वंदे मातरम् : 150 वर्षों की ज्योति, जिसे कोई अंधेरा दबा न पाया
भारत के इतिहास में कुछ आवाज़ें ऐसी हैं जो समय के पार जाती हैं, युगों को चीरते हुए अगली पीढ़ियों में फिर से जीवित हो उठती हैं। वंदे मातरम् उन्हीं आवाज़ों में से एक है। जब 7 नवंबर 1875 की सुबह बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने अक्षय नवमी के पावन क्षणों में यह अप्रतिम गीत रचा, तो शायद स्वयं उन्हें भी नहीं पता था कि यह रचना आगे चलकर पूरे राष्ट्र की आत्मा बन जाएगी। एक ऐसा मंत्र, जिसे पढ़ते ही भारत के चेतन में एक अग्नि-रेखा खिंच जाती है, स्वाभिमान की, प्रेम की, और बलिदान की। आज, जब संसद में वंदे मातरम् के 150 वर्ष पूरे होने पर विशेष चर्चा चल रही है, तब इतिहास हमें फिर बुला रहा है, अपने भीतर झांकने, उस गीत के साथ हुए अन्याय को समझने और उसकी असली महिमा को पुनः स्मरण करने के लिए. आज प्रश्न यह नहीं कि वंदे मातरम् को किसने रोका। प्रश्न यह है कि क्या हम उसे उतनी ही श्रद्धा दे रहे हैं, जितनी हमारे पूर्वज देते थे? क्या हम उसे उस ऊंचाई पर स्थापित कर रहे हैं, जहां से उसने भारत की स्वतंत्रता आंदोलन को दिशा दी? क्या हम आने वाली पीढ़ियों को यह गीत उसकी पूर्ण महिमा के साथ सौंप रहे हैं? आज आवश्यकता है इतिहास के उस विश्वासघात को स्वीकार करने की, समझने की। और फिर यह दृढ़ संकल्प लेने की, अब वंदे मातरम् को किसी बंटवारे, किसी विवाद, किसी संकीर्ण राजनीति के बीच नहीं आने देंगे। 150 वर्षीय यह गीत आज भी ताज़ा है। इसकी धुन में आज भी वह ताप है, जिसकी आंच अंग्रेज़ी साम्राज्य को झुलसा गई थी। इसकी पंक्तियों में आज भी वह सुगंध है, जिसमें भारत का मिट्टी-जल-पवन सब कुछ घुला हुआ है। और आज भी, जब कोई इसे ऊँचे स्वर में गाता है, तो कहीं न कहीं हमारी शिराओं में वही उफान दौड़ जाता है जो 1857, 1905 और 1942 में दौड़ता था। वंदे मातरम् सिर्फ गीत नहीं, एक युग है। एक प्रण है। एक अनंत स्पंदन है। और यह स्पंदन चाहे 1875 हो, 1936 हो, 1950 हो या 2025, कभी नहीं मरेगा। क्योंकि मां कभी नहीं मरती
सुरेश गांधी

वंदे मातरम् : यानी
बंकिमचंद्र का यह गीत
सिर्फ साहित्य नहीं था; यह
एक स्वप्न था, आज़ाद भारत
का स्वप्न। यह वह पुकार
थी जिसने 1905 के बंग-भंग
आंदोलन से लेकर जेलों
में बंद क्रांतिकारियों तक,
सबके भीतर अटूट ऊर्जा
भरी। रवींद्रनाथ टैगोर ने जब 1896 में
कांग्रेस के मंच से
इसे गाया, तो मंच नहीं,
पूरा आंदोलन थर्रा उठा। हजारों आंखों
से एक ही साथ
आंसू बहे, और अंग्रेज़ों
ने पहली बार यह
समझा कि भारत को
हराना आसान नहीं। वंदे
मातरम् उस युग का
शंखनाद था, जिसने क्रांतिकारियों
को हथियार दिए, सत्याग्रहियों को
संबल दिया और सामान्य
भारतीय को राष्ट्र-चेतना
से भर दिया। लेकिन...सियासतदानों की ऐसी नजर
लगी, ‘वंदे मातरम’ का
बंटवारा हो गया. इतिहास
का यह पन्ना दर्द
देता है। 1930 का दशक, जब
भारत गुलामी की बेड़ियों को
तोड़ने के लिए आखिरी
संघर्षों में था। उसी
समय मुस्लिम लीग के नेता
मोहम्मद अली जिन्ना ने
15 अक्टूबर 1936 को लखनऊ से
वंदे मातरम् के विरुद्ध अभियान
छेड़ दिया। लीग ने दावा
किया कि इसके कुछ
अंश ‘धार्मिक’ हैं और मुसलमानों
के लिए अस्वीकार्य। यह
दावा कितना आधारहीन था, इतिहास बताता
है। इस गीत को
कभी किसी समुदाय के
विरुद्ध नहीं लिखा गया
था। यह तो मातृभूमि
की वंदना थी, उस मिट्टी
की जिसके ऊपर सबका समान
अधिकार है। लेकिन दुर्भाग्य
यह कि इस दबाव
के आगे तत्कालीन कांग्रेस
नेतृत्व झुकता दिखा।
कुछ सप्ताह पहले
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आरोप
लगाया कि कांग्रेस ने
वंदे मातरम् के “कुछ पदों
को हटाया” और राजनीतिक कारणों
से इसे विवादित रूप
में प्रस्तुत किया। कांग्रेस ने इसका खंडन
किया, लेकिन विवाद यहीं से फिर
भड़क उठा। 150 वर्ष पूरे होने
पर संसद में चल
रही चर्चा इस तथ्य को
फिर उजागर कर रही है
कि इतिहास के किसी मोड़
पर वंदे मातरम् विभाजनकारी
राजनीति की बलि चढ़
गया था। जबकि यह
गीत किसी जाति, धर्म
या समुदाय का नहीं, सिर्फ
भारत का था, और
है। क्योंकि यह सिर्फ एक
गीत नहीं, बल्कि चेतना है। यह स्वाभिमान
की परतें खोलता है, हमें अपने
भीतर झांकने के लिए मजबूर
करता है। वंदे मातरम्
वह चिंगारी है, जो स्वतंत्रता
का पहला प्रकाश लेकर
आई थी। आज भी
जब युवा इसे गाते
हैं, तो कहीं न
कहीं वही विद्रोह, वही
आत्मगौरव जाग उठता है।
यह गीत पीढ़ियों
को जोड़ता है : 1882 की बंगदर्शन से
लेकर 1896 के कांग्रेस मंच
तक, 1905 के स्वदेशी आंदोलन
से लेकर 1947 के स्वतंत्रता दिवस
तक, और आज संसद
के 2025 के विशेष सत्र
तक, वंदे मातरम् हर
युग की आत्मा बना
रहा। आज जब हम
वंदे मातरम् के 150 वर्ष मना रहे
हैं, तो यह स्मरण
करना आवश्यक है कि यह
कोई राजनीतिक ध्वज नहीं है।
यह सांस्कृतिक चेतना का वह शिखर
है जिसे किसी भी
विवाद से नीचे नहीं
उतारा जा सकता। इस
गीत ने लाखों भारतीयों
को वह ऊर्जा दी,
जिससे वे फांसी के
तख्ते पर मुस्कुरा सके।
जिससे वे जेलों में
कोड़े खाते हुए भी
नहीं टूटे। जिससे वे अंग्रेज़ों के
सामने निर्भीक खड़े रहे। वंदे
मातरम् हमें याद दिलाता
है कि यह धरा,
मां है। और मां
की आराधना को किसी विवाद,
किसी दलीय राजनीति, किसी
तुष्टीकरण की राजनीति का
हाथ छू भी नहीं
सकता।
बांटा गया, फिर भी बंटा नहीं
वंदेमातरम्, वह गीत है,
जिसने भारत की आत्मा
को आवाज़ दी. भारतीय
स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास पढ़िए,
जहाँ कहीं भी राष्ट्र-प्रेम का ज्वार उमड़ता
है, वहां एक स्वर
अवश्य सुनाई देता है “वंदे
मातरम्”। यह केवल
शब्द नहीं, बल्कि वह पुकार थी
जिसने परतंत्र भारत के भीतर
आत्मविश्वास जगाया, उसने खोई हुई
अस्मिता को फिर से
याद दिलाया, उसने एक ही
ध्वनि में करोड़ों लोगों
को जोड़ दिया। और
अंग्रेज़ी हुकूमत के लिए सबसे
बड़ा चुनौती-पत्र बन गई।
लेकिन विडंबना देखिए, जिस गीत ने
भारत को जोड़ दिया,
उसे आज़ादी से ठीक पहले
और उसके बाद भी
राजनीतिक सौदेबाज़ी, धार्मिक दबाव, कांग्रेसी दुविधाओं और मुस्लिम लीग
की कट्टर राजनीति ने बांटने का
प्रयास किया। आज जब संसद
‘वंदे मातरम्’ के 150 वर्ष पर विशेष
चर्चा कर रही है,
तब यह प्रश्न फिर
उठ रहा है, क्या
वंदे मातरम् के साथ अन्याय
हुआ? क्या इसे स्वतंत्र
भारत का राष्ट्रीय गान
बनना चाहिए था? नेहरू ने
आखिर इसे क्यों नकार
दिया, जबकि गांधी इसे
पसंद करते थे? बंकिम
चंद्र की कलम से
निकला वह स्वर, जिसने
दासता को चुनौती दी,
वो एक सामान्य कविता
नहीं थी, यह अपने
समय की राजनीतिक परिस्थिति
के विरुद्ध विद्रोह था।
1875 : बंकिम चंद्र
ने
इसे
लिखा।
1882 : ‘‘आनंदमठ’’ में
प्रकाशित।
1896 : रवींद्रनाथ टैगोर
ने
कांग्रेस
अधिवेशन
में
इसे
पहली
बार
गाया,
संपूर्ण
सभागार
सन्न,
आँखें
नम।
1905 - 1908ः बंग-भंग
आंदोलन
में
इसका
उपयोग,
अंग्रेज़ों
के
लिए
यह
सबसे
‘‘खतरनाक’’
नारा
साबित
हुआ।
अंग्रेजी राज
द्वारा
प्रतिबंध
: वंदे
मातरम्
का
सार्वजनिक
उच्चारण
कई
स्थानों
पर
गैर-कानूनी
घोषित।
यह वह समय
था जब बच्चे-बच्चे
की जुबान पर वंदे मातरम्
था, स्कूलों में, जुलूसों में,
जेलों में, क्रांतिकारियों के
मुख पर, सत्याग्रहियों की
पंक्तियों में। भगत सिंह
से लेकर नेताजी सुभाष,
अरविंदो से लेकर तिलक
तक, हर किसी के
भीतर यह एक प्रेरक
अग्नि बनकर जलता था।
गांधी स्वयं कहते थे : “वंदे
मातरम् मेरी आत्मा को
जगाने वाला गीत है।”
1930 का दशक : जब
राजनीति ने राष्ट्रगीत को
धार्मिक चश्मे से देखा, जिन्ना
का विरोध और मुस्लिम लीग
की राजनीतिक रणनीति
15 अक्टूबर 1936 : लखनऊ। मोहम्मद अली जिन्ना ने
वंदे मातरम् को ‘‘हिन्दू’’ गीत
बताते हुए खुलेआम विरोध
शुरू किया। यह वह दौर
था जब मुस्लिम लीग
अपनी राजनीति का विस्तार धार्मिक
ध्रुवीकरण के सहारे कर
रही थी। वंदे मातरम्
को निशाना बनाना उसी प्रक्रिया का
हिस्सा था। जिन्ना के
तर्क बेहद कमजोर लेकिन
राजनीतिक रूप से प्रभावी
थे, उन्होंने कहा कि गीत
‘‘मूर्ति-पूजा’’ से प्रेरित है।
मुस्लिम लीग ने दावा
किया कि यह ‘‘इस्लामी
भावनाओं’’ के खिलाफ है।
लीग ने इसे हिन्दू
राष्ट्रवाद का प्रतीक घोषित
कर दिया। सवाल उठता है,
क्या जिन्ना इतिहास जानते थे? क्या वे
समझ नहीं सकते थे
कि यह एक ‘राष्ट्र’
की प्रतीक-पूजा है, किसी
धर्म की नहीं? दरअसल
यह विरोध राजनीतिक था, धार्मिक नहीं।
एकता का प्रतीक. राष्ट्रीय पुनर्जागरण
सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट
के निर्णयों कई महत्वपूर्ण फैसले
आए, मद्रास हाई कोर्ट (2017) ने
कहा कि सभी स्कूलों
और कार्यालयों में सप्ताह में
एक बार ‘वन्दे मातरम्’
गाया जाना चाहिए। सुप्रीम
कोर्ट ने यह स्पष्ट
किया कि राष्ट्रगीत का
सम्मान करना हर नागरिक
का कर्तव्य है, लेकिन किसी
को जबरन गाने पर
विवश नहीं किया जा
सकता। इन निर्णयों का
सार यह है कि
यह राष्ट्रीय सम्मान का विषय है,
न कि बाध्यता का।
नई शिक्षा नीति और सांस्कृतिक
कार्यक्रमों में अनिवार्यता : 2020 की नई
शिक्षा नीति के बाद
अनेक राज्यों ने विद्यालयी गतिविधियों
में ‘वन्दे मातरम’ के नियमित गायन
को बढ़ावा दिया है। विश्व
स्तर पर भारतीय समुदाय
द्वारा इसका प्रसार न्यूयॉर्क,
लंदन, सिडनी, दुबई और टोरंटो
में भारतीय त्योहारों के दौरान हजारों
लोगों का सामूहिक ‘वन्दे
मातरम’ गान हाल के
वर्षों में एक नया
दृश्य बन गया है।
यह भारत की सांस्कृतिक
कूटनीति में महत्वपूर्ण योगदान
दे रहा है। दिल्ली,
उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, असम
सहित अनेक राज्य विधानसभाओं
में अब सत्र की
शुरुआत ‘वन्दे मातरम’ से होती है।
कई केंद्रीय विश्वविद्यालयों में इसे दीक्षांत
समारोह में अनिवार्य किया
गया है। 2025 में आयोजित विश्व
हिन्दू सम्मेलन, प्रवासी भारतीय दिवस, और आजादी का
अमृतकाल महोत्सव में इस गीत
की विशेष प्रस्तुतियाँ आयोजित की गईं। सोशल
मीडिया पर 2024 के बाद इस
गीत से जुड़े वीडियो
और रील्स में अभूतपूर्व वृद्धि
हुई, विशेषकर युवाओं द्वारा। इन सबने इसके
पुनर्जागरण को सुनिश्चित किया
है।
भारत माता का दर्शन और ‘वन्दे मातरम’
भारतीय परंपरा में राष्ट्र को
“देवत्व” प्रदान करने की अवधारणा
प्राचीन काल से मौजूद
है ऋग्वेद में भूमि को
“माता पृथ्वी” कहा गया, उपनिषदों
में “हमारे लिए यह भूमि
ही माता है” का
उल्लेख, वाल्मीकि रामायण में “जननी जन्मभूमिश्च
स्वर्गादपि गरीयसी” बंकिमचंद्र ने इसी सांस्कृतिक
परंपरा का आधुनिक रूप
दिया। इसलिए ‘वन्दे मातरम’ न धार्मिक है,
न सांप्रदायिक, यह भारतीय सभ्यता
का दार्शनिक-राष्ट्रवादी स्वर है। ‘वन्दे
मातरम’ हमें बताता है
कि भारत केवल भूगोल
नहीं, भावनाओं का देश है।
युवा पीढ़ी को यह
संघर्ष, त्याग और मातृभूमि-भक्ति
का इतिहास सिखाता है। यह भारत
की सांस्कृतिक एकता का गीत
है, बंगाल से पंजाब तक,
दक्षिण से पूर्वोत्तर तक।
यह सामूहिक चेतना को जागृत करता
है, जो किसी भी
राष्ट्र की असली पूंजी
है।
राष्ट्रभाव की अनश्वर ऋचा
भारत अनेक भाषाओं,
अनेक संस्कृतियों, अनेक विचारधाराओं का
संगम है। लेकिन इसके
हृदय में जो एक
भाव निरंतर प्रवाहित होता है, वह
है, मातृभूमि के प्रति प्रेम।
इस प्रेम का सबसे सुंदर,
सबसे शक्तिशाली और सबसे प्रेरक
रूप ‘वन्दे मातरम’ है। यह गीत
केवल अतीत की विरासत
नहीं, बल्कि भविष्य की ऊर्जा है।
आज जब भारत विश्व
में नई पहचान बना
रहा है, विश्व अर्थव्यवस्था
की अग्रिम पंक्ति में खड़ा है,
और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के मार्ग पर
आगे बढ़ रहा है,
ऐसे समय में ‘वन्दे
मातरम’ वह मंत्र है
जो राष्ट्रीय आत्मा को दिशा, शक्ति
और गौरव देता है।
भारत माता की जय
से पहले ‘वन्दे मातरम’ क्यों आता है, क्योंकि
हर जयकार मातृभूमि का वंदन करके
ही पूर्ण होती है।
खोया सम्मान मिलना चाहिए?
प्रधानमंत्री ने पिछले महीने
कहा था, वंदे मातरम्
को धार्मिक विवाद बनाना भारत की आत्मा
के साथ अन्याय था।
आज संसद में भाजपा,
कई क्षेत्रीय दल और कुछ
गैर-कांग्रेसी नेता यही कहते
दिखे कि वंदे मातरम्
पर हुआ अन्याय सुधारा
जाना चाहिए। हरित खेत, झरते
जल, मंद सुगंध, शस्य-श्यामला धरती, पुण्य-वन-विहारीणी। यह
भूमि का गुणगान है,
भारत की सौन्दर्य-धारा
का वर्णन है। इसे धार्मिक
गीत कहना ऐतिहासिक रूप
से गलत और राजनीतिक
रूप से प्रेरित था।
यह गीत अंग्रेज़ों के
खिलाफ असली हथियार था।
इसे विभाजन की राजनीति के
कारण ‘‘विवादित’’ बनाने की कोशिश की
गई। आज जब देश
आत्मनिर्भरता, तकनीकी नेतृत्व, वैश्विक भूमिका की ओर बढ़
रहा है, यह गीत
फिर प्रेरणा बन रहा है।
नई पीढ़ी के लिए
इसके 150 वर्ष यह अवसर
हैं इतिहास जानने का, राजनीतिक अन्याय
समझने का, सांस्कृतिक एकता
को पहचानने का, और यह
महसूस करने का कि
राष्ट्र पहले है, राजनीति
बाद में। कई इतिहासकार
यह भी प्रस्ताव रखते
हैं कि वंदे मातरम्
और जन गण मन
दोनों मिलकर भारतीय राष्ट्रीय भाव को पूर्ण
करते हैं। एक राष्ट्र
की आत्मा का गीत, दूसरा
राष्ट्र के उद्देश्य का।
क्योंकि वंदे मातरम् केवल
गीत नहीं, भारत की आत्मा
है. यह वह अवसर
है जब देश यह
स्वीकार करे कि जिस
गीत ने भारत की
आज़ादी को आवाज़ दी,
उसे राजनीतिक समझौतों की कीमत चुकानी
पड़ी। लेकिन इतिहास की सबसे बड़ी
सच्चाई यह है वंदे
मातरम् को कभी कोई
बांट नहीं पाया। यह
गीत जनता का था,
जनता का है और
जनता का ही रहेगा।
और जब-जब भारत
की मिट्टी पर कोई संकट
आया है, हर भारतीय
के भीतर से एक
ही स्वर उठा है,
“वंदे मातरम्!”
राष्ट्रभाव का अमृत मंत्र
भारतीय
स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास किसी
एक तिथि, किसी एक घटना
या किसी एक नायक
पर आधारित नहीं रहा, बल्कि
यह उन असंख्य भावनाओं,
संघर्षों और मन्त्रों की
जीवित गाथा है जिनसे
भारत की चेतना ने
शक्ति पाई। उन सबमें
‘वन्दे मातरम’ वह दिव्य ज्वाला
है जिसने एक सदी तक
भारतीयों की नसों में
स्वाभिमान की विद्युत प्रवाहित
रखी। बंगाल विभाजन के खिलाफ उठी
पहली व्यापक जनलहर से लेकर क्रांतिकारियों
के शस्त्र उठाने तक, कांग्रेस के
अधिवेशनों से लेकर जेलों
में बंद सेनानियों की
प्रतिज्ञाओं तक, हर जगह
‘वन्दे मातरम’ राष्ट्रभक्ति की धड़कन बन
गया। यही कारण है
कि ब्रिटिश शासन ने इसे
“देशद्रोह का मंत्र” मानते
हुए इस पर प्रतिबंध
लगाने का प्रयास किया,
क्योंकि यह गीत जहां
गाया जाता, वहां विद्रोह जन्म
लेता था। इस पर
प्रतिबंध के बावजूद, विद्यार्थी
स्कूल प्रार्थना के समय इसे
गाने लगे। जेलों में
क्रांतिकारी तख्तियों पर “वंदेमातरम” उकेरने
लगे। अंग्रेजों की खुफिया रिपोर्टें
बताती हैं कि भारत
के 171 स्थानों पर “वन्दे मातरम”
के सार्वजनिक पाठ को लेकर
दंगे, आंदोलन और टकराव हुए,
क्योंकि ब्रिटिश इसे “विद्रोह की
प्रेरणा” मानते थे। लाला लाजपत
राय, बिपिन चंद्र पाल, अरविंद घोष
और बंकिमचंद्र, इन सभी ने
इस गीत को राष्ट्रवादी
स्वाभिमान का मूल स्रोत
बताया। 1906 में कांग्रेस के
कलकत्ता अधिवेशन में पहली बार
‘वन्दे मातरम’ को राष्ट्रीय गीत
की मान्यता दी गई। उस
दिन पंडाल में हजारों लोगों
ने इसे सामूहिक रूप
से गाया, और यह दृश्य
ब्रिटिश शासन के लिए
“खतरे की घंटी” बन
गया। चंद्रशेखर आजाद के स्मरण
में भी यह गीत
अक्सर सुनाई देता था। नेताजी
सुभाष चंद्र बोस की आजाद
हिंद फौज ने इसे
अपने सैनिक गीतों में शामिल किया।
ब्रिटिश इंटेलिजेंस ब्यूरो की रिपोर्टों में
यह उल्लेख मिलता है, “रिवाल्युसनरी टेर्रसिस्ट
चंट अंदेमातरम बीफोर अटैक.” इसलिए अंग्रेजों ने इसे प्रतिबंधित
कर दिया। लेकिन यह प्रतिबंध ही
इस गीत को और
ऊर्जा देता गया। 24 जनवरी
1950 का ऐतिहासिक निर्णय में संविधान सभा
ने व्यापक बहस के बाद
‘वन्दे मातरम’ को भारत के
राष्ट्रीय गीत के रूप
में मान्यता दी। राष्ट्रगान ‘जन
गण मन’ को रखने
का निर्णय व्यावहारिकता के आधार पर
हुआ, यह छोटा, सरल
और संगीत की दृष्टि से
अधिक अनुकूल था। लेकिन डॉ.
राजेंद्र प्रसाद ने अपने वक्तव्य
में स्पष्ट कहा था “वन्दे
मातरम् हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने
वाला गीत है। इसे
वही सम्मान और आदर आज
भी प्राप्त है।” इसके बाद
इस गीत की संवैधानिक
स्थिति स्पष्ट हो गई, राष्ट्रीय
गीत, सम्माननीय राष्ट्रीय.
नेहरू की चूक बनी आज का मुद्दा
उस दौर में
“नेहरू को अपना सिंहासन
डोलता दिखा...” और ऐतिहासिक रिकॉर्ड
यही प्रमाणित करते हैं कि
मुस्लिम लीग के दबाव
में कांग्रेस नेतृत्व झुक गया। नेहरू
की चिट्ठियाँ, भाषण और कैबिनेट
नोट उपलब्ध हैं। उनसे कई
बातें साफ होती हैं,
(1) नेहरू को डर था
कि वंदे मातरम् चुनने
से मुस्लिम लीग और भड़क
जाएगी। यह सीधा-सा
राजनीतिक दबाव था। (2) उन्होंने
गीत की भाषा पर
सवाल उठाए, यह आम जनता
को कठिन लगेगी। यह
तर्क तथ्यात्मक रूप से कमजोर
है, क्योंकि लाखों लोगों ने इसे आंदोलनों
में बिना किसी कठिनाई
के अपनाया। (3) उन्होंने कहा, धुन धीमी
है, विलाप-सी लगती है।
यह व्यक्तिगत संगीत-रुचि का मामला
था। पर क्या व्यक्तिगत
पसंद राष्ट्रीय निर्णय का आधार हो
सकती थी? 1948 से 49 : नेहरू की चिट्ठियां, विवाद
की जड़ बन गयी.
हालांकि नेहरू ने कहा कि
यह निर्णय मुसलमानों के विरोध के
कारण नहीं है, लेकिन
तथ्य यह है कि
चर्चाएं उसी विरोध के
दबाव में शुरू हुई
थीं। मतलब साफ है
कांग्रेस ने वंदे मातरम्
को सम्मान तो दिया, पर
राष्ट्रीय गान की कुर्सी
उससे छीन ली। यह
निर्णय राजनीतिक जरूरतों और नेहरू की
व्यक्तिगत मान्यताओं के मेल से
बना, ऐसा कई इतिहासकार
मानते हैं। नेताजी सुभाष
चंद्र बोस ने भी
समर्थन में अपनी राय
देते हुए कहा, आजाद
हिंद सरकार का आधिकारिक ‘‘सलामी
नारा’’ था, वंदे मातरम्।
नेताजी ने इसे क्रांति
का मंत्र कहा था। रेडियो
आज़ाद हिंद की बीम
में भी यही गूंजता
था, “वंदे मातरम्! यह
वह गीत था जिसकी
ध्वनि से अंग्रेजी प्रशासन
का खून खौलता था,
क्योंकि यह क्रांति का
प्रतीक बन चुका था।
खासय यह है कि
1937 का समझौता, वह क्षण जब
कांग्रेस ने झुककर फैसला
किया. 1937 में कांग्रेस ने
मुस्लिम लीग की नाराज़गी
शांत करने के लिए
एक समझौता तैयार किया, वंदे मातरम् के
केवल पहले दो पद
गाए जाएंगे। बाद के पद
‘‘हिन्दू देवी-देवताओं से
जुड़ने’’ के कारण विवादित
घोषित कर दिए गए।
यह विभाजन कांग्रेस के इतिहास का
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण मोड़ माना जाता
है। प्रधानमंत्री मोदी ने संसद
में इसी मुद्दे की
ओर इशारा करते हुए कहा,
कांग्रेस ने वंदे मातरम्
के पदों को हटा
दिया और इसे धार्मिक
विवाद में ढकेल दिया।
कांग्रेस ने इसे राजनीतिक
आरोप कहकर खारिज किया,
लेकिन ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं, बंटवारा वास्तव
में हुआ था और
कांग्रेस ने ही किया
था।




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