‘राष्ट्र गीत’ की 150वीं वर्षगांठ बनी राजनीतिक रणभूमि : इतिहास, सम्मान और राजनीति का संगम
वन्देमातरम् से गूंजी संसद, बहस में झलका सियासी तापमान
8 दिसंबर 2025 : संसद भवन में देश के उस गीत की गूंज फिर हवा में समाई, जिसने 150 साल पहले लिखा गया था, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन को आवाज़ दी, जिसने लाखों भारतीयों की आत्मा में देशभक्ति के दीये जलाए थे। वह गीत था, वन्दे मातरम्। लेकिन इस बार, वन्दे मातरम् सिर्फ स्मृति का गीत नहीं रहा, वह बना विवाद, बहस, और राजनीतिक तापमान। सरकार ने इसे 150वीं वर्षगांठ पर एक राष्ट्रीय गौरव-अवसर बताया; विपक्ष ने इसे चुनावी रणनीति, संवेदनशील इतिहास की इंस्ट्रूमेंटलाइजेशन, और असली मुद्दों : विकास, रोजगार, महंगाई, से ध्यान भटकाने का प्रयास। इस बहस ने साफ कर दिया कि भारत में प्रतीक, गीत और यादें, केवल सांस्कृतिक नहीं, राजनीतिक भी होती जा रही हैं
सुरेश गांधी

सरकार का तर्क, “वन्दे
मातरम्ः विरासत, गौरव और एकता”
: सरकार के लिए वन्दे
मातरम् सिर्फ देशभक्ति का गीत नहीं,
बल्कि भारत की आत्मा
का प्रतीक है। नरेंद्र मोदी
ने लोकसभा में कहा : “वन्दे
मातरम् सिर्फ राजनीतिक आज़ादी का मंत्र नहीं
था; वह एक पवित्र
युद्ध-घोष था, जिसने
भारत माता को उपनिवेशवाद
की जड़े तोड़ने की
ताकत दी।” उनका कहना
था कि 150 वर्षों बाद भी यह
गीत उतना ही प्रासंगिक
है, वह मानव जाति
को अस्मिता, बलिदान, संघर्ष और एकता की
याद दिलाता है। सरकार द्वारा
दिए गए अन्य प्रमुख
तर्क : इतिहास की स्मृति और
स्वतंत्रता-संघर्ष का सम्मान, वन्दे
मातरम् को लिखने वाले
बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय तथा उसे गुनगुनाने
वालों के बलिदान को
याद करना जरूरी है।
संसद में इस 150वीं
वर्षगांठ की बहस, उसी
स्मृति को जागृत करने
की कोशिश है।
राष्ट्र-पहचान और सांस्कृतिक एकता, यह गीत पूरे भारत का है, किसी एक भाषा, क्षेत्र या समुदाय का नहीं। इसे राष्ट्रीय भावना से जोड़ा जाना चाहिए, न कि राजनैतिक दलों के दायरे में। युवाओं और आने वाली पीढ़ी को जोड़ना, सरकार का कहना है कि आज की युवा पीढ़ी को इस गीत की पृष्ठभूमि, उसके महत्व और इतिहास से जोड़ा जाए, ताकि देशभक्ति की भावना फिर से जगी। ऐतिहासिक अमरत्व और प्रेरणा, वन्दे मातरम् वह धरोहर है जिसे पीढ़ियाँ दोहरा सकती हैं; यह गीत आजादी के लिए लड़ने वालों की कहानी बताता है, बलिदान और स्वाभिमान की विरासत देता है। इसके अलावा, सरकार का यह भी कहना रहा कि संसद में चर्चा करना लोकतंत्र का अंग है, चाहे वह गीत हो, संस्कृति हो, या इतिहास; ऐसे प्रतीकों पर खुली चर्चा राष्ट्रीय एकता को मजबूत करती है। कुछ मंत्रियों ने स्पष्ट किया कि यह बहस किसी धर्म, समुदाय, या किसी विशेष राजनीतिक समूह के खिलाफ नहीं है, बल्कि भारत के नागरिकों के लिए, भारत की संस्कृति और पहचान के लिए है।
विपक्ष की चिंता “गीत नहीं, प्रचार की राजनीति?”
प्रमुख आलोचनाएं
:
प्रियंका गांधी वाड्रा ने लोक सभा में कहा कि वन्दे मातरम् पर चर्चा में उन्हें गीत से कोई ऐतराज़ नहीं, लेकिन “इस बहस की दो वजहें हैं, बंगाल चुनाव और सरकार का एजेंडा।” उनका तर्क था कि देश में बेरोज़गारी, महंगाई, किसानों की समस्याओं, दैनिक जीवन के संकटों पर जनता को जवाब चाहिए, नॉट सांकेतिक बहस। वे बोलीं : “हमें नारे नहीं, समाधान चाहिए। वन्दे मातरम् से पहले जनता की रोज़मर्रा की मुश्किलों का हल क्यों नहीं?”
अन्य विपक्षी नेताओं ने कहा कि जब विभिन्न समुदायों, धर्मों और विचारों वाले लोग भारत में रहते हैं, तो किसी एक गीत या प्रतीक को इतना संवेदनशील और अनिवार्य बनाना, सम्भावित रूप से ध्रुवीकरण और सांप्रदायिक विवाद उत्पन्न कर सकता है। कई विपक्षी दलों ने कहा कि वन्दे मातरम् को राजनीतिक दलों की आवाज़ या दलीय झंडा नहीं बनाना चाहिए, यह राष्ट्र की साझा धरोहर है, इसे भावनात्मक नारेबाज़ी के लिए हथियार नहीं बनाया जाना चाहिए। किसी विपक्षी सांसद ने सवाल उठाया कि यदि वन्दे मातरम् आजादी के समय संघर्ष का प्रतीक था, और स्वतंत्रता के बाद देश चुनौतियों से जूझ रहा है, तो क्या बस गीत गाने से देश का इतना समाधान हो जाएगा? विपक्ष का मानना है कि असली मुद्दे, गरीबी, असमानता, सामाजिक न्याय, आर्थिक सुधार, उन पर संसद को काम करना चाहिए, न कि प्रतीकों पर बहस करना।वन्दे मातरम् की पृष्ठभूमि हमें बताती है कि यह गीत कब और कैसे बना। इसे लिखे थे बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने 1870 के दशक में; 7 नवंबर 1875 को प्रकाशित हुआ। बाद में इसे उनकी प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंदमठ’ में शामिल किया गया। स्वतंत्रता आंदोलन में यह गीत अंग्रेज़ों के खिलाफ चेतना जगाने, युवा पीढ़ी को प्रेरणा देने तथा भारत माता की विभूतियों के प्रति भाव जगाने का माध्यम बना।
लेकिन इतिहास के साथ विवाद भी जुड़ा रहा है, कुछ पंक्तियां धार्मिक संदर्भों से जुड़ी थीं; कई बार इन पंक्तियों को लेकर आपत्तियां उठी। आज, 150 साल बाद, जब संसद उसे फिर से थिएटर में ला रही है, पहले से आदर्श, गीत, राजनीति और पहचान, सबकी परीक्षा हो रही है। कई सामाजिक विश्लेषकों का कहना है कि यह बहस इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह हमें याद दिलाती है कि संस्कृति, इतिहास और पहचान सिर्फ भावनात्मक पहलू नहीं, राजनीतिक एवं वैचारिक होती हैं।
बहस हो रही है, जनता देख रही है
जब संसद के
दोनों सदनों में यह बहस
शुरू हुई, उत्तर भारत
से लेकर दक्षिण तक,
मतदाता, नागरिक, युवा - हर कोई देखने
लगा कि वन्दे मातरम्
अब किस रूप में
पेश किया जा रहा
है। कुछ ने इसे
गौरव बताया, कुछ ने सम्भावित
राजनीतिक चाल। सोशल मीडिया
पर बहस तेज है;
युवा कह रहे हैं
“गीत है, प्रतीक है,
पहचान है”; वहीं कुछ
कह रहे हैं “पहले
रोजमर्रा की चुनौतियों पर
काम करो, फिर प्रतीकों
की बातें करना।” कई राज्यों में,
खासकर बंगाल में, यह बहस
चुनावी आंच महसूस कराने
लगी, यह सवाल कि
क्या वन्दे मातरम् को एक राजनीतिक
हथियार की तरह इस्तेमाल
किया जाएगा। इस बहस का
असर सिर्फ संसद तक सीमित
नहीं; वह शहरों, गाँवों,
घरों और युवा बातचीत
में भी दिख रहा
है।
चुनाव 2026-27?, वन्दे मातरम् बहस की पृष्ठभूमि
विश्लेषकों का कहना है कि 150वीं वर्षगांठ पर यह बहस सिर्फ स्मृति का हिस्सा नहीं, राजनीतिक रूप धारण कर चुकी है। खासकर जब अगला विधानसभा चुनाव बंगाल में है, और वन्दे मातरम् का ऐतिहासिक रिश्ता बंगाल और भारत के स्वाधीनता संघर्ष से रहा है, तो यह बहस “संवेदनशील, सांस्कृतिक, रणनीतिक” मुद्दे में तब्दील हो सकती है। सरकार इसे एक मौका देख रही है - युवाओं, स्वतंत्रता-पीढ़ी, और राष्ट्र-भावना को जोड़ने का; वहीं विपक्ष इसे चेतावनी मान रहा है, सांझा संस्कृति के नाम पर वोट बैंक तैयार करने की चाल।
अगर वन्दे मातरम् का मतलब सिर्फ नारा हो गया... तो क्या खो देंगे?
वास्तव में, संकट तब
नहीं है जब लोग
गीत गाएँ; संकट तब है
जब गीत उनका हथियार
बन जाए। अगर वन्दे
मातरम् को अनिवार्य कर
दिया जाए, या राजनीतिक
दल इसे अपने एजेंडे
के हिस्से बनाएं, तो यह उसकी
सार्वभौमिकता, उसकी भावनात्मक शक्ति,
उसकी पवित्रता खो बैठेगा। देश
की विविधता, भाषाई-धार्मिक अस्मिताएँ, जातीय पहचान, ये सब भारतीय
संस्कृति की धरोहर हैं।
अगर एक गीत को
राष्ट्रीय पहचान की रूपसीमा बना
दिया जाए, क्या हम
उस विविधता को भूल जाएंगे?
और यदि संसद में
इस बहस के बाद
सिर्फ कागजी नारे रह जाएं,
असली समस्याओं पर काम न
हो, तो जनता का
भरोसा अंग्रेज़ों से ज्यादा उन
नेताओं पर कम हो
जाएगा, जो भावनाओं के
नाम पर सिर्फ राजनीति
कर रहे थे।
ज़िम्मेदारी, संवेदनशीलता और समझदारी की जरूरत
वन्दे मातरम् 150 साल पुराना गीत
है; लेकिन आज 2025 में यह गीत
सिर्फ इतिहास नहीं - चुनाव, पहचान, राजनीति और भावनाओं का
प्रतीक बन गया है।
अगर हम सच में
इसे अपनी राष्ट्रीय धरोहर
मानते हैं, तो हमें
इसे साझा संस्कृति, साझा
इतिहास, साझा सम्मान बनाकर
रखना होगा; न कि दलगत
हितों, चुनावी रणनीतियों, या वोट-बैंक
की राजनीति के लिए उपयोगी
हथियार। संसद अपने काम
कर रही है, बहस
कर रही है, आवाज़
उठा रही है। लेकिन
असली काम देश के
नागरिकों, समाज, युवाओं और हमारी अगली
पीढ़ी का है कि
वे तय करें : वन्दे
मातरम् उनके लिए क्या
है, गर्व और एकता
का गीत, या सिर्फ
राजनीति का नारा। क्योंकि
अगर यह सिर्फ नारा
बन गया, हम सिर्फ
आवाज़ों का शोर सुनेंगे।
लेकिन अगर यह सिर्फ
याद, सम्मान और साझा पहचान
बना रहा, हमारा भारत
सचमुच “माँ” की तरह
खड़ा रहेगा। मतलब साफ है,
वन्दे मातरम् से गूंजी संसद
लेकिन असली गूँज तो
जनता के दिलों में
होनी चाहिए।
इतिहास, सम्मान या राजनीतिक रणभूमि?
वन्दे मातरम् फिर से संसद
की दीवारों पर गूंज रहा
है। लेकिन इस बार सिर्फ
स्मरणोत्सव नहीं, बहस है, तनातनी
है, और राजनीति है।
150-वर्ष की इस विरासत
को सरकार ने एक राष्ट्रीय,
सांस्कृतिक पुनरावलोकन का अवसर बनाया
है, लेकिन विपक्ष इसे चुनावी रणनीति
और संवेदनशील इतिहास का इस्तेमाल बताता
है। इस बहस ने
दिखा दिया है कि
एक गीत, जो कभी
अंग्रेजों के खिलाफ आज़ादी
की लड़ाई का लड़खराता
नारा था, आज किस
तरह राजनीति और लोकतांत्रिक बहस
के केंद्र में आ सकता
है। सरकार और उसके समर्थनपक्ष
के लिए वन्दे-मातरम्
महज गीत नहीं, बल्कि
भारत की आत्मा, स्वतंत्रता
संग्राम की पीड़ा और
एकता की भावना का
प्रतीक है। इस बहस
की शुरुआत पीएम नरेन्द्र मोदी
ने लोकसभा में की, जिसमे
उन्होंने कहा कि वन्दे-मातरम् “आजादी की लड़ाई का
रण-घोष” था।
मुख्य दलीलें
इतिहास और स्मृति का
सम्मान - ब्रिटिश शासन के दौरान
जिस गीत ने भारतीयों
को जागरूक किया, उसे भुलाया न
जाए। वन्दे-मातरम् की 150वीं वर्षगांठ उस
विरासत को याद करने
का अवसर है। राष्ट्रीय
एकता का प्रतीक, यह
गीत सिर्फ एक क्षेत्र या
समुदाय का नहीं, पूरे
भारत का है। 1905 में
बंगाल विभाजन के समय भी
वन्दे-मातरम् लोगों को जोड़ने का
काम करता था। संस्कृति
और पहचान की रक्षा, आधुनिक
भारत में जब आईडेंटी
पॉलिटिक्स सक्रिय है, वन्दे-मातरम्
जैसे प्रतीक राष्ट्र की साझा संस्कृति
और आत्मा को याद दिलाते
हैं। सरकार कह रही है
कि यह बहस किसी
राजनीतिक एजेंडा के लिए नहीं,
बल्कि इतिहास और भावनाओं की
रक्षा के लिए है।
सभी दलों को इसे
श्रद्धा से देखना चाहिए।
रक्षा-मंत्री सहित कई मंत्रियों
ने जोर दिया कि
वन्दे-मातरम् को लेकर किसी
तरह की राजनीतिक पोलिटिक्स
या विवाद नहीं होना चाहिए,
इसे साझा राष्ट्रीय धरोहर
मानना चाहिए।
विपक्ष के प्रमुख तर्क
समय और उद्देश्य
पर सवाल उठाते हुए
प्रियंका बाड्रा ने आरोप लगाया
कि यह बहस “कोई
ऐतिहासिक सत्य-खोज नहीं,
बल्कि बंगाल चुनाव से पहले वोट
बैंक तैयार करने” की कोशिश है।
जन-जीवन के असली
मुद्दों का अपमान कृ
बेरोज़गारी, महंगाई, किसानों की दुर्दशा जैसे
विषयों से ध्यान हटाकर
सांस्कृतिक बहस को प्राथमिकता
देना लोकतंत्र के मूल मूल्य
के खिलाफ है। इतिहास को
तोड़-मरोड़ना, वन्दे-मातरम् से जुड़े विवादों,
आपत्तियों और पिछली राजनीतियों
को भावनात्मक रूप में फिर
से ले आना, इतिहास
के साथ अन्याय है।
सपा, टीएमसी और वाम दलों
समेत कई विपक्षी नेताओं
ने सरकार पर आरोप लगाया
कि वह सांस्कृतिक ध्रुवीकरण
के जरिए वोट बैंक
की राजनीति कर रही है।
जहाँ इतिहास, संवेदना और सत्ता मिलती है
यह बहस सिर्फ
भावनाओं या इतिहास तक
सीमित नहीं रही। सरकार
ने इसका दूसरा पहलू,
वर्तमान राजनीतिक सच भी सामने
रखा। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा
कि 1937 में जब कुछ
हिस्सों को बदला गया,
यह कांग्रेस का “समझौता” था,
जिसने “विभाजन” की नींव रखी।
दोनों सदनों में 10-10 घंटे के लिए
यह बहस तय हुई,
जिससे संकेत मिलता है कि सरकार
इसे मात्र औपचारिक चर्चा नहीं, बल्कि सार्वजनिक विमर्श बनाना चाहती है। सरकार कह
रही है कि वन्दे-मातरम् को पुनः उसकी
पुरानी गरिमा दी जानी चाहिए,
ऐसा भाव जो इतिहास,
स्वाभिमान और राष्ट्रीय चेतना
को जोड़ता हो।
वन्दे-मातरम् की संवेदनशीलता
लेकिन वन्दे-मातरम् का इतिहास स्व-कथा नहीं; वह
विवाद, आपत्ति और पुनरावलोकन का
भी गवाह रहा है।
कुछ भाग, विशेषकर जो
धार्मिक वर्णन करते हैं, पहले
से ही विवादों में
रहे हैं। कई मुस्लिम
नेताओं और समुदायों ने
कहा था कि वन्दे-मातरम् की कुछ पंक्तियाँ
उनकी धार्मिक भावनाओं के अनुकूल नहीं।
इसी कारण 1947 के बाद, देश
का नया राष्ट्रीय गीत
चुना गया। तो सवाल
है क्या आज, जब
वन्दे-मातरम् को लेकर फिर
बहस हो रही है,
हम इतिहास की खामोशी सुन
रहे हैं या फिर
वही पुरानी आवाज़ें दोहरा रहे हैं? विपक्ष
यह तर्क देता है
कि इतिहास की समीक्षा होनी
चाहिए, लेकिन उसे राजनीति के
बहाव में नहीं लाया
जाना चाहिए।
क्या है देश की असली ज़रूरत?
संसद में चल
रही यह बहस किसी
सामूहिक उत्सव या स्मृति नहीं,
बल्कि एक दौर-ए-संवाद है। और संवाद
तभी सार्थक होता है, जब
वह हर तबके, हर
विचारधारा और हर नागरिक
के लिए खुला हो।
देश को चाहिए : वन्दे-मातरम् पर बहस, लेकिन
उसे भावनात्मक हथियार न बनाया जाए।
इतिहास की समीक्षा, लेकिन
ध्रुवीकरण न हो। सत्ता-वाद से ऊपर,
राष्ट्र-वाद की समझ
हो। राजनीतिक लाभ से ऊपर,
सांझा पहचान हो। अगर वन्दे-मातरम् को फिर से
वह वैभव मिलना है
जो स्वतंत्रता-संग्राम में था, तो
उसे किसी दल की
नहीं, पूरे भारत की
धरोहर बनाना होगा।
कौन क्या बोला के प्रमुख अंश
पीएम
मोदी
: यह गीत स्वतंत्रता आंदोलन
का ऊर्जा- स्रोत रहा। विवाद कृत्रिम
है, गीत सबका है।
सांस्कृतिक जागरण से राष्ट्रभावना मजबूत
होती है। इस बहस
को राजनीतिक चश्मे से न देखा
जाए।
गृहमंत्री
अमित
शाह
: जो लोग वन्दे मातरम्
का विरोध राजनीति से प्रेरित होकर
कर रहे हैं, उन्हें
इतिहास की समझ कमजोर
है। गीत भारतीय भूमि
की स्तुति है, धर्म की
नहीं। यह बहस इतिहास
को याद करने का
अवसर है। विपक्ष बिना
वजह विरोध कर रहा है।
रक्षा
मंत्री
राजनाथ
सिंह
: वन्दे मातरम् पर आपत्ति उठाना
स्वतंत्रता आंदोलन की नींव पर
चोट करना है। यह
गीत विभाजन नहीं, एकता का प्रतीक
है। राष्ट्र सम्मान से जुड़े मुद्दों
को राजनीतिक रूप न दिया
जाए।
प्रियंका
गांधी
(कांग्रेस)
: वन्दे मातरम् पर चर्चा से
हमें कोई ऐतराज़ नहीं,
लेकिन समय और उद्देश्य
बताते हैं कि मकसद
राजनीतिक है, खासकर बंगाल
चुनाव। बेरोज़गारी-महंगाई जैसे बड़े मुद्दों
से ध्यान हटाया जा रहा है।
सांस्कृतिक विषयों का चुनावी इस्तेमाल
हो रहा है। गीत
सबका है, इसे दलगत
एजेंडा न बनाया जाए।
अधीर
रंजन
चौधरी
(कांग्रेस)
: भाजपा का इतिहास का
प्रयोग वोट बैंक के
हिसाब से होता है।
वन्दे मातरम् को पार्टी का
झंडा न बनाया जाए।
राष्ट्रीय गीत पर राजनीतिक
दावा गलत है। सरकार
को असल मुद्दों पर
जवाब देना चाहिए।
अखिलेश
यादव
(समाजवादी
पार्टी)
: जो लोग अंग्रेजों के
समय मुखबिरी करते थे, आज
इतिहास को वन्दे मातरम्
की आड़ में बदलने
की कोशिश कर रहे हैं।
सरकार बहस को चुनावी
हथियार बना रही है।
युवाओं, किसानों के मुद्दे उपेक्षित
हैं। सांस्कृतिक विषयों का राजनीतिक दोहन
हो रहा है।
डेरेक
ओ’ब्रायन
(टीएमसी)
: बंगाल की विरासत का
चुनावी दोहन स्वीकार नहीं।
बंकिमचंद्र का गीत पवित्र
है, इसे राजनीति की
मशीन में मत डालिए।
भाजपा बंगाल की संस्कृति को
चुनाव में इस्तेमाल कर
रही है। गीत को
चुनावी नफे, नुकसान से
ऊपर रखा जाना चाहिए।
वाम
दलों
का
तर्क
: वन्दे मातरम् पर वास्तविक विवाद
कभी था ही नहीं।
लेकिन भाजपा इसे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण
से जोड़ रही है।
धर्म आधारित व्याख्या गलत है। जनता
के असली मुद्दे छिपाए
जा रहे हैं।








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