Saturday, 10 March 2018

भदोही की शान है कालीनें


भदोही की शान है कालीनें
बेलबूटेदार कलात्मक रंगों का इन्द्रधनुषी वैभव लिए हुए बेहद लुभावने भदोही के गलीचे दुनिया के बाजारों में अपनी धाक आज भी बरकरार रखे हुए हैं। इसकी बड़ी वजह हाथ से बनी होने आकर्षक टिकाऊपन। खास बात यह है कि भदोही की कालीने भारत सरकार को सिर्फ 11 हजार करोड़ रुपये विदेशी मुद्रा अर्जित कराती है बल्कि प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से 25 लाख से भी अधिक लोगों की रोजी-रोटी का साधन भी है। इसमे मोटे तौर पर भदोही जनपद की भागीदारी 6500 करोड़ रुपये है। हाथ से बनी कालीनों की खासियत का ही तकाजा है कि बढ़ती प्रतिस्पर्धा एवं मशीनी युग में भी सात समुंदर पार विदेशी खरीदारों में भदोही कालीनों की चाहत बरकरार है
सुरेश गांधी
जनपद में भदोही महोत्सव मनाया जा रहा है। ऐसे में भदोही के कालीनों का जिक्र करना जरूरी हो जाता है। कालीन बुनकरों के कुशल कारीगरी और उनके उंगलियों की जादूगरी के कारण पूरे विश्व में भदोही की हस्तनिर्मित कालीनों की एक अलग पहचान है। आज जहां चाईना, टर्की, इरान और पाकिस्तान से हस्तनीर्मित कालीनों का उद्यम सिमट रहा है तो अपनी कला और परंपरा के कारण भारत में यह उद्योग लगातार उंचाइयों पर पहुंच रहा है। वैसे भी फर्शो दीवारों की रंग-बिरंगी कालीने शान होती है। शायद यही वजह है कि अब घरों की सजावट सिर्फ रंग-रोगन, पेंटिंग तक ही सीमित नहीं रह गयी है। अब घर, आवासीय, होटल, स्टेडियम, प्रदर्शनी हॉल, वाहनों, जहाज, विमान और अन्य फर्श कवर, आसान, डाइंगरुम, बेडरूम या भोजन कक्ष और दीवारों पर सजावट के तौर पर कालीन का जमाना गया है। सात समुंदर पार के साथ-साथ अब भारत के शहरों में भी घर से लेकर प्रतिष्ठान तक सजाने के नए ट्रेंड काफी प्रचलन में है। खासकर फलैट कल्चर जाने से कालीन से घर को संजाने को लेकर लोगों के बीच काफी रुझान है। कालीनें घने संरचना के चलते ध्वनि घर के अंदर हवा की गुणवत्ता में सुधार और अस्थायी धूल कणों को भी अवशोशित कर लेती है। बता दें, आकर्षक कालीनों से ही भदोही को विश्व मानचित्र एवं हस्त कला के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान मिला हुआ है। इसकी वजह है कि पीछे की बिनावट और उसमें लगी गांठ ही इसकी हस्तनिर्मित होने का प्रमाण है। जितनी ज्यादा गांठ कालीन में होगी वह उतनी ही मजबूत टिकाऊ होती है। फर्नीचर, दीवारों के रंग फ्लोर से मैच करती कालीनों की डिमांड ज्यादा है।
बुनकरों का घर है भदोही
भदोही-मिर्जापुर क्षेत्र बुनकरों का घर है, जहां तकरीबन हर परिवार किसी किसी रुप में कालीन कारोबार से जुड़ा है। जहां तक कालीनों की बनावट डिजाइनिंग का सवाल है तो पूरी दुनिया में भदोही कालीनों की सिर्फ इसलिए डिमांड है कि वह हाथ से बनी होती है और आकर्षक होने के साथ ही टिकाऊ भी होती है। लेकिन अब परंपरागत से हटकर लोग फैशन कालीन पर ज्यादा जोर दे रहे हैं। अब लोग दो-तीन साल पर घर का इंटीरियर बदलते रहते हैं। ऐसे में उन्हें फैशनेबल कालीन, दरी किफायती दाम में चाहिए। बदलते ट्रेड के साथ ही कारोबारी निर्माण भी उसी के अनुरूप कर रहे हैं। इसके अलावा अब लोग हल्के रंग वाले कालीन को ज्यादा पसंद कर रहे हैं। हल्के, फैंसी के साथ ही सस्ते कालीन के ज्यादा आर्डर मिल रहे हैं। हालांकि कच्ची सामग्री बुनाई महंगी होने से कालीन काफी महंगे पड़ रहे हैं। करीब तीस फीसदी कास्ट बढ़े हैं। बावजूद इसके कद्रदानों की कमी नहीं है। अमेरिका यूरोप जैसे पश्चिमी देशों में लोगों की चाहत उत्कृष्ट होने के कारण हैंडमेड कार्पेट की मांग बनी हुई है। बेलवेट कपड़े पर सुनहरे कलर की जरी और आर्टिफिसियल नग जड़ित जरी कार्पेट की डिमांड गल्फ कंटी में अधिक होती है।
महिलाओं की कमाई का जरिया बनना कालीन उद्योग
कालीन उद्योग की लगातार बिगड़ते हालात के मद्देनजर अब बिनकारी से लेकर इससे जुड़े हर काम की कमान अब महिलाओं ने पुरुषों के हाथ से लेकर खुद संभाल ली हैं। कारपेट इंडस्टी में लगी तकरीबन सवा लाख महिलाएं इस पुश्तैनी काम से अपने परिवार की सिर्फ रोजी-रोटी चला रही है, बल्कि आमदनी बढ़ाने में भी आगे बढ़ रही हैं। ग्लोबलाइजेशन के दौर में बाजारों पर ब्रांड की कब्जेदारी के बाद कालीन उत्पादों में मुनाफा कम होने से हस्तशिल्पियों के इस गृह उद्योग पर संकट के बादल छा गए थे। घर के पुरुषों का हथकरघा से मोह भंग हो गया था। वह उचित मजदूरी मिलने काम के अभाव में मुंबई, दिल्ली, कोलकाता आदि शहरों में पलायन कर गए थे। लेकिन अब महिलाओं ने कालीन बिनकारी हो या कालीनों की फिनिशिंग आदि खुद करने लगी है। बिनकारी में जुटी दुर्गावती, लक्ष्मीना, आयशा, नसरीन बानों आदि ने बताया कि वह घर का आर्थिक स्थिति खराब होने के नाते इस काम में लगी। हाल यहां तक पहुंच गया था कि चूल्हें नहीं जल पा रहे थे। एक वक्त पानी पीकर ही बिताना पड़ता था। सदस्यों का खर्च चलाना मुश्किल हो गया था, अब राहत है। यही कमोवेश स्थिति अन्य महिलाओं की भी है। नंदिनी का कहना है कि बिनाई कम मिलने के बाद भी सकुन इस बात है कि कुछ नहीं से तो अच्छा है। घर में दो जून की रोटी तो बनने लगी है। मतलब साफ है कच्चे धागों की लय पिरोकर महिलाएं गृहस्थी की गाड़ी बेहतर ढंग से चला रही हैं। कालीन कारोबार से जुड़ी अल्पना, रोली, नीलोफर आदि का कहना है कि जब से बिनकारी, धुलाई, टेढ़ा, क्लीपिंग आदि में कदम रखी है तब से घर खर्च की मुश्किलें दूर हो गई हैं। पुरुष बाहर का कार्य देखते हैं अब करघा हमारे हाथ में है। बड़ी बात यह है कि महिलाओं को यह इसलिए भा रहा है कि घर बैठे काम हो जाता है।
मोदी के मेक इन इंडिया को बढ़ावा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कुशल विदेश नीति, नए देशों के आयातकों की आमद तथा चाइना जैसे देशों की हैंडनाटेड में रुचि को देखते हुए कारपेट इंडस्ट्री सफलता की नई इबारत लिख सकता है। दरअसल कालीन मेले विदेशी मेहमानों को बेहतर गुणवक्ता क्वांटिटी के कालीनों से रूबरू कराने का सशक्त माध्यम साबित होते हैं। यही कारण है कि कालीन निर्यात संवर्धन परिषद (सीईपीसी) मेले को लेकर बेहद गंभीरता का परिचय देती है। मेले की सफलता के लिए व्यापक प्रचार के साथ तैयारियों को भव्य रूप दिया जाता है। ताकि विदेशी मेहमानों को भारतीय कालीनों के प्रति आकर्षित किया जा सके। हालांकि विश्वव्यापी मंदी के चलते कालीन मेले पहले की अपेक्षा सफल नहीं हो रहे हैं। बावजूद इसके मेले के आयोजन के प्रति परिषद का रवैया बेहद सकारात्मक है। इंडिया कार्पेट एक्सपो को लेकर सिर्फ परिषद उत्साहित है बल्कि कालीन निर्यातकों की उम्मीदें भी आसमान छू रही हैं। पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी सरकार, नई सोच, नई विदेश नीति तथा उद्योग धंधों को बढ़ावा देने की पहल के मद्देनजर इंडिया कार्पेट एक्सपो कालीन व्यवसाय के लिए महत्वपूर्ण मंच बन चुका है।
पर्सियन कालीनें
क्वालिटी, खूबसूरती तथा टिकाऊपन के मामले में हैंडमेड कार्पेट का कोई सानी नहीं है। इंडो-नेपाल कार्पेट विदेशी ग्राहकों को कुछ ज्यादा ही भा रहा है। पांच अलग-अलग रंगों में निर्मित इस कालीन की पूछ अमेरिका, यूरोप ब्राजील देशों में ज्यादा है। यह सस्ता बढ़िया आइटम है। यह ऊल बेंबो सिल्क से निर्मित किया जाता है। जबकि डिजाइन ही नहीं रंगों की विविधता के चलते हस्तनिर्मित पर्सियन कालीनों की पूछ हमेशा से विदेशों में रही है। ऊल सिल्क के निर्मित पर्सियन कालीन रसिया, चाइना, जर्मनी, अमेरिका के लोग ज्यादा पसंद करते हैं। निर्माता अब कालीन निर्माण में परंपरागत प्योर सिल्क के अलावा तरह-तरह के प्रयोग करने लगे हैं। वुलेन, जूट, लेदर, कॉटन आदि के बीच अब पॉलिस्टर का भी प्रयोग होने लगा है। इनकी खूबसूरती इतनी होती है कि देखने वाला देखते ही रह जाता है। इसके अलावा आज नेचुरल फाइवर धागा से बने कालीन ज्यादा पसंद किए जा रहे हैं। नेचुरल फाइवर धागा नू सिल्क जो संतरे के छिल्ले से तैयार होता है। लिनेन फ्लैक्स जो तिल के पेड़ की छाल से तथा हैम्स नेटल यार्न जो गांजा के पेड़ की छाल से तैयार किया जाता है। वर्तमान में ज्यादातर कालीन इन धागों से तैयार किए जा रह हैं। चोचो कार्पेट यानी साड़ी सिल्क की डिमांड भी बढ़ी है। यह कालीन विदेशी ग्राहकों को कुछ ज्यादा भा रहा है।
रोजगार का बड़ा साधन है कालीन बिनकारी
अकेले कालीन बेल्ट में तकरीबन 25 लाख से अधिक बुनकर, निर्यातक इससे जुड़े लोग कालीन उद्योग में काम कर रहे है। यही वजह है कि हाल के दिनों में जिस तरह केंद्रीय कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी बुनकरों की दिनहीन दिशा दशा सुधारने के लिए कल्याणकरी योजनाएं चला रखी है, उससे साफ झलकता है कि वह बुनकरों के उत्थान के लिए संकल्पित है। वह चाहती है कि जो बुनकर अपनी हाड़तोड़ मेहनत के बूते सात समुन्दर पार भारतीय हस्तकला का जलवा बिखेर रहा है उसकी दैनिक जीवन चर्या भी बदले। बुनकरों के बच्चे भी पढ़ लिखकर समाज की मुख्यधारा से जुड़े। उनका मानना है कि बुनकर भारतीयहस्तकलाकी शान है, से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन यह भी सच है कि बुनकर के इस हाड़तोड़ मेहनत का ईनाम उसे नहीं मिल पाता। उसके हिस्से में सिर्फ और सिर्फ मुफलिसी ही हाथ लगती है। मेहनत का वाजिब दाम मिल पाना एक बड़ा संकट तो है ही, उसके परिवार की भी दिनहीन दशा में सुधार नहीं हो पाया है। इसके लिए कोई और नहीं बल्कि सरकारें ही जिम्मेदार है। इन्हीं संकटों से बुनकरों को उबारने की मंसूबा पाले केन्द्रीय कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी ने सिर्फ कई योजनाएं चला रखी है, बल्कि उनके लिए रोजगार के साधन भी मुहैया करा रही है। नयी दिल्ली में आयोजित चार दिवसीयइंडिया कारपेट एक्सपो के उद्घाटन मौके पर स्मृति जुबिन ईरानी का बुनकरों के प्रति प्रेम उस वक्त और छलछला उठा जब वह उनके हुनर को चार सौ से अधिक कारपेट स्टालों पर देखा। बलबूटेदार रंग बिरंगी आकर्षक डिजाइन वाली कालीनों को देख उनके मुंह से बरबस ही निकल पड़ा, ‘अब दिखा भारतीय संस्कृति और हस्तकला का नमूना
मंदी में भी बढ़ा इक्सपोर्ट
तमाम उतार-चढ़ाव मंदी के बावजूद देश का एकमात्र भारतीय कालीन उद्योग है जो निर्यात के क्षेत्र में लगातार आगे बढ़ रहा है। उम्मीद है कि कालीन उद्योग इसी तरह लगातार बढ़ता रहेगा। कहा जा सकता है भदोही निर्यात के क्षेत्र में भारत ही नहीं पूरी दुनिया में अपना मुकाम हासिल की है। नई बाजार नीति, उत्पादों के पहचान, विपणन तथा रंग-बिरंगी बलबूटेदार डिजाइनों के बीच भारत के सांस्कृतिक विरासत, धरोहर चित्रकारी ब्रांड निर्माण के बूते भदोही लगातार उपर उठ रहा है। दावा है कि अगर अन्य उद्योगों के सापेक्ष इसे भी सुविधाएं मुहैया कराई जाय तो बेहतर किया जा सकता है। बता दें, साल 2011-2012 में निर्यात दर 4583 करोड़ का था, जो साल 2012-2013 में 5875 करोड़, 2013-2014 में 7108 करोड़, 2014-2015 में 8441 करोड़, 2015-2016 में 9481 करोड़, 2016-2017 में 10001 करोड़ और 2017-2018 में 11000 करोड़ से भी अधिक हो गया है।
2025 तक कालीन होगा सबसे बड़ा कुटीर उद्योग
सबकुछ जानने के बाद स्मृति ईरानी ने साफ तौर पर कहा, पहली अप्रैल से कालीन उद्योग, हैंडलूम को बढ़ावा देने के लिए सरकार विशेष पैकेज देने वाली है। ‘‘हम प्रीमियम हस्तशिल्प उत्पादांे को प्रोत्साहन पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।’’ इस नई नीति का मकसद 2024-25 तक कपड़ा निर्यात को 3000 अरब डॉलर पर पहुंचाना और साथ ही 3.5 करोड़ अतिरिक्त रोजगार के अवसरांे का सृजन करना है। कपड़ा मंत्रालय फिलहाल राज्यांे और अन्य अंशधारकांे के साथ विचार विमर्श कर रहा है और वित्त मंत्रालय के साथ इसके वित्तीय प्रभाव पर काम कर रहा है। बता दें कालीन उद्योग भी कपड़ा मंत्रालय के ही अधीन है।
बुनकरों को मिलेगा सस्ता ऋण
बुनकरों को ऋण मुहैया कराने के लिए नाबार्ड में कारपेट इंडस्ट्री को भी एक इकाई की तरह जोड़ा गया है ताकि उन गरीब बुनकरों को ऋण मुहैया कराया जा सके, जो कालीन हैन्डलूम की बुनाई करते हैं। उन्होंने कहा कि सरकार बुनकरों मजदूरों के हितों को ध्यान में रखकर कई योजनाएं लागू की है। जिसमें उनके शिक्षा रोजगार पर विशेष ख्याल रखा है। क्योंकि जब बुनकर मजदूर विकास करेगा तभी हस्तकला भी विकसित होगी। ऐसे में जरुरी है कि उद्यमी भारतीय परंपराओं को भी अपने साथ जोड़े रखें। यह तभी संभव है जब उद्यमी बुनकर का आपसी सामंजस्य बना रहे। इसके लिए सीइपीसी का प्रयास सराहनीय है। क्योंकि कारपेट एक्स्पोंएक ऐसा माध्यम है जो भारतीय बुनकरों की कला को पूरी दुनियां में पहुंचने का अवसर उपलब्ध कराती है। साथ ही एक ही मंच पर कालीन उद्यमियों को अच्छा कारोबार मिल जाता है। उन्होंने ऐलान किया है कि बुनकर जहां भी लूम लगाना चाहते हैं, उन्हें औजार एवं उपकरण का 90 फीसदी भुगतान सरकार करेगी।
सरकार देगी निशुल्क शिक्षा 
बुनकर समुदाय के लोगों और उनके बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने के लिए केंद्र सरकार आगामी एक अप्रैल से एक महत्वाकांक्षी योजना शुरू करने जा रही है जिसके तहत अनुसूचित जाति, जनजाति, बीपीएल, ओबीसी, महिला एवं दिव्यांग लोगों की शिक्षा पर आने वाला 75 प्रतिशत खर्च केंद्र सरकार उठाएगी। इसके लिए इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) और राष्ट्रीय दूरस्थ शिक्षा संस्थान (एनआईओएस) के साथ हथकरघा विकास आयुक्त ने दो सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किए हैं। एक अप्रैल से पावरलूम सेक्टर के लिए भी सरकार एक विशेष पैकेज की घोषणा करने वाली है। बुनकरों को ऋण मुहैया कराने के लिए नाबार्ड में हैंडलूम को भी एक इकाई की तरह जोड़ा गया है ताकि बुनकरों को ऋण उपलब्ध कराया जा सके। बुनकरों को उनकी पसंद के अनुसार लूम मुहैया कराने के लिए भी सरकार हथकरघा संवर्धन सहयोग योजना पर काम कर रही है जिसके तहत बुनकर को केवल दस फीसदी का निवेश करना होगा और लूम पर आने वाला बाकी 90 फीसदी खर्च सरकार वहन करेगी।
ज्यादा हैंडलूम इस्तेमाल से बुनकरों
को मिलेगा रोजगार: स्मृति ईरानी
स्मृति ईरानी ने खुद लोगों से ज्यादा खादी और हैंडलूम के साथ हाथ से बनी कालीनों के इस्तेमाल करने की अपील की है। स्मृति ईरानी ने खुद ट्विटर पर अपनी एक तस्वीर शेयर करते हुए लिखा, ‘मैं भारतीय बुनकरों का समर्थन करती हूं। उनका मानना है कि भारतीय हाथकरगा भारत की संस्कृति और विरासत की पहचान हैं। अपनी परंपराओं को आगे ले जाने के लिए जरुरी है कि लोग बुनकरों के हाथ से बनी उत्पाद को पहने। उनके मुताबिक देश में तकरीबन 43 लाख बुनकर है और मेहनत से ही उनके परिवारों का भरण-पोषण होता है। इसलिए बुनकरों के हाथ से बनी उत्पादों का हम जितना इस्तेमाल करेंगे, उससे हम उनका समर्थन करेंगे।
500 साल पुराना है कालीन का इतिहास
यहां के कालीन उद्योग का लिखित साक्ष्य 16वीं सदी के रचना आइन--अकबरी से मिलने लगता है। वैसे कालीन उद्योग का इतिहास लगभग 5000 वर्ष पुराना है। पहला कालीन लगभग 3000 0 पूर्व मिश्र वासियों ने बनाया था। मिश्रवासी बुनाई कला के अच्छे ज्ञाता थे। वहीं से यह कला फारस पहुंची लेकिन अरब संस्कृति की वजह से इसका विकास बाधित हो गया। अब्बासी खलीफाओं के समय में रचितअरेबियन नाइट्सकहानियों में जिन्न के साथ कालीनों के उड़ने का उल्लेख मिलता है। इन कहानियों में वर्णित हारून-उल-रशीद वास्तव में खलीफा थे जिन्हें अरबों का एक छत्र प्रभुत्व समाप्त करने का श्रेय दिया जाता है। 
अब्बासी खलीफाओं के पश्चात इस्लामिक साम्राज्य का विकेन्द्रीकरण हुआ तथा तुर्की इस्लामिक राज्यों का उदय हुआ। मुगल राज्य भी उन्हीं में से एक था। फारस से मुगलों के साथ कालीन बनाने की कला भारत आयी। कश्मीर को मुगलों ने इस कला के लिए उपयुक्त स्थल के रूप में चुना जहॉं से यहॉं उत्तर-प्रदेश, राजस्थान पंजाब पहुंची। 1580 0 में मुगल बादशाह अकबर ने फारस से कुछ कालीन बुनकरों को अपने दरबार में बुलाया था। इन बुनकरों ने कसान, इफशान और हेराती नमूनों के कालीनें अकबर को भेंट की। अकबर इन कालीनों से बहुत प्रभावित हुआ उसने आगरा, दिल्ली और लाहौर में कालीन बुनाई प्रशिक्षण एवं उत्पाद केन्द्र खोल दिये। इसके बाद आगरा से बुनकरो का एक दल जीटी रोड के रास्ते बंगाल की ओर अग्रसर हुआ। रात्रि विश्राम के लिए यह हल घोसिया-माधोसिंह में रूका। इस दल ने यहॉं रूकने पर कालीन निर्माण का प्रयास किया। स्थानीय शासक और जुलाहों के माध्यम से यहॉं कालीन बुनाई की सुविधा प्राप्त हो गयी। धीरे-धीरे भदोही के जुलाहे इस कार्य में कुशल होते गए। वे आस-पास की रियासतों मे घूम-घूम कर कालीन बेचते थे और धन एकत्र करते थे। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के व्यापारी इस कालीन निर्माण की कला से बहुत प्रभावित थे उन्होने अन्य हस्तशिल्पों का विनाश करना अपना दायित्व समझा था लेकिन कालीन की गुणवत्ता और इसके यूरोपीय बाजार मूल्य को देखकर इस हस्तशिल्प पर हाथ नहीं लगाया। 1851 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने यहॉं के बने कालीनों को विश्व प्रदर्शनी में रखा जिसे सर्वोत्क्रष्ट माना गया। पर्शियन कार्पेट के लिए कम से कम 4 कारीगरों की जरूरत पड़ती है। कालीन की चैड़ाई के हिसाब से कारीगर लगाए जाते हैं। हर ढाई फीट पर एक कारीगर काम करता है। आमतौर पर एक कारीगर ढाई फीट यानी दोनों हाथों की लंबाई तक बुनाई करता है। अपनी गांठों के कारण मशहूर इस कालीन को बनाने में कम से कम 3 से 4 महीने लगते हैं। इसकी कीमत भी गांठों पर आधारित होती है। जितनी ज्यादा गांठें उतनी ज्यादा कीमत। कालीन के पीछे से गांठों की गिनती हर स्क्वेयर इंच में की जाती है। अब इसमें केमिकल कलर का भी इस्तेमाल किया जा रहा है। इस वजह से कुछ पर्शियन कार्पेट कुछ सस्ते मिलने लगे हैं। वल्र्ड मार्केट में चाइना मशीनों के जरिये बारीक गाठों वाला पर्शियन कार्पेट बनने लगा है। इसके बावजूद डिमांड में कमी नहीं हैं। इस समय कालीन उद्योग देश के 10 राज्यों के 25 जिलों में फैल चुका है।
भदोही कालीन का पेटेंट
बनारसी साड़ी, दार्जिलिंग की चाय, लखनवी चिकन के कपड़ों के बाद उत्तर प्रदेश के भदोही जिले की विश्व प्रसिद्ध कालीन का जियोग्राफिकल इंडिकेशन (जीआई) के तहत रजिस्ट्रेशन होने के बाद पेटेंट मिल गया है।
सुविधाएं मिले तो इक्सपोर्ट होगा दुगुना
अकेले कालीन बेल्ट भदोही-मिर्जापुर, बनारस में तकरीबन 20 लाख से अधिक बुनकर, निर्यातक इससे जुड़े लोग कालीन उद्योग में काम कर रहे है। बुनकरों की दिनहीन दिशा दशा सुधारने के लिए सरकार एक-दो नहीं कई कल्याणकारी योजनाएं भी चला रखी है। लेकिन योजनाओं का सिस्टमेटिक होने से अधिकांश बुनकर निर्यातक उसका लाभ नहीं ले पा रहे हैं। एक तरफ बुनकरों के हाड़तोड़ मेहनत का ईनाम उन्हें नहीं मिल पाता, तो दुसरी तरफ कालीन निर्यातकों को इंडस्ट्री की पहचान के मुताबिक सुविधाएं नहीं मिल पा रही है। इसके लिए कोई और नहीं बल्कि सरकारें ही जिम्मेदार है। इंडस्ट्री को बढ़ावा विदेशी खरीदारों को एक छत के नीचे हर तरह की कालीने मुहैया कराने के मकसद से तकरीबन 200 करोड़ की लागत से निर्मितकारपेट एक्स्पों मार्टसफेद हाथी बनकर रह गया है। निर्माण के दो साल बीतने के बाद भी अभी तक उसका कोई उपयोग साबित नहीं हो सका। कालीन कारोबारियों का कहना है कि बगैर पंच सितारा होटल, सड़के हवाई सुविधाओं के भदोही में मार्ट का कोई औचित्य ही नहीं है। क्योंकि विदेशी खरीदारों को ठहरने के लिए यहां कोई व्यवस्था ही नहीं हैं। वह मानते है कि इस बड़ी धनराशि को उन बुनकरों के कल्याण हेतु खर्च किया जाना चाहिए था, जिनके हाड़तोड़ मेहनत एवं हूनर की बदौलत पूरी इंडस्ट्री चल रही है। लेकिन पांच लाख से भी अधिक बुनकरों की आवाज दुख-दर्द को नजरअंदाज किया गया। सरकार से विकास के लिए भारी-भरकम धन मिलने के बावजूद इस इलाके का विकास नहीं हो सका। जिला सृजन के 22 साल बाद भी लोगबाग बिजली, पीने के पानी के लिए तरस रहे है। औराई रोड, इंदिरामिल बाईपास, स्टेशन रोड, मेन रोड, नयी बाजार आदि सड़कों की हालात किसी से छिपी नहीं है। पता ही नहीं चलता सड़क गड्ढे में या गड्ढे में सड़क। भदोही, ज्ञानपुर, नयी बाजार, खमरिया, सुरियावा, गोपीगंज घोसिया सहित अन्य शहरी इलाकों में जल निकासी की व्यवस्था होने से बारिश के दिनों इलाके झील नजर आते है। घोषणा के 8 साल बाद भी अभी तक जिला अस्पताल न्यायालय नहीं बन सका है। भदोही के ज्ञानपुर नगर, गोपीगंज औराई में फलाईओवर ब्रिज, सीतामढ़ी को पर्यटक स्थल का दर्जा, रामपुर घाट धनतुलसी मार्ग पर पक्का पुल निर्माण की फाइले सचिवालय में सालों से धूल खां रही है। शिक्षा का हाल यह है कि इंटरमीडिएट के बाद साइंस के छात्राओं को ग्रेजूएसन के लिए गैर जनपद जाना पड़ता है। अभियान के बाद भी प्राइमरी स्कूल बदहाल है। सुविधाओं एवं योग्य चिकित्सकों के अभाव में अस्पतालें सिर्फ डाक्टरी मुआयना तक ही सीमित है। जिला बनने के बाद एक भी नया उद्योग या इंस्टीच्यूट नहीं स्थापित हो

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