भारत-चीन-जापान रिश्तों में सहयोग की नई डोर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राएं अब केवल राजनयिक औपचारिकताएं नहीं रहीं, बल्कि भारत की बदलती वैश्विक भूमिका और एशिया में शक्ति संतुलन की दिशा तय करने वाली कड़ी बन गई हैं। हाल ही में चीन से सीमा विवाद पर नरमी, कैलाश-मानसरोवर यात्रा का पुनः मार्ग प्रशस्त होना और जापान दौरे से निवेश व तकनीकी सहयोग के नए द्वार खुलना इसी सिलसिले के अहम पड़ाव हैं। खासकर भारत-चीन संबंध आज सीमा से श्रद्धा तक एक नई डोर से बंधते दिख रहे हैं। बॉर्डर सहमति, कैलाश-मानसरोवर यात्रा और बढ़ते संवाद निश्चित रूप से सकारात्मक संकेत हैं। किंतु भारत को इस रिश्ते को आगे बढ़ाते हुए अपने राष्ट्रीय हित, सुरक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता पर सबसे अधिक ध्यान देना होगा। सहयोग की राह खुल रही है, लेकिन इसमें सावधानी और रणनीतिक सोच ही भारत के लिए सबसे बड़ा लाभ सुनिश्चित कर सकती है
सुरेश गांधी
भारत-चीन संबंध लंबे समय से तनाव और विश्वासघात की छाया में रहे हैं। डोकलाम और गलवान जैसी घटनाओं ने यह साफ किया कि सीमा पर सतर्कता आवश्यक है। इसके बावजूद दोनों देशों ने संवाद की डोर पकड़ी है। मानसरोवर यात्रा इसका प्रतीक बनी है, जहां श्रद्धा और कूटनीति का संगम दिखता है। सीमा पर शांति कायम होती है तो व्यापार और सांस्कृतिक सहयोग को नया आधार मिल सकता है। दूसरी ओर, प्रधानमंत्री का जापान दौरा भारत की “एक्ट ईस्ट“ नीति को मजबूती देता है। जापान न केवल भारत का भरोसेमंद निवेशक है, बल्कि क्वाड जैसी सुरक्षा पहलों में भी साझेदार है। बुलेट ट्रेन परियोजना से लेकर हरित ऊर्जा और डिजिटल तकनीक तक, जापानी सहयोग भारत की विकास यात्रा को नई गति देता है। इन बदलते समीकरणों का असर पाकिस्तान, अमेरिका और रूस जैसे देशों पर भी पड़ेगा। पाकिस्तान, भारत-चीन की किसी भी नजदीकी से असहज होता है, जबकि अमेरिका के लिए यह संदेश है कि भारत अपनी विदेश नीति स्वतंत्र ढंग से गढ़ रहा है।
ट्रम्पकालीन “टैरिफ दादागिरी“ से सबक लेकर भारत अब बहुपक्षीय साझेदारी को प्राथमिकता दे रहा है। रूस के साथ भी भारत का रक्षा व ऊर्जा सहयोग कायम है, जिससे वैश्विक मंच पर संतुलन बनाए रखने में मदद मिलती है। भारत के लिए यह रणनीति अवसरों और चुनौतियों, दोनों को साथ लाती है। चीन के साथ सहयोग से व्यापार बढ़ सकता है, परंतु अंधविश्वास नुकसानदेह होगा। जापान के साथ गहरे संबंध भारत को तकनीकी और आर्थिक मजबूती देंगे। यही संतुलित विदेश नीति भारत को “विश्वगुरु“ की भूमिका की ओर अग्रसर कर सकती है। भारत और चीन, एशिया की दो महाशक्तियां, जिनके रिश्तों ने सदियों से व्यापार, संस्कृति और आस्था के अनेक पड़ाव देखे हैं। लेकिन आधुनिक दौर में सीमा विवाद, सामरिक प्रतिस्पर्धा और भू-राजनीतिक तनाव अक्सर इन संबंधों को उलझाते रहे हैं। हाल ही में दोनों देशों के बीच सीमा प्रबंधन पर सहमति और कैलाश-मानसरोवर यात्रा को नया आयाम देने की चर्चा ने इन रिश्तों में सहयोग की एक नई डोर बुनने की संभावना जगाई है। गलवान घाटी की घटना के बाद रिश्ते बेहद तनावपूर्ण हो गए थे। सीमा पर सैनिक टकराव और विश्वास की कमी ने दोनों देशों को दूर कर दिया। लेकिन अब बातचीत और सहमति के जरिए तनाव कम करने के संकेत मिले हैं। यदि यह पहल ठोस रूप लेती है तो बॉर्डर पर शांति का वातावरण बनेगा, जो व्यापार और आपसी भरोसे को मजबूत कर सकता है।
कैलाश-मानसरोवर यात्रा केवल धार्मिक नहीं,
बल्कि सांस्कृतिक सेतु भी है।
श्रद्धालु जब बिना अवरोध
इस यात्रा को कर पाएंगे
तो यह दोनों देशों
के बीच जन-जन
के रिश्तों को प्रगाढ़ करेगा।
आस्था और विश्वास का
यह जुड़ाव कूटनीतिक संवाद को भी सहज
बनाएगा। भारत और चीन
का व्यापारिक संबंध बहुत गहरा है।
भारत जहां चीनी इलेक्ट्रॉनिक्स
और मशीनरी पर निर्भर है,
वहीं चीन भारतीय बाजार
को सबसे बड़े उपभोक्ता
के रूप में देखता
है। सीमा शांति से
व्यापार और निवेश को
बढ़ावा मिलेगा, लेकिन चीनी सामान पर
अत्यधिक निर्भरता भारत के लिए
खतरा भी है। आत्मनिर्भर
भारत अभियान और घरेलू उद्योगों
को बढ़ावा देकर ही इस
असंतुलन को संतुलित किया
जा सकता है।
भारत-चीन रिश्तों में नरमी का असर पाकिस्तान, अमेरिका और रूस जैसे देशों पर भी पड़ेगा। पाकिस्तान के लिए यह स्थिति असहज होगी क्योंकि उसका चीन पर विशेष झुकाव रहा है। अगर भारत-चीन समीपता बढ़ती है तो पाकिस्तान की रणनीति कमजोर पड़ेगी। अमेरिका को यह चिंता होगी कि भारत कहीं उसकी इंडो-पैसिफिक नीति से दूरी न बना ले। ट्रम्प या किसी भी अमेरिकी नेतृत्व की “दादागिरी“ भारत पर दबाव बनाए रखने की कोशिश कर सकती है। रूस दोनों देशों को जोड़ने वाले पुल की तरह भूमिका निभा सकता है। ब्रिक्स और एससीओ मंच भारत-चीन-रूस सहयोग का मजबूत
आधार बन सकते हैं। यदि सीमा शांति और धार्मिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान आगे बढ़ता है तो एशिया की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाएं न केवल अपने लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए नए अवसर खोल सकती हैं। लेकिन इसके साथ सतर्कता भी जरूरी है, क्योंकि चीन की नीतियों में अचानक बदलाव असंभव नहीं है।सीमा विवाद से समझौते तक
भारत और चीन,
एशिया की दो सबसे
बड़ी महाशक्तियां, जब भी संवाद
और सहयोग की राह पर
चलती हैं तो उसका
असर केवल सीमा तक
सीमित नहीं रहता, बल्कि
कूटनीति, व्यापार, सांस्कृतिक जुड़ाव और वैश्विक शक्ति
संतुलन तक फैलता है।
हाल के दिनों में
बॉर्डर सहमति और कैलाश-मानसरोवर
यात्रा को लेकर बनी
नई सहमति ने रिश्तों में
एक नरमी का संकेत
दिया है। पिछले कुछ
वर्षों में गलवान घाटी
जैसी घटनाओं ने रिश्तों को
गहरी ठेस पहुंचाई थी।
विश्वास का संकट दोनों
देशों के बीच स्पष्ट
दिखाई दे रहा था।
लेकिन अब धीरे-धीरे
बॉर्डर प्रबंधन पर बातचीत और
तनाव कम करने की
कोशिशों से यह संकेत
मिल रहा है कि
दोनों पक्ष स्थिरता चाहते
हैं। हालांकि भारत के लिए
यह सावधानी का विषय है
कि सीमाई सहमति कहीं रणनीतिक छलावा
न बन जाए।
श्रद्धा और कूटनीति का संगम
मानसरोवर यात्रा भारत-चीन संबंधों
का एक आध्यात्मिक सेतु
है। इस यात्रा को
सहज बनाना श्रद्धालुओं के लिए तो
राहत है ही, साथ
ही यह संकेत भी
है कि दोनों देश
सांस्कृतिक रिश्तों की मजबूती से
राजनीतिक सहयोग का रास्ता बनाना
चाहते हैं।
व्यापारिक रिश्ते : अवसर और चुनौतियां
भारत-चीन का व्यापार आज 135 अरब डॉलर से अधिक है। भारत के लिए यह बड़ा बाज़ार और निवेश का अवसर है, लेकिन घाटे की स्थिति चिंताजनक है। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि ‘मेड इन इंडिया’ उत्पाद चीन की निर्भरता कम करें और तकनीकी क्षेत्र में आत्मनिर्भरता बढ़े।
वैश्विक राजनीति और रणनीतिक समीकरण
चीन के साथ
भारत की निकटता पाकिस्तान
पर दबाव बना सकती
है, क्योंकि पाकिस्तान की विदेश नीति
बीजिंग पर टिकी है।
वहीं अमेरिका और यूरोप चीन
को कड़ी नज़र से
देखते हैं, ऐसे में
भारत को संतुलन साधने
की चुनौती होगी। रूस, जो पारंपरिक
मित्र है, भारत-चीन
सहयोग को एक स्थिर
एशिया के रूप में
देखता है, लेकिन भारत
को यह ध्यान रखना
होगा कि कहीं वह
किसी शक्ति-गुट की कठपुतली
न बने।
संभावनाएं और सतर्कता
सहयोग की यह नई
डोर भारत के लिए
अवसर भी है और
चुनौती भी। सीमा पर
स्थिरता और सांस्कृतिक आदान-प्रदान रिश्तों को नई ऊर्जा
दे सकते हैं, लेकिन
चीन की नीतियों पर
भरोसा बिना परख के
नहीं किया जा सकता।
भारत को अपने हितों
की रक्षा करते हुए संवाद
की राह पर चलना
होगा। मतलब साफ है
भारत-चीन रिश्तों की
नई पहल एक सकारात्मक
संदेश है। सीमा से
श्रद्धा तक फैली यह
डोर सहयोग और विश्वास की
ओर संकेत देती है, लेकिन
भारत को यह नहीं
भूलना चाहिए कि हर नरमी
के पीछे रणनीति छिपी
हो सकती है। इसलिए
सहयोग की राह पर
बढ़ते हुए सतर्क रहना
ही भारत के हित
में होगा।
भारत-चीन सहयोग बनाम भारत-जापान भरोसा
धार्मिक व
सांस्कृतिक ः
कैलाश-मानसरोवर यात्रा का मार्ग खुलना,
श्रद्धालुओं के लिए सहूलियत
बौद्ध व सांस्कृतिक धरोहर से प्राचीन जुड़ाव,
शांति व लोकतंत्र की
साझी धारा
सुरक्षा : सीमा
विवाद अभी भी जीवित,
भरोसा सीमित, हिंद-प्रशांत और
क्वाड में गहरा सहयोग,
रक्षा समझौते और संयुक्त अभ्यास
आर्थिक ः
व्यापार बड़ा लेकिन असंतुलित,
चीन से भारी आयात
टेक्नोलॉजी, बुनियादी ढांचा और निवेश में
भरोसेमंद साझेदारी, मतलब साफ है
व्यापार और निवेश के
नए अवसर खुल सकते
हैं, एशियाई बाजार में भारत की
स्थिति मजबूत होगी। व्यापार बढ़ने पर भी
चीन से भारत का
आयात कहीं अधिक है,
जिससे घाटा और निर्भरता
बढ़ सकती है।
रणनीतिक महत्व
ः संबंध ज़रूरी लेकिन सतर्कता के साथ दीर्घकालिक
भरोसे पर आधारित साझेदारी
यानी रूस और अमेरिका
के बीच संतुलन साधते
हुए भारत एशिया में
नई शक्ति संरचना का अहम हिस्सा
बन सकता है। जबकि
चीन का पाकिस्तान से
गहरा रिश्ता और सीपेक (सीपीईसी)
परियोजना भारत की सुरक्षा
चुनौती बनी रहेगी.
भरोसे का
संकट
: चीन अक्सर समझौतों के बाद पीछे
हटने का इतिहास रखता
है, जिससे अचानक तनाव का खतरा
बना रहेगा।
भूराजनीतिक दबाव
: अमेरिका और पश्चिमी देशों
से भारत के रिश्तों
पर असर पड़ सकता
है यदि चीन से
नजदीकी बहुत बढ़ी। मतलब
साफ है सीमा से
श्रद्धा तक बढ़ी यह
नई डोर तभी स्थायी
लाभ देगी जब भारत
सजग रहकर कूटनीतिक और
आर्थिक संतुलन साधे। सहयोग की राह खुल
रही है, परंतु सतर्कता
ही भारत हित की
सच्ची गारंटी है।
भारत का नफा-नुकसान
नफा
: श्रद्धा, सीमित व्यापारिक लाभ,
नुकसानः
सुरक्षा जोखिम, व्यापार घाटा
नफा
टेक्नोलॉजी, निवेश, सुरक्षा सहयोग
नुकसानः
सीमित बाज़ार, चीन की नाराज़गी
रूस
और अमेरिका
रूस
: परंपरागत मित्र, रक्षा और ऊर्जा सहयोग
का बड़ा स्तंभ। हालांकि
यूक्रेन युद्ध ने रूस को
चीन पर अधिक निर्भर
कर दिया है, जिससे
भारत को रणनीतिक संतुलन
साधना पड़ रहा है।
अमेरिका
: इंडो-पैसिफिक रणनीति और तकनीकी सहयोग
का अहम साझेदार। ट्रम्प
काल में “टैरिफ दादागिरी“
से व्यापारिक तनाव दिखा, लेकिन
समग्र रूप से अमेरिका
भारत की सबसे भरोसेमंद
टेक्नोलॉजी और सुरक्षा साझेदारी
बना हुआ है।
भारत को संभावित लाभ
1. आर्थिक मोर्चे पर दृ चीन
के साथ रिश्ते सुधरने
से व्यापारिक सहयोग की नई संभावनाएं
बन सकती हैं। भारत
की आईटी, फार्मा और कृषि आधारित
उत्पादों के लिए बड़ा
बाजार खुल सकता है।
2. रणनीतिक दृष्टि से पाकिस्तान पर
चीन का अंधा समर्थन
यदि कम होता है,
तो भारत के लिए
यह सबसे बड़ी कूटनीतिक
जीत होगी।
3. क्षेत्रीय शांति : सीमा क्षेत्रों में
शांति से भारत अपनी
ऊर्जा विकास और सुरक्षा पर
केंद्रित कर सकेगा।
नुकसान
की आशंकाएं
1. व्यापारिक असंतुलन दृ चीन पहले
ही भारत में सस्ते
सामान की बाढ़ लाकर
स्थानीय उद्योग को नुकसान पहुंचा
चुका है। रिश्तों में
सुधार से यह खतरा
और बढ़ सकता है।
2. रणनीतिक अविश्वास : चीन की नीतियां
अक्सर दोहरे मापदंड वाली रही हैं।
एक ओर सहयोग की
बात और दूसरी ओर
पाकिस्तान को हथियार देना,
भारत के लिए जोखिम
भरा हो सकता है।
3. अमेरिकी असहजता : भारत-चीन निकटता
से अमेरिका और पश्चिमी देशों
के साथ भारत के
रिश्तों पर असर पड़
सकता है।
वैश्विक समीकरण और भारत का हित
भारत-चीन सहयोग
से पाकिस्तान का भारत-विरोधी
एजेंडा कमजोर पड़ सकता है।
वहीं रूस को एशिया
में “स्थिर त्रिकोण” बनाने का मौका मिलेगा।
ट्रंप जैसी अमेरिकी दादागिरी
वाली नीतियों का संतुलन साधने
के लिए भारत के
पास एक विकल्प और
होगा। लेकिन भारत को यह
संतुलन बेहद सतर्कता से
साधना होगा ताकि कहीं
यह “दो नावों में
सवार” होने की स्थिति
न बन जाए। भारत-चीन रिश्तों में
नई पहल केवल सीमा
विवाद या तीर्थयात्रा तक
सीमित नहीं है। इसका
असर पाकिस्तान की रणनीति, अमेरिका
की दबाव वाली नीतियों
और रूस की भूमिका
तक फैला है। यदि
दोनों देश सहयोग की
डोर को मजबूती से
थामते हैं, तो यह
केवल एशिया ही नहीं बल्कि
पूरी दुनिया की स्थिरता और
विकास के लिए निर्णायक
मोड़ साबित हो सकता है।
भारत-चीन रिश्तों में नई हवा
भारत और चीन,
एशिया की दो सबसे
पुरानी सभ्यताएं और दुनिया की
सबसे बड़ी आबादी वाले
देश। दोनों के रिश्तों का
इतिहास उतना ही पुराना
है जितना गंगा और यांग्त्से
का बहाव। कभी बौद्ध धर्म
और व्यापार ने इनको जोड़ा,
तो कभी सीमा विवादों
और युद्ध ने दूरियां पैदा
कीं। आज जब वैश्विक
राजनीति तेजी से बदल
रही है, ऐसे में
भारत-चीन रिश्तों में
बॉर्डर सहमति और मानसरोवर यात्रा
पर बनी सहूलियत नई
आशाओं की किरण लेकर
आई है। यह किसी
से छुपा नहीं कि
भारत-चीन सीमा विवाद
दशकों से रिश्तों का
सबसे बड़ा अवरोध है।
1962 का युद्ध, डोकलाम की तनातनी और
2020 का गलवान संघर्ष आज भी दोनों
देशों की स्मृति में
ताजा है। सीमा पर
तनाव केवल सैनिकों तक
सीमित नहीं रहता, बल्कि
यह व्यापार, पर्यटन और सांस्कृतिक आदान-प्रदान पर भी गहरा
असर डालता है। हाल ही
में बॉर्डर प्रबंधन को लेकर हुई
सहमति इस लिहाज से
अहम है कि यह
विश्वास बहाली की दिशा में
ठोस कदम हो सकता
है। यदि यह सहमति
जमीन पर उतरती है,
तो सीमाई इलाकों में शांति कायम
होगी, लोगों का आवागमन आसान
होगा और रक्षा बलों
पर तनाव घटेगा। भारत-चीन रिश्ते कभी
आसान नहीं रहे। अविश्वास
की दीवारें अभी भी खड़ी
हैं। लेकिन बॉर्डर सहमति और मानसरोवर यात्रा
जैसी पहलें विश्वास बहाली की नई शुरुआत
हो सकती हैं। यह
केवल दो देशों के
बीच का समझौता नहीं,
बल्कि करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था, व्यापारिक
रिश्तों की मजबूती और
एशिया की स्थिरता से
जुड़ा विषय है। यदि
दोनों देश ईमानदारी से
इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाते
हैं, तो भविष्य में
न केवल सीमा पर
शांति स्थापित होगी, बल्कि भारत और चीन
मिलकर 21वीं सदी को
एशिया की सदी बनाने
की राह भी प्रशस्त
कर सकते हैं।
भारत-जापान के रिश्तों में नई मजबूती
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हालिया
जापान दौरा भारत-जापान
संबंधों में मील का
पत्थर साबित हुआ है। इस
यात्रा की सबसे बड़ी
उपलब्धि रही जापान का
ऐलान, अगले दस वर्षों
में भारत में 10 ट्रिलियन
येन (करीब 6.5 लाख करोड़ रुपये)
का निजी निवेश। इसे
भारत की विकास गाथा
में निर्णायक कदम माना जा
रहा है। यात्रा के
दौरान दोनों देशों ने “जॉइंट विज़न
फॉर द नेक्स्ट डिकेड”
जारी किया, जिसमें आर्थिक विकास, रक्षा सहयोग, डिजिटल नवाचार, क्रिटिकल मिनरल्स, स्वास्थ्य, हरित ऊर्जा और
सांस्कृतिक आदान-प्रदान जैसे
क्षेत्रों को प्राथमिकता दी
गई। यह रोडमैप आने
वाले दशक में साझेदारी
की दिशा तय करेगा।
जापान पहले ही दिल्ली-मुंबई औद्योगिक कॉरिडोर, बुलेट ट्रेन परियोजना, इंफ्रास्ट्रक्चर और मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्रों
में भारत का बड़ा
साझेदार है। अब यह
नया निवेश भारत की “मेक
इन इंडिया“ और “वोकल फॉर
लोकल“ जैसी पहलों को
वैश्विक बाजार से जोड़ने वाला
साबित होगा। भारत के बढ़ते
स्टार्टअप ईकोसिस्टम, डिजिटल इंडिया मिशन, सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग, इलेक्ट्रिक मोबिलिटी और हरित ऊर्जा
क्षेत्रों में यह निवेश
निर्णायक साबित होगा। जापान के निवेश से
भारत को न केवल
पूंजी बल्कि अत्याधुनिक तकनीक और प्रबंधन का
लाभ भी मिलेगा। मोदी
ने जापान के प्रधानमंत्री शिगेरू
इशिबा के अलावा पूर्व
प्रधानमंत्रियों योशीहिदे सुगा और फूमियो
किशिदा से भी मुलाकात
की। जापानी संसद अध्यक्ष व
सांसदों से बातचीत ने
इस रिश्ते को द्विदलीय समर्थन
का स्थायी आधार दिया। एक
ऐतिहासिक पहल के तहत
जापान के 16 प्रीफेक्चर्स के गवर्नरों ने
भी पीएम मोदी से
भेंट की। यह राज्य-स्तरीय जुड़ाव निवेश और सांस्कृतिक सहयोग
को जन-जन तक
पहुंचाने वाला कदम है।
भारत-जापान की यह साझेदारी
केवल द्विपक्षीय नहीं है, बल्कि
वैश्विक राजनीति और एशियाई संतुलन
में भी अहम भूमिका
निभाती है। क्वाड और
इंडो-पैसिफिक रणनीति के तहत दोनों
देश लोकतांत्रिक मूल्यों और समुद्री सुरक्षा
की गारंटी के रूप में
उभर रहे हैं। कुल
मिलाकर, मोदी का यह
दौरा भारत-जापान रिश्तों
को आर्थिक से लेकर सांस्कृतिक
और रणनीतिक तक हर स्तर
पर नई ऊँचाई देने
वाला साबित हुआ है। विशेष
रूप से रक्षा और
सुरक्षा सहयोग पर भी जोर
दिया गया। हिंद-प्रशांत
क्षेत्र में चीन की
बढ़ती आक्रामकता और समुद्री मार्गों
की सुरक्षा को देखते हुए
भारत और जापान की
साझेदारी विश्व शांति और स्थिरता के
लिए अहम है। भारत
की “एक्ट ईस्ट“ नीति
और जापान की “फ्री एंड
ओपन इंडो-पैसिफिक“ दृष्टि
एक-दूसरे को पूरक बनाती
हैं।
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