Monday, 18 August 2025

विपक्ष की जिम्मेदारी या देश को बदनाम करने की राजनीति?

विपक्ष की जिम्मेदारी या देश को बदनाम करने की राजनीति

भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसका बहुदलीय प्रणाली और सशक्त विपक्ष है। यह सच है कि अगर सत्ता पक्ष सरकार चलाता है तो विपक्ष लोकतंत्र को जीवित रखता है। परंतु सवाल तब उठता है जब विपक्ष अपनी इस भूमिका से भटककर केवल नकारात्मक राजनीति और देश को अंतरराष्ट्रीय मंच पर बदनाम करने का माध्यम बन जाए। बीते 70 वर्षों में भारतीय राजनीति ने कई उतार-चढ़ाव देखे। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और उसके पूर्ववर्ती जनसंघ ने लंबे समय तक विपक्ष की राजनीति की। कभी लोकसभा में दो सीटों से शुरुआत करने वाली पार्टी ने
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एक ईंट जोड़कर खुद को मजबूत किया। वह सरकार की नीतियों की आलोचना करती रही, लेकिन कभी भी भारत की छवि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धूमिल नहीं होने दिया। इसके उलट, पिछले 11 वर्षों से विपक्ष (विशेषकर कांग्रेस सहित बड़े दलों का गठबंधन) अक्सर ऐसे मुद्दों को विदेशी मंचों तक लेकर गया, जिनसे सीधे-सीधे भारत की साख पर प्रश्नचिह्न लगा। लोकतंत्र पर हमला, न्यायपालिका पर अविश्वास, चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर संदेह और यहां तक कि भारत की सैन्य कार्रवाइयों पर भी सवाल खड़े किए गए। यही वह बिंदु है जिस पर आज बहस की जरूरत है. ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या विपक्ष का यही दायित्व है

सुरेश गांधी

भारत जैसे लोकतंत्र में सशक्त और जिम्मेदार विपक्ष अनिवार्य है। लेकिन विपक्ष का यह स्वरूप भारत की छवि बचाने वाला होना चाहिए, कि उसे धूमिल करने वाला। बीजेपी ने अपने विपक्षी दौर में यह साबित किया कि रचनात्मक आलोचना से भी जनता का विश्वास जीता जा सकता है। कांग्रेस और वर्तमान विपक्ष को समझना होगा कि केवल मोदी विरोध की राजनीति से कुछ हासिल नहीं होगा। अगर विपक्ष जनता की नब्ज पकड़ना चाहता है तो उसे रचनात्मक, जिम्मेदार और राष्ट्रहितकारी भूमिका निभानी होगी। लेकिन विपक्ष सिर्फ और सिर्फ मोदी विरोध में भारत की छबि बिगाड़नें में आमादा है। खासकर कांग्रेस और उसके शीर्ष नेता कई बार विदेशों में जाकर कहते हैं कि भारत में लोकतंत्र खतरे में है। यह बयान विदेशी मीडिया की सुर्खियां तो बनते हैं, परंतु इससे भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं पर अंतरराष्ट्रीय संदेह खड़ा होता है। विपक्ष बार-बार यह कहता रहा कि न्यायपालिका दबाव में है और चुनाव आयोग निष्पक्ष नहीं है। यह आरोप भारत की संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता को कम करने का काम करते हैं।

उरी और बालाकोट स्ट्राइक के बाद कई विपक्षी नेताओं ने सबूत मांगकर सेना के पराक्रम को कटघरे में खड़ा किया। यह केवल देशवासियों के मनोबल को कमजोर करता है बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान जैसे देशों को भारत के खिलाफ प्रोपेगैंडा का अवसर देता है। कई अवसरों पर विपक्षी नेताओं ने यूरोप और अमेरिका के थिंक टैंकों में जाकर भारत की आंतरिक राजनीति पर इस तरह बयान दिए जैसे भारत में लोकतंत्र समाप्त हो चुका हो। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या यही विपक्ष की जिम्मेदारी है? जबकि लोकतंत्र की मूल भावना यह है कि विपक्ष सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए, लेकिन देश की छवि को बचाए। आलोचना और देशद्रोह के बीच एक महीन रेखा होती है। अफसोस है कि संसद के भीतर बहस करना, सरकार को जवाबदेह बनाना, जनता की समस्याओं, महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर वैकल्पिक समाधान प्रस्तुत करने के साथ ही सत्ता पक्ष की गलतियों को उजागर करने के बजाय भारत की संप्रभुता और लोकतांत्रिक संस्थाओं की विश्वसनीयता को ही कमजोर करने पर तुली है. औरमोदी विरोधसे आगे नहीं बढ़ पा रहा। या यूं कहे नीतियों पर ठोस बहस की जगह व्यक्तिगत हमले और विदेशी मंचों पर भारत की छवि को धूमिल करना विपक्ष की प्राथमिकता बन चुका है. 

यहां जिक्र करना जरुरी है कि बीजेपी और उसके वैचारिक संगठन आरएसएस ने 1950-2014 तक विभिन्न दौरों में लंबे समय तक विपक्ष की राजनीति की। 1975 की इमरजेंसी से लेकर 1984 में मात्र दो सीटों पर सिमटने तक, पार्टी ने कठिन परिस्थितियों का सामना किया। 1977 के दौर में इमरजेंसी के खिलाफ लड़ाई में जनसंघ बीजेपी नेताओं ने लोकतंत्र की रक्षा के लिए जेल यातनाएं सही लेकिन भारत की प्रतिष्ठा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मजबूत करने का काम किया। 1984 के चुनाव में मात्र दो सीटें जीतने के बावजूद बीजेपी ने हार को आत्ममंथन का माध्यम बनाया, पराजय को विदेशों में देश की कमजोरी के रूप में कभी प्रस्तुत नहीं किया। अयोध्या आंदोलन और 1990 के दौर में भी बीजेपी ने वैचारिक आंदोलन चलाए, लेकिन उसके एजेंडे का फोकस भारत की आंतरिक राजनीति तक ही रहा। इस पूरे कालखंड में बीजेपी ने सत्ता पक्ष को कठघरे में खड़ा किया, आंदोलनों को धार दी, लेकिन भारत की साख और लोकतंत्र पर सवाल उठाने से परहेज किया। लेकिन कांग्रेस और वर्तमान विपक्ष 2014 के बाद से लगातार देश की छबि को धूमिल कर रहा है।

देखा जाएं तो 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की ऐतिहासिक विजय के बाद विपक्ष की भूमिका कांग्रेस और उसके सहयोगियों के पास रही। लेकिन यहां से विपक्ष ने रचनात्मक आलोचना की जगह लगातार भारत को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कठघरे में खड़ा करने की राजनीति शुरू कर दी, जो आज भी जारी है. जब विपक्ष विदेशों में जाकर कहता है कि भारत में लोकतंत्र खतरे में है, तो इसका असर केवल सरकार पर नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र पर पड़ता है। विदेशी निवेशक, वैश्विक मीडिया और कूटनीतिक संस्थान ऐसे बयानों को गंभीरता से लेते हैं। जनता के बीच भी यह संदेश जाता है कि विपक्ष केवल विरोध के लिए विरोध कर रहा है। शायद यही कारण है कि लगातार तीन लोकसभा चुनावों (2014, 2019, 2024) में विपक्ष मजबूत विकल्प पेश करने में विफल रहा।

कहा जा सकता है बीजेपी ने विपक्ष रहते भारत की गरिमा बचाई, कांग्रेस सहित विपक्ष 11 साल से देश को बदनाम करने में व्यस्त है. जबकि भारतीय लोकतंत्र की ताकत ही उसका विविधता से भरा हुआ बहस-विमर्श है। यहां सरकार और विपक्ष दोनों ही लोकतंत्र की गाड़ी के दो पहिये माने जाते हैं। सरकार नीति बनाती है और विपक्ष उस पर सवाल उठाता है, खामियों को उजागर करता है और जनता के हितों की रक्षा करता है। लेकिन पिछले एक दशक में यह सवाल गहराई से उभरा है कि क्या विपक्ष अपनी मूल जिम्मेदारी निभा रहा है या फिर केवल सरकार विरोध तक सीमित होकर देश की छवि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कमजोर कर रहा है?इसका जवाब देश की जनता जानना चाहती है.

विपक्ष का दायित्व बनाम वर्तमान परिप्रेक्ष्य

संविधान निर्माताओं ने विपक्ष को लोकतंत्र का प्रहरी कहा था। विपक्ष का कार्य केवलनकारात्मक आलोचनानहीं बल्किसकारात्मक सुझाव और वैकल्पिक दृष्टिकोणप्रस्तुत करना है। विपक्ष यह सुनिश्चित करता है कि सत्ताधारी दल मनमानी करे और जनता की आवाज दबाई जाए। लेकिन आज देखने में आता है कि कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल संसद से लेकर अंतरराष्ट्रीय मंच तक भारत की छवि पर सवाल उठाते हुए दिखते हैं। जहां भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने लंबे समय तक विपक्ष में रहकर भी भारत की छवि को कभी कलंकित नहीं किया, वहीं मौजूदा विपक्ष अकसर विदेशी धरती से देश के लोकतंत्र और संस्थाओं पर सवाल खड़े करता रहा है।

जब बीजेपी विपक्ष में थी

बीजेपी की शुरुआत दो सांसदों से हुई थी। 1984 में लोकसभा में पार्टी के पास केवल 2 सीटें थीं। इसके बाद 1996 तक पार्टी ने लगातार विपक्ष की भूमिका निभाई। अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता ने संसद में सरकार की नीतियों पर कड़ी आलोचना की, लेकिन कभी भी देश के लोकतंत्र की वैश्विक छवि को धूमिल नहीं होने दिया। बीजेपी विपक्ष में रहते हुए जन आंदोलनों में उतरती रही, चाहे रामजन्मभूमि आंदोलन हो, भ्रष्टाचार विरोधी संघर्ष हो या किसान-श्रमिकों की आवाज। विदेश नीति, सेना और न्यायपालिका जैसे विषयों पर विपक्ष ने राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि माना और कभी भी अंतरराष्ट्रीय मंचों से भारत को कमजोर करने का प्रयास नहीं किया।

कांग्रेस और विपक्ष का तेवर

2014 के बाद से जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिला और कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई, तब से विपक्ष की राजनीति में एक बड़ा बदलाव दिखा। लोकतंत्र पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर कांग्रेस के कई नेता और अन्य विपक्षी दलों के प्रतिनिधि विदेशी धरती पर जाकर यह बयान देते रहे कि भारत में लोकतंत्र खतरे में है। न्यायपालिका और चुनाव आयोग पर अविश्वास जताते हुए विपक्ष ने समय-समय पर चुनाव आयोग, ईवीएम और न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल उठाए, जबकि ये संस्थाएं लोकतंत्र की रीढ़ हैं। विदेशी मंचों का इस्तेमाल करते हुए राहुल गांधी जैसे वरिष्ठ नेता ने ब्रिटेन और अमेरिका में जाकर कहा कि भारत में असहमति की आवाज दबाई जा रही है। सवाल उठता है कि क्या यह आलोचना देश के भीतर नहीं हो सकती थी? राष्ट्रीय सुरक्षा पर शंका करते हुए सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक जैसे निर्णायक सैन्य कदमों पर भी विपक्ष ने सबूत मांगने जैसी बातें कीं, जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की दृढ़ता पर प्रश्नचिह्न लगा।

क्या यही है विपक्ष की जिम्मेदारी?

लोकतंत्र में स्वस्थ बहस अनिवार्य है। महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर विपक्ष को सरकार से सवाल पूछने चाहिए। लेकिन अगर वही सवाल अंतरराष्ट्रीय मंचों से उठाकर भारत की संप्रभुता और लोकतांत्रिक छवि को कमज़ोर करने लगें तो यह जिम्मेदारी नहीं बल्कि चूक है। विपक्ष की भूमिका जनता की आवाज़ बनना, सरकार को गलतियों पर घेरना, सकारात्मक विकल्प देना होनी चाहिए। लेकिन भारत की छवि से समझौता करना कभी भी स्वीकार्य नहीं हो सकता।

कांग्रेस के प्रति जनता का आक्रोश

कांग्रेस लंबे समय तक सत्ता में रही। आज जब वह विपक्ष में है तो जनता उससे उम्मीद करती है कि वह एक जिम्मेदार भूमिका निभाए। लेकिन कांग्रेस की मौजूदा राजनीति ने कई बार यह आभास कराया कि उसका उद्देश्य केवल मोदी विरोध है, चाहे इसके लिए भारत की साख को ही क्यों दांव पर लगाना पड़े। जनता भी अब इस प्रवृत्ति को पहचान रही है। चुनाव दर चुनाव कांग्रेस का जनाधार घटता गया और बीजेपी का मजबूत हुआ। इसका एक बड़ा कारण यही है कि जनता को लगता है कि विपक्ष का ध्यान जनता की समस्याओं से ज्यादा सत्ता विरोध और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर शिकायत दर्ज कराने में है।

अंतरराष्ट्रीय छवि और विपक्ष की भूमिका

आज भारत विश्व राजनीति का एक प्रमुख केंद्र है। जी-20 की अध्यक्षता, अंतरिक्ष अनुसंधान की उपलब्धियां, डिजिटल क्रांति और आर्थिक सुधार भारत को वैश्विक स्तर पर मजबूती प्रदान कर रहे हैं। ऐसे समय में विपक्ष अगर देश की आंतरिक राजनीति को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाता है, तो इससे भारत की छवि धूमिल होती है। किसी भी विदेशी शक्ति के सामने यह संदेश जाता है कि भारत का लोकतंत्र अस्थिर है, जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है।

लोकतंत्र और जिम्मेदार विपक्ष की जरूरत

भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष जरूरी है। लेकिन वह विपक्ष ऐसा हो जो, सत्ता को आईना दिखाए, जनता की समस्याओं को आवाज़ दे, लेकिन भारत की संप्रभुता और छवि से कभी समझौता करे। आज जरूरत इस बात की है कि विपक्ष अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करे। उसे यह समझना होगा कि मोदी सरकार का विरोध और भारत की नीतियों की आलोचना अलग-अलग चीजें हैं। बता दें, लोकतंत्र का सौंदर्य सत्ता और विपक्ष के संतुलन में है। सत्ता पक्ष नीति बनाता है, फैसले लेता है, जबकि विपक्ष उसकी समीक्षा करता है, प्रश्न उठाता है और विकल्प प्रस्तुत करता है। यह परंपरा केवल भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक ढाँचों में रही है। किंतु बीते 11 वर्षों में भारतीय राजनीति का परिदृश्य यह प्रश्न पूछने को विवश कर रहा है कि क्या विपक्ष का धर्म सरकार की आलोचना तक सीमित रह गया है या वह देश की छवि को अंतरराष्ट्रीय मंच पर धूमिल करने तक जा पहुँचा है?

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