढ़ा है। लेकिन हमें सच को तथ्यों, संदर्भ और संवेदनशील दृष्टिकोण से समझना चाहिए। अंततः स्वतंत्रता किसी एक पंथ, व्यक्ति या संगठन की नहीं थी। यह भारत माता के उन सभी बेटों और बेटियों की तपस्या, त्याग और बलिदान की संतान है, चाहे वे सावरकर हों, गांधी हों या नेताजी। 

हिंदुत्व शब्द सावरकर की देन

जेल में रहते हुए सावरकर ने साल 1923 में ’हिन्दुत्वा : हू इज हिन्दू नामक किताब लिखी थी जिसमे उन्होंने कई बार हिन्दू और हिंदुत्व शब्द का इस्तेमाल किया था। 1924 में रत्नागिरी जेल में नज़रबंदी से तो राहत मिली लेकिन रत्नागिरी से बाहर जाने की इजाजत नहीं दी गई। जेल से छूटने के बाद सावरकर ने हिन्दुओं को एक करने का प्रयास करना शुरू कर दिया। उन्होंने हिन्दू धर्म से छुआ छूत को ख़त्म करने का अभियान चलाया, अनुसूजित जाती और सवर्णों को एक साथ खाना खिलाने का काम किया. साल 1937 में वो हिन्दू महासभा के प्रेसिडेंट बने और 1948 में जब गांधी जी का नाथूराम गोडसे ने हत्या कर दी तो सावरकर पर भी इसके आरोप लगे, लेकिन कोई सबूत ना मिलने से उन्हें रिहा कर दिया गया। आरएसएस ने वीर सावरकर को अपना आदर्श पुरुष माना फिर जनसंघ और भाजपा ने भी सावरकर को अपना आदर्श माना। सावरकर के लिए देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक कविता भी लिखी थी उन्होंने लिखा था कि याद करें काला पानी को, अंग्रेजों की मनमानी को, कोल्हू में जुट तेल पेरते, सावरकर से बलिदानी को।

गांधी ने भी लिखा था सावरकर को पत्र

बता दें, गांधी जी के साथ अंग्रेजों का समझौता हुआ था? इसके अंतर्गत साल 1919 में पहले विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश किंग जॉर्ज 5जी ने भारत के जेल में बंद सभी कैदियों को रिहा करने का आर्डर जारी किया था. क्योंकि पहले विश्वयुद्ध के दौरान महात्मा गांधी समेत कई नेताओं ने अंग्रेजों के साथ वफादारी करने का वादा किया था। उस आदेश के बाद कई कैदी अंडमान जेल से रिहा हो गए लेकिन अंग्रेजों ने सावरकर और उनके भाई गणेश दामोदर सावरकर को छोड़ने से मना कर दिया था। जब विनायक दामोदर सावरकर और गणेश दामोदर दवारकर को ये पता चल गया कि अंग्रेज उन्हें जेल से रिहा नहीं करने वाले तो गणेश सावरकर ने गांधी को 18 जनवरी 1920 में पात्र लिखा था जिसका जिक्र विक्रम सम्पत ने अपनी किताब सावरकर : इकोज फ्राम व फारगेटेन पास्ट में भी किया है। गणेश सावरकर ने अपने पत्र में ये लिखा था कि अंग्रेज उन्हें जेल से नहीं छोड़ रहे हैं, ऐसी परिस्थित में क्या हो। विनायक की तबियत बिगड़ती जा रही है उनका वजन 45 किलो से भी काम हो गया है। इसके बाद गांधी जी ने 25 जनवरी 1920 को पत्र का जवाब लिखते हुए कहा था कि इस मामले में कोई सलाह देना मुश्किल है तुम मेरा एक सुझाव मानो और एक विस्तृत याचिका तैयार करो जिसमे ये साबित हो जाए की सावरकर एक राजनैतिक कैदी है। इस सुझाव को मानते हुए सावरकर ने अंग्रेजों को अपनी 6 वीं याचिका भेजी जिसे भी अंग्रेजों ने ख़ारिज कर दिया। गांधी जी ने अपने पत्र में ये भी लिखा था की इस मामले में (सावरकर भाई को रिहा कराने) मैं भी काम कर रहा हूं. उस वक़्त के एक अख़बार चलता था जिसका नाम था यंग इंडिया, उस अख़बार में गांधी जी ने एक आर्टिकल लिखा था जिसका टाइटल था सावरकर बदर्स, इसमें राष्ट्रपिता ने लिखा था कि सावरकर भाइयों पर जो आरोप लगे हैं वो होते हैं उन्हें किंग जॉर्ज के आदेशानुसार रिहा कर देना चाहिए।

 

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